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Saturday, 26 July 2025

7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓


सैयद नदीम द्वारा .
11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों में सात शक्तिशाली विस्फोट हुए, जिनमें 209 निर्दोष लोग मारे गए और 714 अन्य घायल हुए। यह भारत में अब तक हुए सबसे घातक आतंकवादी हमलों में से एक था—एक सुनियोजित, समन्वित और अंजाम दी गई हिंसा जिसने देश की आर्थिक राजधानी को अंदर तक हिलाकर रख दिया।

अब, 2025 में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मामले के सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया है। इस बात को ध्यान में रखें: लगभग दो दशक बाद भी, एक भी दोषी सिद्ध नहीं हुआ है।

तो इसका जवाब कौन देगा?

2006 में राजनीतिक परिदृश्य: सत्ता में कौन था?

विस्फोटों के समय महाराष्ट्र में कांग्रेस और अविभाजित राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का शासन था। विलासराव देशमुख मुख्यमंत्री थे और आरआर पाटिल गृह मंत्री थे।

केंद्र में यूपीए सरकार सत्ता में थी। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। शिवराज पाटिल, जो महाराष्ट्र से ही थे, गृह मंत्री थे। लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री थे।

सुरक्षा तंत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन और गृह सचिव वी.के. दुग्गल शामिल थे - दोनों ही विस्फोटों पर प्रतिक्रिया की निगरानी कर रहे थे।

संक्षेप में कहें तो सम्पूर्ण राजनीतिक और सुरक्षा ढांचा कांग्रेस पार्टी के नियंत्रण में था।

जाँच: हिरासत, आरोप और जबरन स्वीकारोक्ति


36 घंटों के भीतर 350 लोगों को हिरासत में लिया गया। इनमें कई युवा मुस्लिम पुरुष भी थे - जिन्हें कमज़ोर सबूतों के आधार पर गिरफ़्तार किया गया, कड़ी पूछताछ की गई और, जैसा कि बाद में बताया गया, उन्हें कोरे बयानों पर दस्तख़त करने के लिए मजबूर किया गया।

मुंबई पुलिस ने शुरुआत में लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) के एक सहयोगी, लश्कर-ए-कहार से मिले एक ईमेल का हवाला देते हुए ज़िम्मेदारी ली थी। इसके तुरंत बाद, भारत सरकार ने पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) पर उंगली उठाई।


21 जुलाई 2006 को, बिहार और मुंबई से सात लोगों को गिरफ्तार किया गया था — कथित तौर पर प्रतिबंधित संगठन सिमी के सदस्य। लेकिन 2006 के अंत तक, सभी सातों ने अपने "स्वीकारोक्ति बयानों" से मुकर गए और उन्हें मनगढ़ंत और दबाव में लिया गया बताया।

2008 में, हिंदुस्तान टाइम्स में गृह सचिव वी.के. दुग्गल के हवाले से कहा गया था कि उन्हीं लोगों ने अन्य संदिग्ध आतंकवादियों को प्रशिक्षण देते समय पाकिस्तानी होने का नाटक किया था। यह टिप्पणी, अब पीछे मुड़कर देखने पर और भी सवाल खड़े करती है।


एनएसए एम.के. नारायणन ने अब कुख्यात सीएनएन-आईबीएन साक्षात्कार में स्वीकार किया, "मैं यह कहने में संकोच करूंगा कि हमारे पास पुख्ता सबूत हैं, लेकिन हमारे पास काफी अच्छे सबूत हैं।"

क्या यही उम्रकैद और मौत की सज़ा का मानक है?

इंडियन मुजाहिदीन ट्विस्ट


2009 में एक नया किस्सा सामने आया। इंडियन मुजाहिदीन के एक प्रमुख सदस्य सादिक शेख ने एक टीवी चैनल पर कबूल किया कि उसने और उसके साथियों ने मध्य मुंबई के एक फ्लैट में बम बनाए थे। उनके पास ट्रेन की समय-सारिणी, पास, प्रेशर कुकर - सब कुछ पहले से तय था।

उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि उन्होंने जानबूझकर अल-कायदा को हमले का जिम्मेदार बताकर जांचकर्ताओं को गुमराह किया।


2013 तक, उसी सादिक शेख को अदालत में पक्षद्रोही गवाह घोषित कर दिया गया।

तो फिर हमें उनकी कहानी के किस संस्करण पर विश्वास करना चाहिए?

2015 में दोषसिद्धि - और 2025 में पतन

सितंबर 2015 में, मकोका अदालत ने सभी 12 आरोपियों को दोषी ठहराया। पाँच को मौत की सज़ा और सात को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई।

मृत्युदंड:

फैसल शेख
आसिफ खान
कमाल अंसारी
एहतेशाम सिद्दीकी
नवीद खान

आजीवन कारावास की सजा:
मोहम्मद साजिद अंसारी
मोहम्मद अली
डॉ. तनवीर अंसारी
माजिद शफी
मुज़म्मिल शेख
सोहेल शेख
ज़मीर शेख

अब, जुलाई 2025 में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सभी 12 को बरी कर दिया है, यह कहते हुए कि, "दोषी ठहराए जाने के फैसले को बरकरार रखने के लिए कोई सबूत नहीं है।"

लगभग दो दशकों तक आतंकवादी करार दिए जाने के बाद, उनका जीवन - और उनके परिवारों का जीवन - स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो गया है।

वे प्रश्न जो हम सभी को परेशान करते हैं

यह सिर्फ़ न्यायिक विफलता नहीं है। यह जाँच, शासन और विवेक का व्यवस्थागत पतन है।

क्या 209 मृतकों के परिवारों को कभी न्याय मिलेगा? क्या असली अपराधी कभी पकड़े जाएँगे? 350 हिरासत में लिए गए युवा मुसलमानों को कौन मुआवज़ा देगा, जिनकी ज़िंदगी तबाह हो गई? उन 12 निर्दोष लोगों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा जिन्होंने दशकों जेल में बिताए?

मैं आपको फिर से याद दिला दूँ: कांग्रेस सत्ता में थी - केंद्र और महाराष्ट्र दोनों जगह। गिरफ़्तारियाँ, यातनाएँ, फँसाना, चुप्पी - ये सब आपके और डॉ. मनमोहन सिंह के शासनकाल में हुआ।

राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी से: क्या आप माफी मांगेंगे?

क्या आप, राहुल गांधी, इन ग़लत गिरफ़्तारियों की नैतिक ज़िम्मेदारी लेंगे?
क्या आप भारत के उन मुसलमानों से बिना शर्त माफ़ी माँगेंगे, जिन्हें बदनाम किया गया, निशाना बनाया गया और बलि का बकरा बनाया गया?

जिस प्रकार पूर्व यूपीए नेता सोनिया गांधी और तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 1984 के सिख दंगों के लिए माफी मांगी थी, उसी प्रकार हम आपसे, राहुल गांधी से पूछते हैं:

हम यह प्रश्न बार-बार पूछते रहेंगे।

क्योंकि भारतीय मुसलमान होने के नाते हम इस मामले को बंद करने की मांग करते हैं।

हम आतंकवादी नहीं हैं। हम नागरिक हैं।

हमने बार-बार देखा है कि किस तरह कांग्रेस पार्टी ने भारतीय मुसलमानों के साथ विश्वासघात किया है।

एक के बाद एक कई मामलों में, निचली अदालतें बेगुनाह मुसलमानों को कमज़ोर सबूतों या ज़बरदस्ती कबूलनामे के आधार पर दोषी ठहराती हैं। लेकिन जब यही मामले उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचते हैं, तो बरी कर दिए जाते हैं। यह हमें हमारी पुलिस जाँच, निचली न्यायपालिका और राजनीतिक हस्तक्षेप की स्थिति के बारे में सब कुछ बताता है।

यह एक पैटर्न है - एक बहुत ही परेशान करने वाला पैटर्न।

कांग्रेस ने भारतीय मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है, लेकिन जब वाकई ज़रूरत थी, तब कभी हमारे साथ खड़ी नहीं हुई। न ग़लत गिरफ़्तारियों के दौरान। न सार्वजनिक रूप से बदनामी के दौरान। तब भी नहीं जब वो सत्ता में थी और उसके पास न्याय दिलाने का हर मौका था।

अब समय आ गया है कि कांग्रेस नेतृत्व अपने भीतर झांके और पूछे कि, "आप भारतीय मुसलमानों के लिए किस तरह की विरासत छोड़ रहे हैं?"

Sunday, 20 July 2025

तालमेल और तामीर ।




बिलकुल, आपने इंसान के सामाजिक और आध्यात्मिक विकास की एक गहरी और महत्वपूर्ण बुनियाद रखी है। इसी विचार को विस्तार से इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है:


तालमेल और तामीर: एक बेहतर इंसान और समाज की ओर

इंसान जब अपनी समस्याओं का समाधान तलाशता है और एक बेहतर समाज के निर्माण की ओर बढ़ता है, तो वह अकेले नहीं चल सकता। उसकी राह तब ही मजबूत होती है जब जीवन के विभिन्न पहलुओं में संतुलन और तालमेल पैदा होता है। यह तालमेल केवल बाहर से नहीं, भीतर से भी जरूरी है — समय, शरीर और सोच के स्तर पर।

1. समय का तालमेल (Time Harmony):

हर काम का एक उचित समय होता है। यदि हम समय को पहचानकर, उसकी अहमियत को समझकर चलें, तो हमारी मेहनत और नियत में असर पैदा होता है। बिना समय की समझ के कोई भी योजना स्थायी नहीं बन सकती।

2. शारीरिक या भौतिक तालमेल (Physical Harmony):

एक स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ निर्णयों की नींव बनता है। जीवन की दौड़ में तन का संतुलन, आराम और मेहनत का तालमेल जरूरी है। शरीर की क्षमताओं को जानना और उनका सही उपयोग करना, समाज में योगदान देने की पहली शर्त है।

3. बौद्धिक और वैचारिक तालमेल (Intellectual Harmony):

सोच का तालमेल — खुद के साथ, अपने समाज के साथ और उस सच्चाई के साथ जो हर युग में एक सी रहती है — इंसान को रास्ता दिखाता है। बौद्धिक तालमेल का अर्थ है समझदारी, परिपक्वता और दूसरों के दृष्टिकोण को समझने की क्षमता।


इन तीनों प्रकार के तालमेल के बाद इंसान को चाहिए कि वह व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से आगे बढ़े — यानी अपनी जिम्मेदारियों और भूमिका को समझे, और खुद को उस रास्ते पर ले जाए जो उसे आत्म-सुधार से सामाजिक-सुधार तक पहुंचाता है।

परंतु यह यात्रा अधूरी है अगर उसमें एक केंद्र नहीं हो — एक बुनियाद नहीं हो।

वह केंद्र होना चाहिए:
"क़यामत के मालिक की रज़ा (ख़ुशनूदी)"
यानी वो दिशा जिसमें हमारा हर तालमेल, हर निर्णय, हर संघर्ष अल्लाह की रज़ा के लिये हो। यही वह मकसद है जो इंसान के प्रयासों को नफ़्स (स्वार्थ) से ऊपर उठाता है और उसे खुदगर्ज़ी से निकालकर इंसानियत की सच्ची सेवा की ओर ले जाता है।

जब इंसान का हर तालमेल — समय, शरीर और सोच — अल्लाह की रज़ा से जुड़ जाता है, तो वो फितरत के साथ चलता है, वो इंसाफ़ करता है, वो अमन लाता है और वो समाज के लिये रहमत बनता है।


नतीजा:

"तालमेल तब रहमत बनता है जब उसका मकसद खुदा की रज़ा हो।
वर्ना वही ताक़त, नफ़्स की गिरफ्त में आकर फसाद का जरिया बन जाती है।"



Thursday, 17 July 2025

गांव स्वराज & ग्राम पंचायत।


# **ग्राम स्वराज, पंचायती राज और सत्ता का डर**  
*(एक विश्लेषणात्मक अध्ययन)*  

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## **1. संविधान में अनुच्छेद 40: ग्राम स्वराज का वादा**  
- **संवैधानिक प्रावधान:**  
  - अनुच्छेद 40, **नीति-निदेशक सिद्धांतों (DPSP)** के अंतर्गत आता है।  
  - यह राज्य को निर्देश देता है कि वह **ग्राम पंचायतों का संगठन करे** और उन्हें स्वशासन की शक्ति प्रदान करे।  
  - यह **महात्मा गांधी** के **"ग्राम स्वराज"** के विजन से प्रेरित था।  

- **संविधान सभा में बहस (22 नवंबर, 1948):**  
  - डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने कहा:  
    > *"ग्राम पंचायतों का गठन राज्यों की परिस्थितियों पर निर्भर करना चाहिए।"*  
  - **क्योंकि:**  
    - कुछ राज्यों में सामंती व्यवस्था थी, जहाँ पंचायतें जातिगत शोषण का साधन बन सकती थीं।  
    - इसलिए, इसे **बाध्यकारी नहीं बनाया गया**, बल्कि एक **मार्गदर्शक सिद्धांत** के रूप में रखा गया।  

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## **2. 1992 में पंचायती राज कानून क्यों लाना पड़ा?**  
### **1950-1990: पंचायतों की उपेक्षा**  
- राज्य सरकारों ने पंचायतों को **वास्तविक शक्ति नहीं दी**।  
- पंचायतें **नाममात्र की संस्थाएँ** बनकर रह गईं।  

### **1989: राजीव गांधी का प्रयास**  
- **73वाँ संविधान संशोधन विधेयक** पेश किया गया, जिसमें:  
  - पंचायतों को **संवैधानिक दर्जा** देने का प्रावधान था।  
  - **तीन-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था (ग्राम, ब्लॉक, जिला)** का प्रस्ताव था।  
- **लेकिन:** यह **राज्यसभा में पास नहीं हो पाया**।  

### **1992: नरसिंह राव सरकार ने इसे पारित किया**  
- **73वाँ संविधान संशोधन (1992)** लागू हुआ।  
- **मुख्य प्रावधान:**  
  - पंचायतों को **संवैधानिक मान्यता**।  
  - **नियमित चुनाव**, **महिलाओं के लिए 33% आरक्षण**, **वित्तीय स्वायत्तता**।  

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## **3. 1989 में राज्य सरकारों का डर: संघीय ढाँचा कमजोर होगा?**  
- **राज्यों का तर्क:**  
  > *"पंचायतें राज्य सूची का विषय हैं, केंद्र को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।"*  
- **चिंता:**  
  - अगर पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिला, तो **केंद्र सरकार राज्यों के अधिकारों में दखल देगी**।  
  - राज्यों को लगा कि **उनकी स्वायत्तता कमजोर** हो जाएगी।  

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## **4. आज की स्थिति: क्या पंचायतें स्वतंत्र हैं?**  
- **संवैधानिक मान्यता तो है, पर वास्तविक शक्ति नहीं।**  
- **समस्याएँ:**  
  1. **वित्तीय निर्भरता:**  
     - पंचायतों के **अपने फंड नहीं**, राज्य सरकारों पर निर्भरता।  
  2. **अधिकारियों का दबदबा:**  
     - **ब्लॉक व जिला अधिकारी** पंचायतों के निर्णयों को प्रभावित करते हैं।  
  3. **राजनीतिक हस्तक्षेप:**  
     - **सरपंच व सदस्यों को पार्टी लाइन पर काम करना पड़ता है।**  

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## **5. सत्ता का स्वभाव: क्या वे निचले स्तर पर अधिकार देने से डरते हैं?**  
- **सत्ता का मनोविज्ञान:**  
  - सत्ता हमेशा **नियंत्रण बनाए रखना चाहती है**।  
  - **यदि ग्राम सभाओं को वास्तविक अधिकार मिले, तो:**  
    - राजनीतिक नेताओं का **दबदबा कम** होगा।  
    - **भ्रष्टाचार व अफसरशाही पर अंकुश** लगेगा।  
- **इतिहास से सबक:**  
  - **हर बार जब जनता को सशक्त बनाने की कोशिश हुई, सत्ता ने इसे कमजोर किया।**  

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## **6. निष्कर्ष: क्या ग्राम स्वराज संभव है?**  
- **आज का सवाल:**  
  > *"क्या पंचायतें वास्तव में जनता की सरकार हैं, या राज्य सरकार की एक शाखा?"*  
- **समाधान:**  
  1. **वित्तीय स्वायत्तता:** पंचायतों को अपने **स्थानीय संसाधनों पर नियंत्रण** मिलना चाहिए।  
  2. **राजनीतिक हस्तक्षेप रोकना:** पंचायतों को **पार्टी राजनीति से मुक्त** करना होगा।  
  3. **जनता की भागीदारी:** **ग्राम सभाओं** को मजबूत करना होगा।  

> **"सच्चा स्वराज तभी आएगा, जब सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा और गाँव अपने फैसले खुद ले सकेंगे।"**  

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### **PDF डाउनलोड लिंक:**  
[Download Full PDF Analysis Here](#) *(कृपया टेक्स्ट को PDF में कन्वर्ट करने के लिए किसी टूल का उपयोग करें)*  

*(यदि आपको विस्तृत PDF चाहिए, तो मैं इस टेक्स्ट को PDF फॉर्मेट में कन्वर्ट करके भेज सकता हूँ।)*

Saturday, 12 July 2025

गुलामी की जंजीर ।


 प्रस्तावना

गुलामी की ज़ंजीर – एक आत्ममंथन
भारतीय मुसलमानों की राजनीति की यात्रा केवल भागीदारी की कहानी नहीं है, यह सोच और समझ के बीच उलझी हुई एक जटिल परछाईं है। यह पुस्तक एक आईना है—उस समाज के लिए, जिसने अपने भविष्य की लड़ाई बिना रणनीति, बिना नेतृत्व और बिना दिशा के लड़ी। आज जब इतिहास हमारे सामने बेबाक खड़ा है, तब यह आवश्यक हो गया है कि हम अपने अतीत के कदमों की गूंज को फिर से सुनें।

ब्रिटिश शासनकाल के दौरान, हमने समझे बिना राजनीति के पीछे भागना शुरू किया। उस समय यह दौड़ आज़ादी की लगती थी, पर हकीकत में हम गुलामी की जंजीरों की ओर कदम बढ़ा रहे थे। आंखों पर बंधी पट्टी और पैरों में बंधी बेड़ियाँ हमारी चेतना की विफलता का प्रतीक थीं। हमने सत्ता को साधन मान लिया, लेकिन साध्य क्या था – यह सोचने का समय ही नहीं दिया गया।

आज़ादी के बाद भी हालात बदले नहीं। हमने आत्मविश्लेषण की जगह भावनाओं के आधार पर राजनीतिक निर्णय लिए। बिना आयोजन, बिना वैचारिक संगठन और बिना दीर्घकालीन रणनीति के राजनीति में भाग लेना, खुद ही अपने पैरों की जंजीर को कसना था। हमने सोचा हम आज़ाद हैं, लेकिन हमारे विचार, हमारी भागीदारी और हमारी दिशा अब भी गुलामी के मनोविज्ञान में जकड़ी हुई थी।

सबसे डरावनी स्थिति आज है – जब हम ज़ंजीरों को पहचानने के बाद भी, उन्हें गले का हार बनाकर पहन रहे हैं। यह स्वेच्छा की गुलामी आने वाली नस्लों की आंखों पर अज्ञानता की पट्टी चढ़ा रही है। हमने जिन्हें नेतृत्व माना, उन्होंने न हमारी आत्मा को आवाज़ दी और न ज़मीनी हक़ीक़तों को समझने की कोशिश की। अब ज़रूरत है ज़ंजीरें तोड़ने की, व्यवस्था को समझने की, और वैकल्पिक सोच विकसित करने की।

यह पुस्तक एक दस्तावेज़ है – इतिहास के उन पलों का, जहाँ हमने ठोकर खाई और आगे बढ़े बिना यह देखे कि रास्ता कैसा है। यह प्रयास किसी दल, संगठन या व्यक्ति की आलोचना नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतना का प्रयास है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए ज़िम्मेदारी का बीज बोना चाहता है।

गुलामी की ज़ंजीर कोई भूतकाल की वस्तु नहीं, यह एक मानसिक स्थिति है – और जब तक हम इससे बाहर नहीं निकलते, हम खुद ही अपने गले और पैरों में लोहे की जंजीरें डालते रहेंगे।

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बिलकुल। यह रहा आपकी पुस्तक "गुलामी की ज़ंजीर" के दूसरे पन्ने के लिए लेखक परिचय और उद्देश्य का संक्षिप्त और प्रभावशाली पाठ:


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✍️ लेखक परिचय : हुजैफा डेडिकेटेड
एक सामाजिक चिंतक, जन जागरूकता में सक्रिय  कार्यकर्ता और वैकल्पिक राजनीति, ग्राम स्वराज व संवैधानिक चेतना को लेकर समर्पित आवाज़।
आपने मुस्लिम समाज के भीतर वैचारिक जागरूकता, सामाजिक संगठन और राजनीतिक आत्ममंथन को लेकर कई मंचों और आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई है।
"सोचना, समझना और बदलना" 
इन्हीं तीन मूल भावों को लेकर यह लेखनी आगे बढ़ती है।

🎯 पुस्तक का उद्देश्य

यह पुस्तक किसी दल या व्यक्ति के विरोध में नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज के राजनीतिक भ्रम, अविचारित भागीदारी, और गुलामी की मानसिकता को सामने लाने का एक प्रयास है।
इसका उद्देश्य है:

⚫ अतीत की गलतियों से सबक लेना,

⚫ राजनीतिक भागीदारी के लिए रणनीतिक सोच विकसित करना।

⚫ आने वाली नस्लों को आत्मनिर्भर, विवेकशील और ज़िम्मेदार नागरिक बनाना।

यह एक आत्ममंथन है, ताकि हम जान सकें कि ज़ंजीरें बाहर से नहीं, अक्सर हमारे भीतर से ही शुरू होती हैं।

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कायनात के मालिक रब्बे करीम के नाम से, जो रहमत और हिकमत वाला है।
हम दुआ करते हैं कि यह लेखन हम सभी के लिए सलामती, समझ और सुधार का माध्यम बने।
इसी नियत से, हम इस यात्रा की शुरुआत करते हैं…

आपके हाथों में जो पुस्तक है, वह किसी व्यक्ति, दल या विचारधारा के विरुद्ध लिखित आरोप-पत्र नहीं है, अपितु यह एक सामूहिक आत्ममंथन का दस्तावेज है। यह उन असहज प्रश्नों को उठाने का एक विनम्र प्रयास है, जिन्हें समय, सत्ता और समाज ने वर्षों से दबाए रखा है।

"गुलामी की ज़ंजीर" शीर्षक वस्तुतः प्रतीक है – उस मानसिक, वैचारिक और राजनीतिक अवस्था का, जिसमें भारतीय मुसलमान एक लम्बे अरसे से उलझा रहा है। यह पुस्तक उन विचारधारात्मक जंजीरों को छूने का साहस करती है, जिन्हें अक्सर श्रद्धा या भ्रम के आवरण में ढक दिया गया है।

इस ग्रंथ का उद्देश्य न तो किसी को दोषी ठहराना है, न किसी पर आक्षेप करना, वरन् इसका प्रमुख उद्देश्य है:

समाज को उसकी ऐतिहासिक राजनीतिक यात्रा के बिंदुओं से परिचित कराना,

वर्तमान भागीदारी की प्रकृति और परिणामों पर विचार करना,

तथा भावी दिशा के लिए विवेकशील चिंतन को आमंत्रित करना।


आज जब सूचना और प्रचार के शोर में आत्म-चिंतन का स्वर कहीं गुम हो गया है, तब यह आवश्यक हो गया है कि हम स्वयं से, अपने समाज से और अपनी राजनीतिक यात्रा से कुछ बुनियादी प्रश्न करें। यह पुस्तक उन्हीं प्रश्नों की एक श्रृंखला है – साक्ष्य, संदर्भ और स्वानुभव के साथ।

यह कृति किसी निष्कर्ष को थोपती नहीं, बल्कि विचार का बीज बोती है।
हमारी आशा है कि यह बीज, आपके चिंतन की भूमि पर पड़कर संवाद और बदलाव के वृक्ष में परिवर्तित होगा।








7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓

सैयद नदीम द्वारा . 11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों ...