Followers

Friday, 23 August 2024

मौलाना मुहम्मद बाकिर का इतिहास । 16 सितंबर



तारिक़ आज़मी संग शाहीन बनारसी

आज जिस तवारीख (इतिहास) से हम आपको रूबरू करवा रहे है उसके खून के छीटे से इन्कलाब आज भी दिल्ली के लाल दरवाज़े पर लिखा हुआ है। 1857 की क्रांति को आप सबने पढ़ा होगा। देश के आज़ादी की लड़ाई की पहली क्रांति थी। इस क्रांति में आपने शहीद मंगल पाण्डेय से लेकर रानी लक्ष्मी बाई तक की वीर गाथाये सुनी होंगी। जिन्होंने पहले पढ़ा है वो तो टीपू सुलतान के मुताल्लिक भी पढ़े ज़रूर होंगे। क्योकि ये सभी वीर थे जिन्होंने इस क्रांति की अलख को जगाया था। इन सबके बीच एक नाम जो क्रांति के प्रमुख जनको में था, वो नाम तक आप लोगो ने नहीं सुना होगा। क्योकि वह शहीद एक पत्रकार था। आपने किसी तवारीख के पन्नो में नही पढ़ा होगा कि एक पत्रकार ने खुद की शहादत आजादी की इस पहली लड़ाई में दिया था। नाम उस शहीद पत्रकार का था “मौलवी मोहम्मद अली बाकिर।” यहाँ बताते चले कि मौलाना मुहम्मद अली बाकिर के सम्बन्ध में हमको पढने और समझने में मुख्य सहयोग प्रख्यात इतिहासकार डॉ मोहम्मद आरिफ साहब ने किया। 


मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने क्या खूब एक शेर कहा है कि “खीचो न कमानों को, न तलवार निकालो। जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो…..। शायद ये शेर मौलवी मोहम्मद बाकीर के आमाल में समाया था। अंग्रेजो के तोपों का मुकाबला करने के लिए मोलवी साहब ने कलम का सहारा लिया था। कलम भी ऐसी मजबूत की 1857 की पूरी क्रांति में असली ज्वाला उन्होंने दिया। लड़ाई कलम और तोप की वो ज़बरदस्त तरीके से हुई कि कलम ने कई तोपची अंग्रेजो को इस तरह घायल किया कि अंगेजी हुकूमत की नेह हिल गई थी।

जीवनी – मौलवी मुहम्मद अली बाकिर

दिल्ली के एक इज़्ज़दार घराने मे जन्मे मोलवी मोहम्मद बाक़ीर की पैदाईश स.ई.1780 को हुई, पिता मौलाना मोहम्मद अकबर, दीन के खासी जानकार शख्सियतों मे से थे जिसके कारण मोहम्मद बाकीर की मज़हबी तालीम घर पर ही रही और बाद में दिल्ली के जाने-माने विद्वान मियां अब्दुल रज्ज़ाक के सानिध्य में उन्होने आगे की शिक्षा पायी।
1825 में उनका देहली कालेज में दाखिला हुआ व पढ़ाई मुकम्मल कर वह दिल्ली कॉलेज मे ही फ़ारसी के शिक्षक बने व कुछ समय बाद अपनी शिक्षा की बदोलत ही सरकारी महकमों (विभाग) मे कई वर्षो तक ज़िम्मेदार पदो पर भी रहे लेकिन मन मे वो सुकून और शांति नही मिली, अंग्रेज़ी हुकूमत का क्रूर शासक रवैया दिल मे अजीब सी बैचेनी का माहौल बनाकर उनके दिल को आज़ादी के लिए कचोटता आखिरकार अपनी बाग़ी सोच और वालिद के कहने पर सरकारी पद से इस्तीफा दे दिया।

आजादी की चाहत और शुरू किया कलम से जंग

ये वो वक्त था जब ब्रितानिया सल्तनत ईस्ट इंडिया कंपनी के कंधो पर अपने मंसूबो को रखकर खुद को सियासत के मरहले तय कर रही थी। हिन्द के जाबांज बाशिंदों को गुलाम बनाया जा रहा था। उनके जिस्म से खून तक चूसा जा रहा था। निज़ाम ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों मे पूरी तरह आ चुका था, टीपू सुल्तान और रानी लक्ष्मीबाई जैसे बहादुर आज़ादी के परवाने खुद को और मुल्क को बंदिशों से आज़ाद करने की जद्दोजहद कर रहे थे। इन फिरंगियों की सोच थी कि पूरी भारतीय व्यवस्था को बेड़ियों मे जकड़कर खड़ा कर दिया जाय। लेकिन हिन्दोस्तान भारत की अवाम, ईस्ट इंडिया कंपनी के इस सियासी कदम को समझने लगी थी और गुलाम बनाकर राज करने की प्रथा के खिलाफ, सैनिक, मजदूर, व्यापारी, लेखक, कवि, शायर, राजा, रजवाडे, नवाब सभी एक साथ मिलकर इस इंकलाब के समंदर मे कूद गये थे।

पत्रकारिता ने अपनी कलम की ताकत से इस इन्कलाब की अलख को जलाए रखा, क्योंकी पत्रकारिता के महत्व को हर युग मे स्वीकार किया गया है, तवारीख ग्वाह है कि पत्रकारिता ने दुनिया की बड़ी बड़ी क्रांत्रियों को जन्म दिया व कई शासकों का तख्ता पलट कर खाक़ नशी कर दिया है, साथ ही कलम की इस ताकत ने ना जाने कितनी मज़बूत और ताकतवर हुकूमतों को भी अपने सामने बौना बनाकर खड़ा कर दिया है। एक तरफ जहा फिरंगियों एक गोला बारूद और असलहे थे तो दूसरी तरफ मौलवी मुहम्मद अली बाकिर साहब की कमल से निकलने लफ्जों के अंगारे थे। इस क्रांत्री मे जहा तलवारो की झनकार, गोला बारुद की आवाज़े सुनाई दी उतनी ही बगा़वत के स्वर पत्रकारिता के भी बुलंद रहे।

फिरंगियों के दुश्मन नम्बर 1 थे मौलवी मुहम्मद अली बाकिर

इस बगावत की कलम में सबसे ज्यादा किसी ने इन फिरंगियों को परेशान और हलाकान किया तो वह थे शहीद मौलाना मुहम्मद अली बाकिर साहब। जिन्होंने अपनी खबरों से गुलामी के खिलाफ एक फिज़ा बनाकर अंग्रेज़ी हुकूमत की बुनियादें हिला दिया, मगर अफ़सोस दर अफ़सोस कि शहीद पत्रकार आज़ादी के तवारीख में धुल खाते पन्नो में गुम हो गये। “मौलवी मोहम्मद अली बाकिर साहब” को पत्रकारिता की शहादत मे प्रथम शहीद होने का दर्जा मिला है। मौलवी की कलम सैकड़ो तोपों के बराबर मार करती थी, उनके लेखों मे आज़ाद भारत की गूंज थी, जिसके कारण ईस्ट इंडिया कंपनी इनको अपने खास दुशमनो मे शामिल कर चुकी थी।

प्रेस एक्ट के तहत अखबारों पर लगाई थी अंग्रेजो ने लगाम
सन 1836 मे बिट्रिश हुकुमत ने प्रेस ऐक्ट पास किया और मौलवी मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ने दिल्ली का सबसे पहला और भारतीय उपमहाद्विप का दुसरा उर्दु अख़बार “देहली उर्दू” साप्ताहिक शुरू किया, हालांकि 22 मार्च 1822 को कलकत्ता से निकलने वाला “जाम ए जहां नुमा” अख़बार भारतीय उपमहाद्विप का पहला उर्दु अख़बार था। इसके अलावा उस समय हिन्दुस्तान मे निकलने वाले सुलतानुल अख़बार, सिराजुल अख़बार और सादिक़ुल अख़बार फ़ारसी ज़ुबान के अख़बार थे। ये वो वक्त थे जब अखबार निकालना बहुत मुश्किल था। मगर मौलवी बाकिर ने साप्ताहिक उर्दू अखबार प्रेस खड़ा किया, यह अख़बार लगभग 21 सालो तक अपनी हयात में था। जिसमे इसका नाम भी दो बार बदला गया। इसकी क़ीमत महीने के हिसाब से उस समय 2 रु थी, इसके अलावा 1843 में मौलवी अली वाकिर ने एक धार्मिक पत्रिका मजहर-ए-हक भी प्रकाशित की थी जो 1848 तक चली।

जिस समय देश में स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चल रहा था उस वक्त भारतीय भाषाओं में उर्दू ही एकमात्र ऐसी भाषा थी जो देश के कोने-कोने में समझी और बोली जाती थी, उर्दू के शायरों, साहित्यकारों और लेखकों ने भी देश के प्रति अपने फरायेज़ को समझा और उसको निभाया भी था। आज़ादी के उस सफर मे उर्दू ने पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास को अपने आप में ओढ़ रखा था।

मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ने जिस मकान से अपना “देहली उर्दू साप्ताहिक” समाचार पत्र प्रकाशित किया, जो दरगाह-ए-पंजा शरीफ (कश्मीरी गेट) से बिल्कुल पास है और आज भी मौजूद है। इस अखबार ने देश के विभिन्न भागों में अपने नुमाईंदगी करने वाले भी रखे। अपने अखबार की शूरुआत करते ही मौलवी मुहम्मद अली बाकिर जिनको कई जगह तवारीख में मौलवी मोहम्मद अली बाकर भी कहा गया है को अपनी सोच व सरकार की नीतियों को उजागर करने का एक प्लेटफार्म मिला। हालाकि शूरुआती दिनो मे “देहली उर्दू साप्ताहिक” ने अंग्रेज़ी हूकूमत की ज़्यादा खिलाफत नही की लेकिन 1857 तक मौलवी मुहम्मद अली बाकिर बिट्रिश सरकार के तीखे आलोचक बन चुके थे, बाक़ीर ने ना सिर्फ़ ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर लिखा बल्कि दिल्ली और आसपास ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों के खिलाफ़ आज़ादी के परवाने भी तैयार किये। मुआशरे में अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने की आवाज़ बुलंद करने में इस अखबार का भरपुर उपयोग मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ने किया।

अंग्रेजो की नज़र में सबसे बागी अखबार था “देहली उर्दू साप्ताहिक”

फिरंगियों ने हमारे पैरो में खुद के गुलामी की ज़ंजीर डाल रखा था। उनकी गुलामी न करने वालो को फिरंगी अपनी कुवत के बल पर ज़मीदोज़ कर रहे थे। 1857 की क्रांति में “देहली उर्दू साप्ताहिक” ने अपना बड़ा योगदान दिया था। अंग्रेजो के नज़र में उस समय का सबसे बाग़ी अखबार देहली उर्दू साप्ताहिक बन चूका था। क्योकि ये अख़बार अपनी कलम से निकलने वाली आग के ज़रिये फिरंगी हुकूमत की नेह हिला रही थी। मौलवी मुहम्मद अली बाकिर आज़ाद मुल्क के सपने को सच करने की पटकथा लिख रहे थे। गुलामी के ठांचे को गिराने के लिए मज़हब के बड़े आलिमो के फतवों, और बागियो के घोषणा पत्रों को अखबार मे प्रमुख स्थान दिया जाता था।

ख़ास तौर पर उन खबरों को इस अख़बार में जगह मिलती थी जो अंग्रेजो के हुकूमत के ज़ुल्मो सितम की दास्ताँ बयान करती थी। ऐसा इसलिए भी मौलवी ने किया ताकि आज़ादी की अलख और तेज़ भड़के। आज़ादी के परवानो के हौसले बुलंद करने के लिए मौलवी अली बाक़र अपनी लेखनी मे सिपाहियों की खुल कर तारीफ करते जिसमे सिपाहियों की वतन परस्ती जागती रहे। इस वतन परस्ती पर वह “सिपाह-ए-दिलेर,” “तिलंगा-ए-नर-शेर” और “सिपाह-ए-हिंदुस्तान” जैसे खिताबो से इन आज़ादी के परवानो को नवाज़ते, तो वही उनकी कमियों पर भी खुल कर कलम चलाते। यही नही उन्होंने अपनी कलम से हिंदू सिपाहियों को अर्जुन या भीम बनने की लिये प्रेरित करना जारी रखा था। वही दूसरी तरफ मुसलमान सिपाहियों को रूस्तम, चंगेज और हलाकू की तरह अंग्रेजों को समाप्त करने के बाग़ी अंदाज़ को सुलगाते रहे।

हिन्दू मुस्लिम एकता का मरकज़ था देहली उर्दू अख़बार

मौलाना अली बाकिर ने कई मौको पर फिरंगियों के फितना फसाद को जग ज़ाहिर किया। फिरंगियों के फुट डालो और राज करो के कई वाक्यात को खोला और बताया कि किस तरह ये फिरंगी हुकूमत हिन्दू मुसलमानों को आपस में लडवा रही है। अंग्रेजों की सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाली चालों को बेनकाब कर हिंदुओं और मुसलमानों दोनो को खबरदार कर एकजुटता पैदा करने वाली खबरों ने ” मौलवी मुहम्मद अली बाकिर” को अंग्रेजो का सबसे बड़ा दुश्मन बना दिया था।

वालिद के नक्श-ए-कदम पर चले साहबजादे भी

अकेले मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ही नही बल्कि उनके साहबजादे मोहम्मद हुसैन आजाद” जो काफी अच्छे शायर थे, आज़ादी की क्रांति के दौरान उनकी रचनाएं अखबार के पहले पेज पर छपती थी, 25 मई 1857 के अंक में उनकी एक नज़्म मेरठ में विद्रोही सेना की विजयी समाचार के साथ छपी थी- नज़्म के बोल कुछ इस तरह थे कि अंग्रेजो के दांत खट्टे हो गए थे और मौलवी मुहम्मद अली बाकिर के साथ साथ उनके साहबजादे मुहम्मद हुसैन आज़ाद को भी उन्होंने अपना दुश्मन नम्बर वन मान लिया और उनको यातनाओं का सिलसिला शुरू कर दिया था। ख़ास तौर पर मोलवी के पुत्र मुहम्मद हुसैन जिन्होंने अपने नाम का लक़ब ही आज़ाद रख लिया था अंग्रेजो को अपनी कलम से पसीने छुडवा रहे थे। 25 मई 1857 को अख़बार के पहले पन्ने पर ही छपी उनकी नज्म पढ़े, जिसको पढ़कर आपका दिल भी खुश हो जायेगा-

“सब जौहरे अक्ल उनके रहे ताक पर रक्खे
सब नाखूने तदबीरो खुर्द हो गए बेकार
काम आए न इल्मो हुनरो हिकमतो फितरत
पूरब के तिलंगो ने लिया सबको वहीं मार”!

इस नज़्म ने तो ऐसा लगा जलता हुआ सरिया अंग्रेजो के कानो और आँखों में चुभा दिया है। मौलवी की कलम ने अंग्रेजो के लिए एक बड़ी मुसीबत पैदा कर रखा था उसके अलावा मौलवी के पुत्र ने और भी मुसीबत बढ़ा दिया था। मौलवी की बाग़ी कलम व अन्य समाचार पत्रो की बढ़ती हुई बगा़वत पूर्णतः लगाम लगाने के लिये 13 जून 1857 को लार्ड केनिंग द्वारा काफी तीखी टिप्पणी दी गयी- केनिंग ने अपने तत्कालीन बयान में कहा था कि “पिछले कुछ हफ्तों में देसी अखबारों ने समाचार प्रकाशित करने की आड़ में भारतीय नागरिको के दिलों में दिलेराना हद तक बगावत की भावना पैदा कर दी है”। इस टिप्पणी के बाद लार्ड केनिंग ने प्रेस एक्ट मे एक नया कानून बनाने की पेशकश कर उसे आनन फानन मे लागू भी कर दिया, जिसमे राजद्रोह पर बहुत कड़ी सजा के साथ पूर्व अनुमति के बिना प्रेस खोलना व उसे चलाना गैरकानूनी बना दिया गया,

मगर अँगरेज़ सिपाहसलार के तौर पर गवर्नर का बयान और प्रेस एक्ट लागू होने के बाद भी आज़ादी के परवाने पत्रकारों पर कोई असर नहीं पड़ा और उन्होंने अपनी कलम की रफ़्तार कम नही किया। उस समय भी पयामे आजादी, देहली उर्दू, समाचार सुधावर्षण और हिंदू पैट्रियाट, सादिकुल अखबार, गुलशने नौबहार, और बहादुरी प्रेस जैसे दर्जनो समाचार पत्रो ने सच लिखना जारी रखा। इन अखबारों पर अंग्रेजो के आदेश का कोई फर्क नही पड़ा और उनको अपनी जान से भी ज्यादा प्यारी अपनी आज़ादी ही रही। सबने मिलकर ज़बरदस्त कलम से जंग लड़ी और अंग्रेजो के दांत खट्टे कर डाले।

अंग्रेजो के खिलाफ मौलाना अली बाकिर ने जारी रखा अपनी जंग

अंग्रेजी हुकूमत ने कानून तो सख्त बना दिया था। मगर ये सख्त कानून मौलवी अली बाकर के वसूलो से ज्यादा सख्त नही था। मौलवी अली बाकर ने अपनी कलम पर कोई लगाम नही लगाईं और ज़बरदस्त कलम से जंग जारी रखी। जंग भी ऐसी कि एक तरफ अंग्रेजो की गोलिया और गोले बारूद तो दूसरी तरफ मौलवी के कलम से निकले अलफ़ाज़। एक तरफ अंग्रेजो की गोलियों से हिन्दुस्तान के वीर जवान और आज़ादी के परवाने शहीद हो रहे थे, वही मौलाना अली बाकिर के कलम से उन तोपों की आग ठंडी हो जा रही थी और अंग्रेजो के दिल तक छलनी हुवे जा रहे थे।

अख़बार का नाम बदल कर किया अखबार-उल-ज़फर

इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत की चाल हुई और 1857 की क्रांति में विद्रोह का प्रमुख बहादुर शाह ज़फर को बनाया गया। इसके बाद तो मौलवी अली बाकिर अपनी कलम की धार और अंग्रेजो से बगावत और भी तेज़ कर दिया। उन्होंने 12 मई 1857 को अपने देहली उर्दू अखवार का नाम बदलकर “अखबार-उल-ज़फ़र” कर दिया जिसमे अब बग़ावत के तीखे तेवरो के साथ लेखो को प्रकाशित किया जाने लगा, बहादुर शाह ज़फर, शहज़ादा फिरोज़ शाह व इस क्रांत्री का हिस्सा बने राजा रजवाडे और नवाबो के बाग़ी संदेश बैखोफ होकर इस अखबार मे शाया किये जाने लगे। पूरे मुल्क में ही विद्रोह के ऐसे स्वर बुलंद हो रहे थे जिसमे सभी का मक़सद अंग्रेज़ो को भारत से बाहर खदेड़ना था।

उस समय एक से दूसरे जगहों पर आवाजाही या संदेश भेजना बहुत कठिन हो गया था, ऐसे माहौल में भी क्रांति की अलख को दूरस्थ इलाके तक फैलाये रखना एक बहुत बढ़ी चुनौती थी, जिसमे जान माल सभी का नुकसान था। लोग संवदिया का इस्तेमाल करते थे, मगर सन्देश अक्सर ही बदल जाते थे। ऐसे में भी मौलवी अली बाक़र एक निडर योद्धा बनकर अपने समाचार पत्र मे अग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ लिखते रहे।

अग्रेजो के ज़ुल्म की हुई इन्तहा और क्रांति हुई ठंडी

1857 की क्रांति बहुत लंबे वक्त तक नही चल सकी। अंग्रेजी हुकूमत ने ज़ुल्म-ओ-सितम की इन्तहा खत्म कर दिया था। लगभग पांच महीनों के बाद ये क्रांति टूटने लगी, ज़ालिम हुकूमत ने हज़ारो आज़ादी के परवानो को फांसी पर चढ़ा दिया। ना जाने कितने आज़ादी के परवानो को कैद कर सलाखो के पीछे ठकेल दिया गया। अंग्रेज़ जु़ल्म की सारी हदें पार कर रहे थे तो वही मौलाना अली बाकर अपनी कलम के ज्वालामुखी के सभी लावे और अंगारे लगातार उगल रहे थे। अंग्रेजो के सबसे बड़े दुश्मन इस हालात में मौलाना अली बाकिर बन चुके थे।

अंग्रेजो ने किया पत्रकारों पर हिंसक कार्यवाही

क्रांती के इस डूबते उगते सूरज के बीच अंग्रेज़ो ने उन समाचार पत्रो के संपादको, मालिको और पत्रकारो पर भी अपनी हिसंक कार्यवाही शुरू कर दी जो इस विद्रोह मे किसी भी तरह बाग़ियो के साथ थे, दर्जनो अखबारो के कार्यलयो ओर उनके छापेखानो पर दबिश देकर उनके साहित्यों को जब्त किया जाने लगा। “सादिकुल अखबार” के संपादक जमीलुद्दीन पर अंग्रेज़ो ने गिरफ्तार कर तीन साल के कठोर कारावास का दंड देकर उनकी जायदाद जब्त कर ली, कलकत्ता के अखबार “गुलशने नौबहार” की प्रेस को भी अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। “बहादुरी प्रेस” पर भी शिकंजा कसा गया और उसके संस्थापक को भी गिरफ्तार कर उनपर ज़ुल्मो सितम के पहाड़ तोड़ दिए गए थे। इसी बीच मौलवी अली वाकिर तब तक भी छिप छिपकर अपने अखवार के अंको को प्रकाशित कर इस विद्रोह को फैलाने मे, आखिरी सांस तक लड़ने के लिये एक बाग़ी पत्रकार बनकर खड़े रहे।

कायरता की हद पार कर अंग्रेजो ने किया मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को गिरफ्तार

मौलाना अली बाकिर एक जंग लड़ रहे थे। इस जंगजू बहादुर जाबाज़ ने अपनी लड़ाई जारी रखी थे, लेकिन इनकी बाग़ी कलम अंग्रेज़ो के ज़ुल्मो सितम का मुकाबला लंबे वक्त तक नही कर सकी और 14 सितंबर 1857 को मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी ने अंग्रेजो को एक बड़ी कामयाबी दिलवाई थी। अंग्रेजो ने कामयाबी को खूब भुनाया। अपने चाटुकारी करने वाले अखबारों में इस मुतालिक बड़ी बड़ी खबरे लगवाई। ब्रिटिश हुकूमत इस गिरफ़्तारी को अपनी सबसे बड़ी सफलता बता रही थी। इन पर अंग्रेजों के विरूद्ध भावनाएं भड़काने में, अवाम को शासन के खिलाफ उकसाने, विद्रोहियो की मदद करने के अलावा कई तरह के झूठे सच्चे मुकदमे लगाकर राजद्रोह का मुजरिम ठहराया गया।
और शहीद हुवे मौलवी मुहम्मद अली बाकिर

गिरफ्तारी के महज दो दिनों के भीतर इस न्यायिक प्रकिया को पूरा किया गया। क्योंकि अंग्रेज़, मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को मृत्यूदंड देकर खुद को महफूज़ करना चाहते थे। अंग्रेजो को पता था कि अगर मौलवी मुहम्मद अली बाकिर के हाथो में दुबारा कलम पड़ गई तो वह एक बार फिर से मुल्क में आज़ादी के परवानो को जगा देंगे। अँगरेज़ हकीकत में मौलवी मुहम्मद अली बाकिर के कलम से खौफज़दा अंग्रेजो ने मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को जान से मार देने का नाटक रचा और खुद को और खुद की हुकूमत को महफूज़ रखने के खातिर एक नाटक की तरह मौलवी वाकिर को मुकदमे किए बिना ही 16 सितंबर 1857 को अंग्रेज़ अधिकारी मेजर हडसन ने सजा-ए-मौत सुनाई।

कुछ इतिहास कारो का कहना है कि तोप के मुह पर मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को बाँध कर तोप दाग दिया गया था। इस शहीद के मुत्तालिक कई इतिहासकारों ने लिखा है कि जब मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को तोप के मुह पर बाँध कर तोप दागी गई तो भी उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी। बुज़ुर्ग हो चुके मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ने अल्फाजो से अल्लाह का शुक्र भेजा था और कहा था कि अल्लाह का शुक्र है जो उसने शहादत नसीब करवाया।

भूल गई तवारीख मौलवी मुहम्मद अली बाकिर की शहादत

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में पहली शहादत का दर्जा मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को मिला है। मगर अफ़सोस या फिर कहे सद अफ़सोस मौलवी मुहम्मद अली बाकिर को हिन्द की आज़ादी के तवारीख में कोई जगह आज भी नहीं मिली है। यहाँ तक कि खुद को पत्रकारों का मसीहा कहने वाले भी इस नाम तक को याद नही रखे है। आज़ादी की तवारीख तो छोड़े साहब, पत्रकारिता के मरकज़ में भी आज मौलवी मुहम्मद अली बाकिर एक अनजान नाम है। आप अपने आसपास किसी भी नज़र आने वाले पत्रकार से पूछकर देख ले। कोई भी इस नाम को नहीं जानता होगा। अपने कलम से अग्रेजो के तोप का मुकाबिला करने वाले मौलवी मुहम्मद अली बाकिर के इतिहास को फिर कौन सजोयेगा

अंग्रेजो की हुकूमत को मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ने कुछ इस तरह से खोखला कर दिया था कि 1947 तक पत्रकारो ने अंग्रेजो के दांत खुद की कलम से खट्टे किये थे। मगर आज भी तवारीख याद नही करती है इस आज़ादी के परवाने को। जानेमाने उर्दू पत्रकार और उर्दू संपादक सम्मेलन के महासचिव मासूम मुरादाबादी ने एक पुस्तक भी लिखी, जिसका हाल में उपराष्ट्रपति ने लोकार्पण किया था। मौलवी मोहम्मद बाक़ीर देहलवी की शहादत को आज सदियों तक याद रखा जाना चाहिये था मगर एक बार फिर सद अफसोस की कलम के इस क्रांतिकारी को ना तो आज़ादी के इतिहास मे कोई जगह मिली और ना ही भारत की पत्रकारिता ने उनको वह क़द दिया जिसके वह हकीकत में हकदार है।

इतिहास के झरोखों में सिर्फ चंद किस्सों को सुनाने के लिए ही “देहली उर्दु साप्ताहिक” के 17, 24, 31 मई 1857 व 14 और 21 जून 1857 तथा 5 जुलाई 1857 के अंको के अलावा “अखबारूल ज़फ़र साप्ताहिक” के 2, 9, 16 व 23 अगस्त 1857 और 13 सिंतबर 1857 के अंक भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखाकार मे राष्ट्रीय धरोहर के रूप मे आज भी सुरक्षित रखे है जिनमे 1857 की कई घटनाओं का विवरण मिलता है-इसके अलावा किसी कलमकार ने आज एक ज़माने में इस नाम को जगाने की कोशिश नही किया। अकेले मौलवी मुहम्मद अली बाकिर ही नहीं बल्कि उनका कुनबा पूरा का पूरा इस आज़ादी के लड़ाई में कलम के साथ अपना सब कुछ निछावर कर बैठा है। उनके वंशज आज कहा है किस हाल में है किसी को नहीं मालूम है।


जो कौम इतिहास से ना-वाकिफ होती हे, वो इतिहास से मित जाती हे.

 बात करते हैं इस्लाम क़े खूंखार शेरों मेसे एक शेर की*
सुलतान_सलाउद्दीन_अय्युबी_रहा

बेशक जो क़ौम अपनी तारीख़ भूल जाती है,
वो क़ौम सफ़ेहस्ती से मिटा दी जाती है"

वो_कैसा वक्त था जब एक ईसाई बादशाह रिचनल्ड ने मदीने को तहतेग करने का अज़्म लेकर अपनी फौजो से लदे हुए बहरी जहाज़ अरब सरज़मीन के साहिल पर लगा दिये, वो अक़्सर अपने सालारो से एक बात कहता रहता था कि वो हमारे प्यारे नबी #मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह_सल्ल. के रोज़ाए मुबारक को तोड़कर आप सल्ल. के जिस्म मुबारक़ को बाहर निकालेगा।
(नाऊज़बिल्लाह ) 

जब_उसका_ये_मंसूबा_सुल्तान_सलाहुद्दीन_अय्यूबी
तक पहुँचा तो उस मर्दे मुजाहिद ने अपनी तलवार आसमान की तरफ़ लहराकर कहा कि क़सम है मुझे उस पाक़ज़ात की जिसके कब्ज़े में मेरी जान है, रिचनल्ड को मै अपने हाथो से कत्ल करूँगा, हित्तीन की जंग को फतह करने के बाद आठ से ज़्यादा सलीबी बादशाह क़ैद किया गया। *जब रिचनल्ड को सलाहुद्दीन अय्यूबी के सामने लाया गया तो अय्यूबी ने उसे उसके वो अल्फ़ाज़ याद दिलाए जो उसने जनाबे*
*मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह_सल्ल. के बारे में कहे थे।*

*रिचनल्ड_ने_कहा_कि_बादशाह तो इस तरह के काम करते है, अय्यूबी ने कहा कि मैनें क़सम खाई थी कि तुझे अपने हाथो से क़त्ल करूँगा अब तेरे पास सिर्फ बचने का एक ही रास्ता है कि इस्लाम क़ुबूल करके तौबा कर ले रिचनल्ड ने कहा कि मै इस्लाम क़ुबूल नही करूँगा, सलाहुद्दीन अय्यूबी ने अपनी तलवार उठाई और एक ही वार में उसकी गर्दन उड़ा दी ।*

*मेरे_अज़ीज़_साथियो आज अगर किसी से पूछा जाए कि सलाहुद्दीन अय्यूबी कौन है तो शायद ही कोई बता सके* 
मिल्लते इस्लामियां के इस अज़ीम हीरे की इस उम्मते मुस्लिमा पर बहुत एहसान है, शाम और मिस्र के मुख्तार ओ मालिक बादशाह सलाहुद्दीन अय्यूबी के मरते वक्त इस मर्दे मुजाहिद की कुल ज़ायदाद कुछ दिरहम, एक तलवार और उसका एक घोडा था.!

*आज हम लोग मिल्लते इस्लामियां के उस अज़ीम सितारे उस मर्दे मुजाहिद को भूल चुके है, 2अक्टूबर सन् 1178 ईस्वी में सलाहुद्दीन अय्यूबी ने बेतुल मुक़द्दस को ईसाइयो से आज़ाद कराया था।* 

आज फिर वो बेतुल मुक़द्दस यहूदियो के कब्ज़े में है और फिलिस्तीनी बच्चे यहूदियो की आँख से आँख मिलाकर ये तराना पढ़ते है कि...👇

"नाहनुअबनुल_मुस्लिमीन_व_कुल्लुना_सलाहुद्दीन"

तर्जुमा👇
हम मुसलमानों के बच्चे हैं और हममे से हर एक सलाहुद्दीन हैl

इताअत कब और कहां करनी हे❓हदीस की रोशनी मे परहे.

इस्लाम मे  अंधाधुंध इताअत  करने  की मनाई हे.इस  हदीस से साबित होता हे.


Date:y07 April 2021
  Sahih Bukhari
Hadith No 7145
           بسْــــــــــــــــــمِ ﷲِالرَّحْمَنِ اارَّحِيم

ا لسَـــــــلاَمُ عَلَيــْــكُم وَرَحْمَةُ اللهِ وَبَرَكـَـاتُ
ہم سے عمر بن حفص بن غیاث نے بیان کیا، انہوں نے کہا ہم سے اعمش نے بیان کیا، ان سے سعد بن عبیدہ نے بیان کیا، ان سے ابوعبدالرحمٰن نے بیان کیا اور ان سے علی رضی اللہ عنہ نے بیان کیا کہ   نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے ایک دستہ بھیجا اور اس پر انصار کے ایک شخص کو امیر بنایا اور لوگوں کو حکم دیا کہ ان کی اطاعت کریں۔ پھر امیر فوج کے لوگوں پر غصہ ہوئے اور کہا کہ کیا نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے تمہیں میری اطاعت کا حکم نہیں دیا ہے؟ لوگوں نے کہا کہ ضرور دیا ہے۔ اس پر انہوں نے کہا کہ میں تمہیں حکم دیتا ہوں کہ لکڑی جمع کرو اور اس سے آگ جلاؤ اور اس میں کود پڑو۔ لوگوں نے لکڑی جمع کی اور آگ جلائی، جب کودنا چاہا تو ایک دوسرے کو لوگ دیکھنے لگے اور ان میں سے بعض نے کہا کہ ہم نے نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم کی فرمانبرداری آگ سے بچنے کے لیے کی تھی، کیا پھر ہم اس میں خود ہی داخل ہو جائیں۔ اسی دوران میں آگ ٹھنڈی ہو گئی اور امیر کا غصہ بھی جاتا رہا۔ پھر نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم سے اس کا ذکر کیا گیا تو آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا کہ اگر یہ لوگ اس میں کود پڑتے تو پھر اس میں سے نہ نکل سکتے۔ اطاعت صرف اچھی باتوں میں ہے۔


          _आज के इस डोर मे तानाशाही सरकार और षड्यंत्र कारी सरकार की नीतियों को छोड़कर अगर कोई भी मुस्लिम रेहनुमा दुसरी बातों पर अपने फरमान जारी करे एसे मे मेरे नजदीक इस हदीस पर नजर करते हुये अमल करके अपना इमान और जान बचानी चाहिये._
                *मे यंहा कोरोना बिमारी को महा बिमारी बताने वाले मुस्लिम लीडर की बात करता हु, समझदार को इसारा काफी हे, वैसे अब लोग समझने लगे हे, बस उस समझदारी को जुबान पर लाने का प्रयास करना हे,वरना हमे सत्ताधारी  षड्यंत्र कारी सरकार की साजिश का शिकार बना दिया जायेगा.*
    _हो सकता हे कुच लोगों के लिये मेरा ये अनुमान गलत हो सकता हे,लेकीन ये बात मेरे नजदीक 100%सही हे._

  Huzaifa patel. Bharuch, Gujarat

7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓

सैयद नदीम द्वारा . 11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों ...