Followers

Saturday, 29 December 2018

किसी भी सरकारी विभाग की Vacancy निकलती हैं तो उसकी फार्म फीस 500-700 होती ही हैं

नौकरी

यह कैसा लॉजिक है ,
DATE :- 29/12/2018
किसी भी सरकारी विभाग की Vacancy निकलती हैं तो उसकी फार्म फीस 500-700 होती ही हैं

सरकार विद्यार्थियों से *पैसा कमाना* चाहती हैं या उन्हें *रोजगार देना* ??? अभी तक पता नहीं चला है ।

उदाहरण के लिए:-
पोस्ट होती हैं *50* (Seat)
फॉर्म पूरे *भारत* से भरवाते हैं ।

फॉर्म फीस होती हैं 500 रु ,
*50 लाख से 80 लाख विद्यार्थी* फॉर्म भरते हैं

_*आइये सरकार का फायदा देखते हैं*_

500 रु फॉर्म फीस × 50,00,000 विद्यार्थीयों ने फॉर्म भरें =
(कुल आय फॉर्म फीस से)
*2 अरब 50 करोड़ रु*

नौकरी देनी हैं *50* को
सैलेरी *25000* रु प्रति माह मान लेते , ज्यादा मानी गयी हैं इतनी होती नहीं हैं

25000 × 50 लोग = 12,50,000 महीना

12,50,000 × 12 महीने = 1 करोड़ 50 लाख

*चालीस साल की नौकरी करने पर*
1,50,00,000 × 40 साल = *60 करोड़*

सरकार की फॉर्म फीस कुल आय = *2 अरब 50 करोड़ रूपए*

*अप्पोइंटेड लोगों की 40 साल तक की सैलेरी*
60 करोड़ रु

2,50,00,00,000 – 60,00,00,000 = *1,90,00,00,000*

*सरकार की कुल आय = 1 अरब 90 करोड़ रु*

मेरा सवाल – सरकार व विभाग से यह हैं कि आप विद्यार्थीयों को नौकरी देना चाहते हैं या
पैसा कमाना चाहते हैं ???

इस संदेश को अपने जान पहचान के लोगों को अवश्य बांटे…...
    👉🏻  *घुमा दो सारे ग्रुप मैं*

Sunday, 2 December 2018

एटीएम, चेक से कैश निकालना पड़ेगा भारी, प्रत्येक ट्रांजेक्शन पर देने होंगे कम से कम 25 रुपये

Huzaifa Patel  SAF Team gujarat:
02/12/2018

बैंक उपभोक्ताओं पर अब जीएसटी की बड़ी मार पड़ने वाली है। इसके चलते बैंक के अंदर या फिर बाहर होने वाले सभी तरह के लेनदेन पर टैक्स देना होगा। चेक भुनाने से लेकर के एटीएम से कैश निकालने पर अतिरिक्त पैसा देना होगा। 

*एटीएम-बैंक में नहीं मिलेंगी मुफ्त सेवाएं*

इससे ग्राहकों को बैंक और एटीएम पर मिलने वाली मुफ्त सुविधा भी खत्म हो जाएगी। अभी ग्राहक अपने बैंक के एटीएम से पांच बार मुफ्त ट्रांजेक्शन कर सकते हैं। नई व्यवस्था लागू हो जाने के बाद यह मुफ्त ट्रांजेक्शन खत्म हो जाएंगे।  बैंक आपको ये सेवाएं मुफ्त देता हैं जबकि बैंकों को इस तरह की सेवाओं पर लगभग 40 हजार करोड़ रुपये का सर्विस टैक्स देना पड़ता है।

*इतनी बढ़ेगी फीस*

बैंक इसके अलावा एटीएम पर होने वाले नॉन बैंकिंग ट्रांजेक्शन की फीस को भी 18 रुपये से बढ़ाना चाहते हैं। यह बढ़कर के 25 रुपये तक हो सकती है। इस फीस को 2012 में तय किया गया था और तब से इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। एटीएम से एक ट्रान्जेक्शन की लागत एक दिन का 23 रुपये आती है।  

*अभी है यह चार्ज*

वर्तमान में सभी बैंक एटीएम पर होने वाले कैश ट्रांजेक्शन के लिए 15 रुपये और नॉन कैश ट्रांजेक्शन करने पर खाते से 5 रुपये काटते हैं। यह चार्ज हर महीने फ्री में मिलने वाले ट्रांजेक्शन के ऊपर लगता है। 

*इस वजह से बढ़ेगा चार्ज*

रिजर्व बैंक ने एटीएम पर होने वाले ट्रांजेक्शन के लिए काफी कड़े नियम बना दिए हैं, जिसके बाद एटीएम ऑपरेटर्स ट्रांजेक्शन चार्ज बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। एटीएम इंडस्ट्री ने ट्रांजेक्शन पर 3-5 रुपये बढ़ाने की मांग की है, ताकि वो अपने खर्चों को पूरा कर सके।

सीएटीएमआई के निदेशक के श्रीनिवासन ने कहा एटीएम ऑपरेटर्स के खर्चे पहले ही काफी बढ़ चुके हैं। कैश वैन के लिए बनाए गए इन नियमों के अनुसार कैश मैनेजमेंट कंपनियों के पास में कम से कम 300 कैश वैन, प्रत्येक कैश वैन में एक ड्राइवर, दो कस्टोडियन और दो बंदूकधारी गार्ड होने चाहिए ताकि कैश की सुरक्षा हो सके।

इसके साथ ही प्रत्येक गाड़ी में जीपीएस, लाइव मॉनेटरिंग के साथ भू मैपिंग और नजदीकी पुलिस स्टेशन का पता होना चाहिए ताकि इमरजेंसी के वक्त मदद ली जा सके। इसके साथ ही आरबीआई ने कहा है कि एटीएम का ऑपरेशन केवल वो ही व्यक्ति कर सकेगा, जिसने ट्रेनिंग के बाद सर्टिफिकेट हासिल किया हो। 

*18 फीसदी लगेगा इन सेवाओं पर जीएसटी*

जिन मुफ्त सेवाओं पर बैंकों ने 18 फीसदी जीएसटी लगाने का प्रस्ताव दिया है उसमें चेक बुक, एटीएम का प्रयोग, अतिरिक्त क्रेडिट कार्ड और पेट्रोल-डीजल का कार्ड से भुगतान पर मिलने वाले रिफंड शामिल है। फिलहाल भारतीय स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई और एचडीएफसी बैंक इस चार्ज को लगाना सबसे पहले शुरू करेंगे। इसके बाद अन्य बैंक भी इस तरह की घोषणा कर सकते हैं। 

*बेसिक बचत खाते पर भी लगेगा टैक्स*

जिन लोगों ने अपना बेसिक बचत खाता खुलवा रखा है, उनको भी एटीएम का प्रयोग करने पर टैक्स देना होगा। जो लोग अपने खाते में मिनिमम बैलेंस नहीं रखते हैं उन से भी जीएसटी वसूला जाएगा।   

COPY
SAF Team Gujarat

Wednesday, 28 November 2018

मुन्नवर_राणा सहाब की यह ग़ज़ल ने सच का मानो आईना दिखा दिया

अब फ़क़त शोर मचाने से नहीं कुछ होगा।।
सिर्फ होठों को हिलाने से नहीं कुछ होगा।।

ज़िन्दगी के लिए बेमौत ही मरते क्यों हो।।
अहले इमां हो तो शैतान से डरते क्यों हो।।

तुम भी महफूज़ कहाँ अपने ठिकाने पे हो।।
बादे अखलाक तुम्ही लोग निशाने पे हो।।

सारे ग़म सारे गिले शिकवे भुला के उठो।
दुश्मनी जो भी है आपस में भुला के उठो।।

अब अगर एक न हो पाए तो मिट जाओगे।।
ख़ुश्क पत्त्तों की तरह तुम भी बिखर जाओगे।।

खुद को पहचानो की तुम लोग वफ़ा वाले हो।।
मुस्तफ़ा वाले हो मोमिन हो खुदा वाले हो।।

कुफ्र दम तोड़ दे टूटी हुई शमशीर के साथ।।
तुम निकल आओ अगर नारे तकबीर के साथ।।

अपने इस्लाम की तारीख उलट कर देखो ।
अपना गुज़रा हुआ हर दौर पलट कर देखो।।

तुम पहाड़ों का जिगर चाक किया करते थे।।
तुम तो दरयाओं का रूख मोड़ दिया करते थे।।

तुमने खैबर को उखाड़ा था तुम्हे याद नहीं।।
तुमने बातिल को पिछाड़ा था तुम्हे याद नहीं।।।

फिरते रहते थे शबो रोज़ बियाबानो में।।
ज़िन्दगी काट दिया करते थे मैदानों में..

रह के महलों में हर आयते हक़ भूल गए।।
ऐशो इशरत में पयंबर का सबक़ भूल गए।।

अमने आलम के अमीं ज़ुल्म की बदली छाई।।
ख़्वाब से जागो ये दादरी से अवाज़ आई।।

ठन्डे कमरे हंसी महलों से निकल कर आओ।।
फिर से तपते हु सहराओं में चल कर आओ।।

लेके इस्लाम के लश्कर की हर एक खुबी उठो।।
अपने सीने में लिए जज़्बाए ज़ुमी उठो।।

राहे हक़ में बढ़ो सामान सफ़र का बांधो।।
ताज़ ठोकर पे रखो सर पे अमामा बांधो।।

तुम जो चाहो तो जमाने को हिला सकते हो।।।
फ़तह की एक नयी तारीख बना सकते हो।।।

खुद को पहचानों तो सब अब भी संवर सकता है।।
दुश्मने दीं का शीराज़ा बिखर सकता है।।

हक़ परस्तों के फ़साने में कहीं मात नहीं।।।।।।।।
तुमसे टकराए *"मुसलमानो"* ज़माने की ये औक़ात नहीं।।

✏______*Munawwar Rana*

Monday, 26 November 2018

भारत के संविधान की अनुसूचियाँ

संविधान हमारा हमारा अधिकार  दिलाता हे ।

संविधान को 26 नवम्बर 1949 जब संविधान सभा द्वारा पारित किया गया तब भारतीय संविधान में कुल 22 भाग, और 8 अनुसूचियां थीं । वर्तमान में संविधान में ये 22 भाग ,395 अनुच्छेद मूल संविधान में संवैधानिक संशोधनों के बाद अनुसूचियां की संख्या 12 हो गई है । संविधान संशोधन अधिनियम, 1992के अंतर्गत क्रमशः संविधान के 73वें और 74वें संशोधन द्वारा 11वीं एवं 12वीं अनुसूची को संविधान में जोड़ा गया हैं। नीचे भारत के संविधान की अनुसूचियाँ ,भाग एवं अनुच्छेद दिया गया है

भारत के संविधान की अनुसूचियाँ की सूची 
1) प्रथम अनुसूची :- इसके अंतर्गत भारत के 29 राज्य तथा 7 केंद्र शासित प्रदेशो का उल्लेख किया गया है|
2) दूसरी अनुसूची : इसमें भारतीय संघ के पदाधिकारियों (राष्ट्रपति ,राज्यपाल ,लोकसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष , राजसभा के सभापति एवं उपसभापति ,विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष,विधान परिषद् के सभापति एवं उपसभापति,उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों और भारत के नियत्रंक महालेखा परीक्षक आदि ) को मिलने वाले वेतन, भत्ते तथा पेंशन का उल्लेख है |
3) तीसरी अनुसूची :- इसमें भारत के विभिन्न पदाधिकारियों(राष्ट्रपति , उप राष्ट्रपति , उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों ) की शपथ का उल्लेख है|
4) चौथी अनुसूची :- इसके अंतर्गत राज्यों तथा संघीय क्षेत्रो की राज्यसभा में प्रतिनिधित्व का विवरण दिया गया है|
5) पाँचवी अनुसूची :- इसमें अनुसूचित क्षेत्रों तथा अनुसूचित जनजाति के प्रशासन व नियंत्रण के बारे में उल्लेख है|
6) छठी अनुसूची :- इसमें असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में प्रावधान हैं|
7) सातवी अनुसूची :- इसके अंतर्गत केंद्र व राज्यों के बीच शक्तियों का बटवारे के बारे में दिया गया है| इसके अंतर्गत तीन सूचियां है :-
i) संघ सूची :- इसके अंतर्गत 100 विषय है| इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल केंद्र को है | संविधान के लागू होने के समय इसमे 97 विषय थे |
ii) राज्य सूची :- इस सूची में 61 विषय है| जिन पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्य को है| लेकिन राष्ट्रहित से सम्बन्धित मामलो में केंद्र भी कानून बना सकता है | संविधान के लागू होने के समय इसमे 66 विषय थे |
iii) समवर्ती सूची :- इसके अंतर्गत 52 विषय है| इन पर केंद्र व राज्य दोनों कानून बना सकते है|परन्तु कानून के विषय समान होने पर केंद्र सरकार द्वारा बनाया गया कानून मान्य होता है|राज्य द्वारा बनाया गया कनून केंद्र द्वारा बनाने के बाद समाप्त हो जाता है| संविधान के लागू होने के समय इसमे 47 विषय थे |
8) आठवी अनुसूची :- इसमें भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं का उल्लेख किया गया है| मूल संविधान में 14 मान्यता प्राप्त भाषाए थी | सन 2004 में चार नई भाषाए मैथली, संथाली, डोगरी और बोडो को इसमें शामिल किया गया |
9) नौंवी अनुसूची :- यह अनुसूची प्रथम संविधान संसोधन अधिनियम 1951 द्वारा जोड़ी गयी थी| इस अनुसूची में सम्मिलित विषयों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती| लेकिन यदि कोई विषय मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करे तो उच्चतम न्यायालय इस कानून की समीक्षा कर सकता है| अभी तक नौंवी अनुसूची में 283 अधिनियम है, जिनमे राज्य सरकार द्वारा सम्पति अधिकरण का उल्लेख प्रमुख है|
10) दसवी अनुसूची :- इसे 52वें संविधान संशोधन अधिनियम 1985 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| इस अनुसूची में दल-बदल सम्बन्धित कानूनों का उल्लेख किया गया है|
11) ग्यारहवी अनुसूची :- यह अनुसूची 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| यह अनुसूची पंचायती राज से सम्बन्धित है, जिसमे पंचायती राज से सम्बन्धित 29 विषय है|
12) बारहवी अनुसूची :- यह अनुसूची 74वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| इसमें शहरी क्षेत्रों के स्थानीय स्वशासन संस्थानों से सम्बन्धित 18 विषय है|


Thursday, 1 November 2018

भारत का मुसलमान और मूलनिवासी मूवमेंट

date:- 22/10/2018
____________________________________

▪मजहब ए इस्लाम क्या कहता है ?
▪ भारत मे मुस्लिम शासको  ने क्या किया ?
▪ आजादी के बाद मुस्लिम ने क्या किया ?
▪ दंगो के दौरान मुस्लिमो पर हमले कौन करता है और क्यो ?
▪ दंगे कौन कराता है ?
▪ क्या हकीकत मे भारत सेक्युलर मुल्क है ?
▪ क्या कोंग्रेस पार्टी सेक्युलर है  ?
▪ क्या सामाजिक मूवमेंट मे औरते हिस्सेदारी कर सकती है ?
▪मूलनिवासी मूवमेंट से जुड़कर काम करना  जोखिमपूर्ण  है या आसान ?
▪ मुसलमानो को इस मे जुडना चाहिए कि नही ?   क्यो ?
▪ मूवमेंट से जुड़े लोग जो कार्य कर रहे है वो अहम है कि नही ?
▪ आलिमो के लिए क्या अहम पैगाम ?

       *सोशल मीडिया मे मूलनिवासी मूवमेंट के बारे मे पढ सुन कर मुस्लिमो मे एक जिज्ञासा बनी हुई है तो साथ साथ जहनो मे कुछ सवालात भी होते है, जिस के जवाबात जरुरी है, जिसे हल करने के लिए आप की खिदमत मे एक विडियो जो सिर्फ 8 मिनट का है वो पेश है।*

   आप सुकून से सुनिए और खुद फैसला कीजिए।
___________________________________

Wednesday, 31 October 2018

क्या_बदलेगा_मुस्लिम_समाज.....????

अजमेर में ख़्वाजा़ मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह की दरगाह पर सालाना उर्स चल रहा हो तो लाखों की तादाद में मुसलमान बसों मे भर-भर कर अजमेर पहुँच जाते हैं। इनमें बड़ी तादाद में औरते और बच्चें भी शामिल हैं। इस वर्ष मार्च में मक्का से हरम शरीफ़ यानि ख़ाना-ए-काबा के इमाम भारत आए तो उनके पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए लाखों मुसलमान 200-300 किलोमीटर दूर तक से दिल्ली और देवबंद पहुँच गए। इससे पहले फरवरी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर में हुए तब्लीग़ी जमात के तीन रोज़ा इज़्तमा में 11 लाख लोगों के लिए पंडाल का इंतज़ाम किया गया था लेकिन वहां 25 लाख से ज़्यादा लोग पहुँचे। हज़ारों लोग काम-काज छोड़ कर कई हफ़्तों तक इज़्तमा में आने वालों की ख़िदमत में लगे रहे। इससे पता चलता है कि धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए मुसलमान किस हद तक दिलोजान से तन मन धन लगाकर काम करते हैं..!!

अब ज़रा तस्वीर के दूसरे रुख़ पर ग़ौर करें। पिछले दिनों सहारनपुर में मुस्लमानों पिछड़ेपन को दूर करने को लेकर और विकास का एजेंडा तय करने और उसे राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए एक सम्मेलन हुआ। इसमें लागू करने की मांग के साथ सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल भी शामिल था। इसमें बमुश्किल तमाम पच्चीस मुसलमान पहुँचे। इसके अगले दिन बिजनौर में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों का सम्मेलन हुआ स्थानीय लोगों ने पांच हज़ार से ज़्यादा की भीड़ जुटाने का ऐलान किया था लेकिन सम्मेलन में कुल जमा 100 लोग भी नहीं पहुँचे।
2009 मार्च में दिल्ली में लोकसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के तमाम संगठनों ने मिलकर दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की। रैली का एजेंडा था मुसलमानों की सत्ता में हिस्सेदारी, इनके विकास के लिए जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग। इस रैली में लोगों को लाने के लिए बड़े पैमाने पर बसों का इंतज़ाम किया गय़ा था। लोगों के बैठने के लिए 50 हज़ार कुर्सियों का इंतज़ाम था लेकिन रैली में दो हज़ार लोग भी नहीं पहुँचे। लेकिन पिछले दिनों रामलीला मैदान में इमाम-ए-हरम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाली की ऐसी भीड़ उमड़ी कि पैर रखने की भी जगह नहीं बची। धार्मिक आयोजनों के मौक़ों पर मुसलमानों का जोश बल्लियों उछलता है। लेकिन जब समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए तालीमी और सियासी बेदारी का मामला आता है तो ये जोश बर्फ़ की तरह ठंडा पड़ जाता है। शबेरात को नफ़िल नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमान रात-रात भर जागते हें। क़ब्रिसतान में जाकर फ़ातिहा पढ़ते है। रमज़ान में दिन भर टोपी सिर से नहीं उतरती। तरावीह पढ़ने के लिए दूर-दूर तक चले जाएंगे। लेकिन जब समाजाकि, तालीमी और सियासी बेदारी के लिए काम करने का मसला आता है तो लोगों को अपने रोज़गार की फ़िक्र सताने लगेगी। फ़िक्र भी ऐसी मानों अगर एक दिन काम नहीं करेंगे तो शाम को घर में चूल्हा नहीं जलेगा। उनका परिवार भूखा मर जाएगा। लेकिन ऐसे तर्क देने वाले लोग धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। इस लिए ताकि वो सवाब कमा सकें। सवाब मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। लेकिन कब? मरने के बाद। किसको कितना सवाब मिलेगा इसका फ़ैसला क़यामत के दिन होगा। क़यामत कब आएगी ये भी किसी को पता नहीं। सवाब के चक्कर में मुसलमान अपनी दुनियादारी की वो तमाम ज़िम्मेदारी भूल जाते हैं जिन्हें निभाना फ़र्ज़ है। नबी-ए-करीमहजरत मुहम्मद (सअव) ने तालीम हासिल करने को हर मर्द और औरत पर फ़र्ज़ बताया। ये भी कहा कि तालीम हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े। लेकिन यहां किसी को उन मुसलमानों के बच्चों की तालीम फ़िक्र ही नहीं है जो ग़ुरबत की वजह से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। सरकार ने मुफ़्त तालीम को ज़रूरी बना दिया है। मुसलमानों के विकास के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती है। सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों पर अमल के लिए सरकार ने क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपए का बजट दिया है। लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। अमल हो जाए तो मुसलमानों की आने वाली नस्लों की तक़दीर संवर जाए। जमहूरियत में ताक़त दिखा कर ही अपने हक़ में फ़ैसले कराए जाते हैं। लेकिन अपनी ताक़त दिखाने में मुसलमान सबसे पीछे है। मुट्ठी भर गुर्जर और जाट जब चाहते हैं सड़कों और रेल की पटरियों पर बैठ कर जिस सरकार को चाहते है झुका देते हैं। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव नें चंद लाख लोग इकट्ठे किए और यूपीए सरकार की चूलें हिला दीं। लेकिन धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मुसलमान जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने की मांग करने के लिए एक दिन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर नहीं आ सकते। क्योंकि इन्हें अपनी आने वाली नस्लों के विकास से कोई मतलब नहीं है इन्हें तो बस अपने लिए जन्नत में जगह और ढेर सारा सवाब चाहिए।
दरअसल, धार्मिक रहनुमाओं ने मुसलमानों को घुट्टी पिला रखी है कि ये दुनिया फ़ानी है। इसके बाद यानि मरने के बाद आख़िरत की ज़िंदगी शुरू होगी जो कभी ख़त्म नहीं होगी। दुनिया को छोड़ कर बस उसी के लिए काम करो। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इसी बहकावे में आकर दुनिया और दुनियीदारी की अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां भुला बैठा है। ये तबक़ा तालीम की कमी और ना समझी में धार्मिक रहनुमाओं का एजेंड़ा पूरा करने में जुटा हुआ है। हैरानी की बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर पिछड़े हुए मुसलमान हैं..!!

धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए लाखों का तादाद मे जमा होने वाले मुसलमानों में 90 फ़ीसदी पिछड़े हुए मुसलमान ही होते है। ये अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद करते हैं। पैसा बर्बाद करते हैं। और इन्हें मज़हबी जुनून मे अंधा करने वाले मज़े लूटते हैं। ताज्जुब की बात है कि मुसलमानों के तमाम धार्मिक संगठनों और मसलकी संगठनों पर उंचे तबक़े के मुसलमान क़ाबिज़ है। कामयाब धार्मिक आयोजनों के आधार पर ये तमाम संगठन मुस्लिम देशों से बेहिसाब पैसा इकट्ठा करते हैं। ये सारा पैसा ज़कात और ख़ैरात के रूप में ग़रीब मुसलमानों की मदद के लिए आता है। लेकिन उन तक पहुँचने के बजाए के मुस्लिम संगठनों के रहनुमाओं की तिजोरियों में पहुँच जाता है।
धार्मिक रहनुमाओ नें मुसलमानों को ज़मीन से नीचे (क़ब्र के अज़ाब) और आसमान के उपर की बातों में ऐसा उलझा रखा है कि ज़्यादातर मुसलमान दुनिया में आने का असली मक़सद ही भूल बैठे है। सवाब कमाने के चक्कर में वो अपने विकास से ग़ाफ़िल हो जाते हैं। धार्मिक रहनुमाओं की इस दकियानूसी सोच और मुसलमानों को पिछड़ा रखने की साज़िश के ख़िलाफ समाज में आवाज़ भी नहीं उठती। कभी कोई आवाज़ उठाने की कोई हिम्मत करता भी है तो फ़तवे जारी करके उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। या फिर डरा धमका पर उसे चुप करा दिया जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान हो रहे हैं..!!

संसद और विधानसभाओं में उनकी कोई रहनुमाई है नहीं। ऊँचे तबक़े की रहनुमाई वाले मुस्लिम संगठन कभी उनके हक़ की बात नहीं करते। इसके उलट वो मुस्लिम हितों के नाम पर धार्मिक मसलों पर सरकारों से डील करने में लगे रहते हैं। उनके अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए बढ़िया पब्लिक स्कूल बने हुए हैं। इनकी फ़ीस इतनी ज़्याद होती है कि आम पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान इतनी फ़ीस दे नहीं सकता। ये तमाम संगठन मिलकर मुफ़्त शिक्षा के क़ानून के दायरे से खुद को बाहर रखने की मांग कर रहे हैं। ताकि ग़रीब पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान वक़्फ़ बोर्ड की मुफ़्त जमीन पर चलने वाले इनके हाई प्रोफ़ाइल स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा क़ानून के नाम पर दाखिले का दावा ही न कर सके। पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों के लिए इन्होंने हर मस्जिद की बग़ल में एक मदरसा बना दिया है। मदरसे के बाद तमाम दारुल उलूम हैं जहां इनके लिए मज़हबी तालीम तैयार है। ताकि ग़रीब और पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान मज़हबी तालीम हासिल करके मस्जिद में मुज़्ज़न और इमामत कर सकें। सवाल ये है कि आख़िर कब तक अंधेरे से उजाले की तरफ़ लाने वाले इस्लाम मज़हब को मानने वाले मुसलमान ख़ुद गुमराही के अंधेरे में पड़े रहेंगे..? ख़ासकर पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों को अब सोचना होगा कि वो धार्मिक संगठनों की ख़ुशहाली के लिए कब तक अपना ख़ून पसीना बहाते रहेंगे। जन्नत में जगह और सवाब के साथ अगर उनके बच्चों को दुनिया में इज़्ज़त भी मिल जाए तो क्या हर्ज़ है। इसके लिए करना सिर्फ़ इतना है कि जिस तरह ये धार्मिक आयोजनों के कामयाब बनाने के लिए तन, मन और धन से जुट जाते हैं। उसी तरह समाजी, तालीमी और सियासी बेदारी वाले कार्यक्रमों को कामयाब बनाने के लिए भी ऐसा ही जोश दिखाएं तो आने वाली पीढ़ियों की क़िसम्त संवर जाएगी। नहीं तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेंगी। हमें अपने दिल पर हाथ रख कर सोचना चाहिए जब तक मुस्लमान ख्वाबों में जीना छोड़कर वास्तविकता में जीना नहीं सिखते तब तक भला नहीं होगा..!!

क्या बदलेगा मुस्लिम समाज, वो समाज कभी नहीं बदल सकता। जिसमें बदलें की चाह और अहसास ही ना हो। बड़ी मशहुर कहावत है। कि ” सोते को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो जागता हो उससे कैसे जगाया जा सकता है” मुस्लिम समाज के दीनी रहनुमाओं ने मुस्लमानों को कुछ ऐसा ही बना दिया है। उन्हें मौत के बाद की जिन्दगी के सब्ज बाग दिखाकर, उनकी मौजुदा जिन्दगी का ही नक्शा बदल दिया है। उन्हें मौत के बाद मिलने वाली पाक साफ बीबियों की तो फिकर है, मगर वो मौजुदा बीबियों के हलात से बे-खबर हैं। वो मौत के बाद मिलने वाली असल जिन्दगी के चक्कर में, अपनी मौजुदा जिन्दगी को जहनुम बनाने में लगे हुए है। वो सबाब कमाने के चक्कर में, विकास को भूल रहे हैं। नबी-ए-करीम हजरत मोहम्मद (सलव) ने फरमाया था- कि आपको शिक्षा यानि तालीम पाने के लिए चाहे चीन क्यों न जाने पढ़े। कुरआन-पाक और हजुर-ए-पाक ने यह कभी नहीं फरमाया कि मुस्लमान डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक इत्यादि न बन सकता। लेकिन वो बनेगे कब जब उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जाऐगा और वातावरण बनाया जाए। वो कौन कर सकते हैं वो डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक और उसकी अमियत समझने वाले या फिर सही मायनो में मुस्लिम कौम के दर्द को समझने वाला। कोई और दुसरा नहीं..!!!

मो. रफीक चौहान(एडवोकेट) साहब...

क्या_बदलेगा_मुस्लिम_समाज.....????

अजमेर में ख़्वाजा़ मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह की दरगाह पर सालाना उर्स चल रहा हो तो लाखों की तादाद में मुसलमान बसों मे भर-भर कर अजमेर पहुँच जाते हैं। इनमें बड़ी तादाद में औरते और बच्चें भी शामिल हैं। इस वर्ष मार्च में मक्का से हरम शरीफ़ यानि ख़ाना-ए-काबा के इमाम भारत आए तो उनके पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए लाखों मुसलमान 200-300 किलोमीटर दूर तक से दिल्ली और देवबंद पहुँच गए। इससे पहले फरवरी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर में हुए तब्लीग़ी जमात के तीन रोज़ा इज़्तमा में 11 लाख लोगों के लिए पंडाल का इंतज़ाम किया गया था लेकिन वहां 25 लाख से ज़्यादा लोग पहुँचे। हज़ारों लोग काम-काज छोड़ कर कई हफ़्तों तक इज़्तमा में आने वालों की ख़िदमत में लगे रहे। इससे पता चलता है कि धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए मुसलमान किस हद तक दिलोजान से तन मन धन लगाकर काम करते हैं..!!

अब ज़रा तस्वीर के दूसरे रुख़ पर ग़ौर करें। पिछले दिनों सहारनपुर में मुस्लमानों पिछड़ेपन को दूर करने को लेकर और विकास का एजेंडा तय करने और उसे राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए एक सम्मेलन हुआ। इसमें लागू करने की मांग के साथ सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल भी शामिल था। इसमें बमुश्किल तमाम पच्चीस मुसलमान पहुँचे। इसके अगले दिन बिजनौर में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों का सम्मेलन हुआ स्थानीय लोगों ने पांच हज़ार से ज़्यादा की भीड़ जुटाने का ऐलान किया था लेकिन सम्मेलन में कुल जमा 100 लोग भी नहीं पहुँचे।
2009 मार्च में दिल्ली में लोकसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के तमाम संगठनों ने मिलकर दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की। रैली का एजेंडा था मुसलमानों की सत्ता में हिस्सेदारी, इनके विकास के लिए जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग। इस रैली में लोगों को लाने के लिए बड़े पैमाने पर बसों का इंतज़ाम किया गय़ा था। लोगों के बैठने के लिए 50 हज़ार कुर्सियों का इंतज़ाम था लेकिन रैली में दो हज़ार लोग भी नहीं पहुँचे। लेकिन पिछले दिनों रामलीला मैदान में इमाम-ए-हरम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाली की ऐसी भीड़ उमड़ी कि पैर रखने की भी जगह नहीं बची। धार्मिक आयोजनों के मौक़ों पर मुसलमानों का जोश बल्लियों उछलता है। लेकिन जब समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए तालीमी और सियासी बेदारी का मामला आता है तो ये जोश बर्फ़ की तरह ठंडा पड़ जाता है। शबेरात को नफ़िल नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमान रात-रात भर जागते हें। क़ब्रिसतान में जाकर फ़ातिहा पढ़ते है। रमज़ान में दिन भर टोपी सिर से नहीं उतरती। तरावीह पढ़ने के लिए दूर-दूर तक चले जाएंगे। लेकिन जब समाजाकि, तालीमी और सियासी बेदारी के लिए काम करने का मसला आता है तो लोगों को अपने रोज़गार की फ़िक्र सताने लगेगी। फ़िक्र भी ऐसी मानों अगर एक दिन काम नहीं करेंगे तो शाम को घर में चूल्हा नहीं जलेगा। उनका परिवार भूखा मर जाएगा। लेकिन ऐसे तर्क देने वाले लोग धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। इस लिए ताकि वो सवाब कमा सकें। सवाब मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। लेकिन कब? मरने के बाद। किसको कितना सवाब मिलेगा इसका फ़ैसला क़यामत के दिन होगा। क़यामत कब आएगी ये भी किसी को पता नहीं। सवाब के चक्कर में मुसलमान अपनी दुनियादारी की वो तमाम ज़िम्मेदारी भूल जाते हैं जिन्हें निभाना फ़र्ज़ है। नबी-ए-करीमहजरत मुहम्मद (सअव) ने तालीम हासिल करने को हर मर्द और औरत पर फ़र्ज़ बताया। ये भी कहा कि तालीम हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े। लेकिन यहां किसी को उन मुसलमानों के बच्चों की तालीम फ़िक्र ही नहीं है जो ग़ुरबत की वजह से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। सरकार ने मुफ़्त तालीम को ज़रूरी बना दिया है। मुसलमानों के विकास के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती है। सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों पर अमल के लिए सरकार ने क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपए का बजट दिया है। लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। अमल हो जाए तो मुसलमानों की आने वाली नस्लों की तक़दीर संवर जाए। जमहूरियत में ताक़त दिखा कर ही अपने हक़ में फ़ैसले कराए जाते हैं। लेकिन अपनी ताक़त दिखाने में मुसलमान सबसे पीछे है। मुट्ठी भर गुर्जर और जाट जब चाहते हैं सड़कों और रेल की पटरियों पर बैठ कर जिस सरकार को चाहते है झुका देते हैं। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव नें चंद लाख लोग इकट्ठे किए और यूपीए सरकार की चूलें हिला दीं। लेकिन धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मुसलमान जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने की मांग करने के लिए एक दिन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर नहीं आ सकते। क्योंकि इन्हें अपनी आने वाली नस्लों के विकास से कोई मतलब नहीं है इन्हें तो बस अपने लिए जन्नत में जगह और ढेर सारा सवाब चाहिए।
दरअसल, धार्मिक रहनुमाओं ने मुसलमानों को घुट्टी पिला रखी है कि ये दुनिया फ़ानी है। इसके बाद यानि मरने के बाद आख़िरत की ज़िंदगी शुरू होगी जो कभी ख़त्म नहीं होगी। दुनिया को छोड़ कर बस उसी के लिए काम करो। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इसी बहकावे में आकर दुनिया और दुनियीदारी की अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां भुला बैठा है। ये तबक़ा तालीम की कमी और ना समझी में धार्मिक रहनुमाओं का एजेंड़ा पूरा करने में जुटा हुआ है। हैरानी की बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर पिछड़े हुए मुसलमान हैं..!!

धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए लाखों का तादाद मे जमा होने वाले मुसलमानों में 90 फ़ीसदी पिछड़े हुए मुसलमान ही होते है। ये अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद करते हैं। पैसा बर्बाद करते हैं। और इन्हें मज़हबी जुनून मे अंधा करने वाले मज़े लूटते हैं। ताज्जुब की बात है कि मुसलमानों के तमाम धार्मिक संगठनों और मसलकी संगठनों पर उंचे तबक़े के मुसलमान क़ाबिज़ है। कामयाब धार्मिक आयोजनों के आधार पर ये तमाम संगठन मुस्लिम देशों से बेहिसाब पैसा इकट्ठा करते हैं। ये सारा पैसा ज़कात और ख़ैरात के रूप में ग़रीब मुसलमानों की मदद के लिए आता है। लेकिन उन तक पहुँचने के बजाए के मुस्लिम संगठनों के रहनुमाओं की तिजोरियों में पहुँच जाता है।
धार्मिक रहनुमाओ नें मुसलमानों को ज़मीन से नीचे (क़ब्र के अज़ाब) और आसमान के उपर की बातों में ऐसा उलझा रखा है कि ज़्यादातर मुसलमान दुनिया में आने का असली मक़सद ही भूल बैठे है। सवाब कमाने के चक्कर में वो अपने विकास से ग़ाफ़िल हो जाते हैं। धार्मिक रहनुमाओं की इस दकियानूसी सोच और मुसलमानों को पिछड़ा रखने की साज़िश के ख़िलाफ समाज में आवाज़ भी नहीं उठती। कभी कोई आवाज़ उठाने की कोई हिम्मत करता भी है तो फ़तवे जारी करके उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। या फिर डरा धमका पर उसे चुप करा दिया जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान हो रहे हैं..!!

संसद और विधानसभाओं में उनकी कोई रहनुमाई है नहीं। ऊँचे तबक़े की रहनुमाई वाले मुस्लिम संगठन कभी उनके हक़ की बात नहीं करते। इसके उलट वो मुस्लिम हितों के नाम पर धार्मिक मसलों पर सरकारों से डील करने में लगे रहते हैं। उनके अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए बढ़िया पब्लिक स्कूल बने हुए हैं। इनकी फ़ीस इतनी ज़्याद होती है कि आम पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान इतनी फ़ीस दे नहीं सकता। ये तमाम संगठन मिलकर मुफ़्त शिक्षा के क़ानून के दायरे से खुद को बाहर रखने की मांग कर रहे हैं। ताकि ग़रीब पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान वक़्फ़ बोर्ड की मुफ़्त जमीन पर चलने वाले इनके हाई प्रोफ़ाइल स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा क़ानून के नाम पर दाखिले का दावा ही न कर सके। पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों के लिए इन्होंने हर मस्जिद की बग़ल में एक मदरसा बना दिया है। मदरसे के बाद तमाम दारुल उलूम हैं जहां इनके लिए मज़हबी तालीम तैयार है। ताकि ग़रीब और पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान मज़हबी तालीम हासिल करके मस्जिद में मुज़्ज़न और इमामत कर सकें। सवाल ये है कि आख़िर कब तक अंधेरे से उजाले की तरफ़ लाने वाले इस्लाम मज़हब को मानने वाले मुसलमान ख़ुद गुमराही के अंधेरे में पड़े रहेंगे..? ख़ासकर पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों को अब सोचना होगा कि वो धार्मिक संगठनों की ख़ुशहाली के लिए कब तक अपना ख़ून पसीना बहाते रहेंगे। जन्नत में जगह और सवाब के साथ अगर उनके बच्चों को दुनिया में इज़्ज़त भी मिल जाए तो क्या हर्ज़ है। इसके लिए करना सिर्फ़ इतना है कि जिस तरह ये धार्मिक आयोजनों के कामयाब बनाने के लिए तन, मन और धन से जुट जाते हैं। उसी तरह समाजी, तालीमी और सियासी बेदारी वाले कार्यक्रमों को कामयाब बनाने के लिए भी ऐसा ही जोश दिखाएं तो आने वाली पीढ़ियों की क़िसम्त संवर जाएगी। नहीं तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेंगी। हमें अपने दिल पर हाथ रख कर सोचना चाहिए जब तक मुस्लमान ख्वाबों में जीना छोड़कर वास्तविकता में जीना नहीं सिखते तब तक भला नहीं होगा..!!

क्या बदलेगा मुस्लिम समाज, वो समाज कभी नहीं बदल सकता। जिसमें बदलें की चाह और अहसास ही ना हो। बड़ी मशहुर कहावत है। कि ” सोते को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो जागता हो उससे कैसे जगाया जा सकता है” मुस्लिम समाज के दीनी रहनुमाओं ने मुस्लमानों को कुछ ऐसा ही बना दिया है। उन्हें मौत के बाद की जिन्दगी के सब्ज बाग दिखाकर, उनकी मौजुदा जिन्दगी का ही नक्शा बदल दिया है। उन्हें मौत के बाद मिलने वाली पाक साफ बीबियों की तो फिकर है, मगर वो मौजुदा बीबियों के हलात से बे-खबर हैं। वो मौत के बाद मिलने वाली असल जिन्दगी के चक्कर में, अपनी मौजुदा जिन्दगी को जहनुम बनाने में लगे हुए है। वो सबाब कमाने के चक्कर में, विकास को भूल रहे हैं। नबी-ए-करीम हजरत मोहम्मद (सलव) ने फरमाया था- कि आपको शिक्षा यानि तालीम पाने के लिए चाहे चीन क्यों न जाने पढ़े। कुरआन-पाक और हजुर-ए-पाक ने यह कभी नहीं फरमाया कि मुस्लमान डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक इत्यादि न बन सकता। लेकिन वो बनेगे कब जब उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जाऐगा और वातावरण बनाया जाए। वो कौन कर सकते हैं वो डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक और उसकी अमियत समझने वाले या फिर सही मायनो में मुस्लिम कौम के दर्द को समझने वाला। कोई और दुसरा नहीं..!!!

मो. रफीक चौहान(एडवोकेट) साहब...

7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓

सैयद नदीम द्वारा . 11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों ...