- तथ्यात्मक जानकारी (Factual Details) – जिससे पाठक को पता चले कि हुआ क्या था।
- समालोचनात्मक विश्लेषण (Critical Viewpoint) – जिससे यह समझाया जा सके कि इसका लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका और संघीय ढांचे पर क्या असर पड़ा।
🧾 I. पृष्ठभूमि और तथ्यात्मक जानकारी (Background & Key Provisions)
➤ पृष्ठभूमि:
- वर्ष: 1976, आपातकाल (Emergency) के दौरान
- प्रधानमंत्री: इंदिरा गांधी
- समय: विपक्ष को जेल में डाला गया, प्रेस पर सेंसरशिप थी, और संसद में बहस नहीं के बराबर
➤ उद्देश्य:
- केंद्र सरकार को अधिक शक्तियाँ देना
- न्यायपालिका और विपक्ष पर नियंत्रण बढ़ाना
- समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को संविधान में दर्ज करना
➤ प्रमुख बदलाव:
क्षेत्र | संशोधन |
---|---|
प्रस्तावना | "समाजवादी", "धर्मनिरपेक्ष", "राष्ट्रीय एकता और अखंडता" जोड़ा गया |
अनुच्छेद 31C | नीति निदेशक तत्वों को मौलिक अधिकारों पर वरीयता दी गई |
न्यायपालिका | समीक्षा की शक्ति घटाई, हाईकोर्ट की स्वतंत्रता सीमित |
संसद | कार्यकाल 5 से 6 साल किया गया, संसद को सर्वोच्च बना दिया गया |
संघीय ढांचा | केंद्र को राज्यों पर अधिक नियंत्रण |
🧠 II. आलोचनात्मक विश्लेषण (Critical Analysis)
🔴 1. लोकतंत्र पर हमला
- बिना विपक्ष के, और दबाव के माहौल में यह संशोधन पारित हुआ।
- संसद का दुरुपयोग कर, लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर किया गया।
🔴 2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर चोट
- सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा शक्ति कम कर दी गई।
- संविधान की “बुनियादी संरचना” (basic structure) के सिद्धांत को नकारने की कोशिश हुई।
🔴 3. मौलिक अधिकारों की अवहेलना
- अनुच्छेद 31C के जरिए नीति निदेशक तत्वों को ऊपर रखकर नागरिक अधिकारों को खतरे में डाला गया।
🔴 4. तानाशाही प्रवृत्ति का उदाहरण
- सरकार ने जनता की सहभागिता के बिना, एकतरफा तरीके से संविधान बदला।
- यह लोकतांत्रिक संविधान को “सरकारी दस्तावेज” में बदलने की कोशिश थी।
🔴 5. सकारात्मक पहलू (यदि निष्पक्षता रखनी हो):
- "समाजवाद" और "धर्मनिरपेक्षता" जैसे मूल्य संविधान में दर्ज हुए, जो स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से जुड़े थे।
- नीति निदेशक तत्वों को मजबूती मिली।
✅ III. निष्कर्ष (Conclusion)
42वां संशोधन भारतीय लोकतंत्र का सबसे विवादास्पद और खतरनाक संशोधन था, जिसने यह स्पष्ट कर दिया कि जब सरकार के पास बिना जनमत और विपक्ष के पूर्ण सत्ता होती है, तो संविधान तक बदला जा सकता है।
हालांकि बाद में 44वें संशोधन (1978) द्वारा इसके कई खतरनाक प्रावधान हटाए गए, लेकिन यह एक चेतावनी बनकर रह गया कि लोकतंत्र की रक्षा सतर्क जनता ही कर सकती है।