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Wednesday, 31 October 2018

क्या_बदलेगा_मुस्लिम_समाज.....????

अजमेर में ख़्वाजा़ मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह की दरगाह पर सालाना उर्स चल रहा हो तो लाखों की तादाद में मुसलमान बसों मे भर-भर कर अजमेर पहुँच जाते हैं। इनमें बड़ी तादाद में औरते और बच्चें भी शामिल हैं। इस वर्ष मार्च में मक्का से हरम शरीफ़ यानि ख़ाना-ए-काबा के इमाम भारत आए तो उनके पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए लाखों मुसलमान 200-300 किलोमीटर दूर तक से दिल्ली और देवबंद पहुँच गए। इससे पहले फरवरी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर में हुए तब्लीग़ी जमात के तीन रोज़ा इज़्तमा में 11 लाख लोगों के लिए पंडाल का इंतज़ाम किया गया था लेकिन वहां 25 लाख से ज़्यादा लोग पहुँचे। हज़ारों लोग काम-काज छोड़ कर कई हफ़्तों तक इज़्तमा में आने वालों की ख़िदमत में लगे रहे। इससे पता चलता है कि धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए मुसलमान किस हद तक दिलोजान से तन मन धन लगाकर काम करते हैं..!!

अब ज़रा तस्वीर के दूसरे रुख़ पर ग़ौर करें। पिछले दिनों सहारनपुर में मुस्लमानों पिछड़ेपन को दूर करने को लेकर और विकास का एजेंडा तय करने और उसे राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए एक सम्मेलन हुआ। इसमें लागू करने की मांग के साथ सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल भी शामिल था। इसमें बमुश्किल तमाम पच्चीस मुसलमान पहुँचे। इसके अगले दिन बिजनौर में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों का सम्मेलन हुआ स्थानीय लोगों ने पांच हज़ार से ज़्यादा की भीड़ जुटाने का ऐलान किया था लेकिन सम्मेलन में कुल जमा 100 लोग भी नहीं पहुँचे।
2009 मार्च में दिल्ली में लोकसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के तमाम संगठनों ने मिलकर दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की। रैली का एजेंडा था मुसलमानों की सत्ता में हिस्सेदारी, इनके विकास के लिए जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग। इस रैली में लोगों को लाने के लिए बड़े पैमाने पर बसों का इंतज़ाम किया गय़ा था। लोगों के बैठने के लिए 50 हज़ार कुर्सियों का इंतज़ाम था लेकिन रैली में दो हज़ार लोग भी नहीं पहुँचे। लेकिन पिछले दिनों रामलीला मैदान में इमाम-ए-हरम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाली की ऐसी भीड़ उमड़ी कि पैर रखने की भी जगह नहीं बची। धार्मिक आयोजनों के मौक़ों पर मुसलमानों का जोश बल्लियों उछलता है। लेकिन जब समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए तालीमी और सियासी बेदारी का मामला आता है तो ये जोश बर्फ़ की तरह ठंडा पड़ जाता है। शबेरात को नफ़िल नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमान रात-रात भर जागते हें। क़ब्रिसतान में जाकर फ़ातिहा पढ़ते है। रमज़ान में दिन भर टोपी सिर से नहीं उतरती। तरावीह पढ़ने के लिए दूर-दूर तक चले जाएंगे। लेकिन जब समाजाकि, तालीमी और सियासी बेदारी के लिए काम करने का मसला आता है तो लोगों को अपने रोज़गार की फ़िक्र सताने लगेगी। फ़िक्र भी ऐसी मानों अगर एक दिन काम नहीं करेंगे तो शाम को घर में चूल्हा नहीं जलेगा। उनका परिवार भूखा मर जाएगा। लेकिन ऐसे तर्क देने वाले लोग धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। इस लिए ताकि वो सवाब कमा सकें। सवाब मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। लेकिन कब? मरने के बाद। किसको कितना सवाब मिलेगा इसका फ़ैसला क़यामत के दिन होगा। क़यामत कब आएगी ये भी किसी को पता नहीं। सवाब के चक्कर में मुसलमान अपनी दुनियादारी की वो तमाम ज़िम्मेदारी भूल जाते हैं जिन्हें निभाना फ़र्ज़ है। नबी-ए-करीमहजरत मुहम्मद (सअव) ने तालीम हासिल करने को हर मर्द और औरत पर फ़र्ज़ बताया। ये भी कहा कि तालीम हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े। लेकिन यहां किसी को उन मुसलमानों के बच्चों की तालीम फ़िक्र ही नहीं है जो ग़ुरबत की वजह से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। सरकार ने मुफ़्त तालीम को ज़रूरी बना दिया है। मुसलमानों के विकास के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती है। सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों पर अमल के लिए सरकार ने क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपए का बजट दिया है। लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। अमल हो जाए तो मुसलमानों की आने वाली नस्लों की तक़दीर संवर जाए। जमहूरियत में ताक़त दिखा कर ही अपने हक़ में फ़ैसले कराए जाते हैं। लेकिन अपनी ताक़त दिखाने में मुसलमान सबसे पीछे है। मुट्ठी भर गुर्जर और जाट जब चाहते हैं सड़कों और रेल की पटरियों पर बैठ कर जिस सरकार को चाहते है झुका देते हैं। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव नें चंद लाख लोग इकट्ठे किए और यूपीए सरकार की चूलें हिला दीं। लेकिन धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मुसलमान जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने की मांग करने के लिए एक दिन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर नहीं आ सकते। क्योंकि इन्हें अपनी आने वाली नस्लों के विकास से कोई मतलब नहीं है इन्हें तो बस अपने लिए जन्नत में जगह और ढेर सारा सवाब चाहिए।
दरअसल, धार्मिक रहनुमाओं ने मुसलमानों को घुट्टी पिला रखी है कि ये दुनिया फ़ानी है। इसके बाद यानि मरने के बाद आख़िरत की ज़िंदगी शुरू होगी जो कभी ख़त्म नहीं होगी। दुनिया को छोड़ कर बस उसी के लिए काम करो। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इसी बहकावे में आकर दुनिया और दुनियीदारी की अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां भुला बैठा है। ये तबक़ा तालीम की कमी और ना समझी में धार्मिक रहनुमाओं का एजेंड़ा पूरा करने में जुटा हुआ है। हैरानी की बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर पिछड़े हुए मुसलमान हैं..!!

धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए लाखों का तादाद मे जमा होने वाले मुसलमानों में 90 फ़ीसदी पिछड़े हुए मुसलमान ही होते है। ये अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद करते हैं। पैसा बर्बाद करते हैं। और इन्हें मज़हबी जुनून मे अंधा करने वाले मज़े लूटते हैं। ताज्जुब की बात है कि मुसलमानों के तमाम धार्मिक संगठनों और मसलकी संगठनों पर उंचे तबक़े के मुसलमान क़ाबिज़ है। कामयाब धार्मिक आयोजनों के आधार पर ये तमाम संगठन मुस्लिम देशों से बेहिसाब पैसा इकट्ठा करते हैं। ये सारा पैसा ज़कात और ख़ैरात के रूप में ग़रीब मुसलमानों की मदद के लिए आता है। लेकिन उन तक पहुँचने के बजाए के मुस्लिम संगठनों के रहनुमाओं की तिजोरियों में पहुँच जाता है।
धार्मिक रहनुमाओ नें मुसलमानों को ज़मीन से नीचे (क़ब्र के अज़ाब) और आसमान के उपर की बातों में ऐसा उलझा रखा है कि ज़्यादातर मुसलमान दुनिया में आने का असली मक़सद ही भूल बैठे है। सवाब कमाने के चक्कर में वो अपने विकास से ग़ाफ़िल हो जाते हैं। धार्मिक रहनुमाओं की इस दकियानूसी सोच और मुसलमानों को पिछड़ा रखने की साज़िश के ख़िलाफ समाज में आवाज़ भी नहीं उठती। कभी कोई आवाज़ उठाने की कोई हिम्मत करता भी है तो फ़तवे जारी करके उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। या फिर डरा धमका पर उसे चुप करा दिया जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान हो रहे हैं..!!

संसद और विधानसभाओं में उनकी कोई रहनुमाई है नहीं। ऊँचे तबक़े की रहनुमाई वाले मुस्लिम संगठन कभी उनके हक़ की बात नहीं करते। इसके उलट वो मुस्लिम हितों के नाम पर धार्मिक मसलों पर सरकारों से डील करने में लगे रहते हैं। उनके अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए बढ़िया पब्लिक स्कूल बने हुए हैं। इनकी फ़ीस इतनी ज़्याद होती है कि आम पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान इतनी फ़ीस दे नहीं सकता। ये तमाम संगठन मिलकर मुफ़्त शिक्षा के क़ानून के दायरे से खुद को बाहर रखने की मांग कर रहे हैं। ताकि ग़रीब पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान वक़्फ़ बोर्ड की मुफ़्त जमीन पर चलने वाले इनके हाई प्रोफ़ाइल स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा क़ानून के नाम पर दाखिले का दावा ही न कर सके। पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों के लिए इन्होंने हर मस्जिद की बग़ल में एक मदरसा बना दिया है। मदरसे के बाद तमाम दारुल उलूम हैं जहां इनके लिए मज़हबी तालीम तैयार है। ताकि ग़रीब और पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान मज़हबी तालीम हासिल करके मस्जिद में मुज़्ज़न और इमामत कर सकें। सवाल ये है कि आख़िर कब तक अंधेरे से उजाले की तरफ़ लाने वाले इस्लाम मज़हब को मानने वाले मुसलमान ख़ुद गुमराही के अंधेरे में पड़े रहेंगे..? ख़ासकर पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों को अब सोचना होगा कि वो धार्मिक संगठनों की ख़ुशहाली के लिए कब तक अपना ख़ून पसीना बहाते रहेंगे। जन्नत में जगह और सवाब के साथ अगर उनके बच्चों को दुनिया में इज़्ज़त भी मिल जाए तो क्या हर्ज़ है। इसके लिए करना सिर्फ़ इतना है कि जिस तरह ये धार्मिक आयोजनों के कामयाब बनाने के लिए तन, मन और धन से जुट जाते हैं। उसी तरह समाजी, तालीमी और सियासी बेदारी वाले कार्यक्रमों को कामयाब बनाने के लिए भी ऐसा ही जोश दिखाएं तो आने वाली पीढ़ियों की क़िसम्त संवर जाएगी। नहीं तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेंगी। हमें अपने दिल पर हाथ रख कर सोचना चाहिए जब तक मुस्लमान ख्वाबों में जीना छोड़कर वास्तविकता में जीना नहीं सिखते तब तक भला नहीं होगा..!!

क्या बदलेगा मुस्लिम समाज, वो समाज कभी नहीं बदल सकता। जिसमें बदलें की चाह और अहसास ही ना हो। बड़ी मशहुर कहावत है। कि ” सोते को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो जागता हो उससे कैसे जगाया जा सकता है” मुस्लिम समाज के दीनी रहनुमाओं ने मुस्लमानों को कुछ ऐसा ही बना दिया है। उन्हें मौत के बाद की जिन्दगी के सब्ज बाग दिखाकर, उनकी मौजुदा जिन्दगी का ही नक्शा बदल दिया है। उन्हें मौत के बाद मिलने वाली पाक साफ बीबियों की तो फिकर है, मगर वो मौजुदा बीबियों के हलात से बे-खबर हैं। वो मौत के बाद मिलने वाली असल जिन्दगी के चक्कर में, अपनी मौजुदा जिन्दगी को जहनुम बनाने में लगे हुए है। वो सबाब कमाने के चक्कर में, विकास को भूल रहे हैं। नबी-ए-करीम हजरत मोहम्मद (सलव) ने फरमाया था- कि आपको शिक्षा यानि तालीम पाने के लिए चाहे चीन क्यों न जाने पढ़े। कुरआन-पाक और हजुर-ए-पाक ने यह कभी नहीं फरमाया कि मुस्लमान डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक इत्यादि न बन सकता। लेकिन वो बनेगे कब जब उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जाऐगा और वातावरण बनाया जाए। वो कौन कर सकते हैं वो डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक और उसकी अमियत समझने वाले या फिर सही मायनो में मुस्लिम कौम के दर्द को समझने वाला। कोई और दुसरा नहीं..!!!

मो. रफीक चौहान(एडवोकेट) साहब...

क्या_बदलेगा_मुस्लिम_समाज.....????

अजमेर में ख़्वाजा़ मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह की दरगाह पर सालाना उर्स चल रहा हो तो लाखों की तादाद में मुसलमान बसों मे भर-भर कर अजमेर पहुँच जाते हैं। इनमें बड़ी तादाद में औरते और बच्चें भी शामिल हैं। इस वर्ष मार्च में मक्का से हरम शरीफ़ यानि ख़ाना-ए-काबा के इमाम भारत आए तो उनके पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए लाखों मुसलमान 200-300 किलोमीटर दूर तक से दिल्ली और देवबंद पहुँच गए। इससे पहले फरवरी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला बिजनौर में हुए तब्लीग़ी जमात के तीन रोज़ा इज़्तमा में 11 लाख लोगों के लिए पंडाल का इंतज़ाम किया गया था लेकिन वहां 25 लाख से ज़्यादा लोग पहुँचे। हज़ारों लोग काम-काज छोड़ कर कई हफ़्तों तक इज़्तमा में आने वालों की ख़िदमत में लगे रहे। इससे पता चलता है कि धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए मुसलमान किस हद तक दिलोजान से तन मन धन लगाकर काम करते हैं..!!

अब ज़रा तस्वीर के दूसरे रुख़ पर ग़ौर करें। पिछले दिनों सहारनपुर में मुस्लमानों पिछड़ेपन को दूर करने को लेकर और विकास का एजेंडा तय करने और उसे राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए एक सम्मेलन हुआ। इसमें लागू करने की मांग के साथ सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल भी शामिल था। इसमें बमुश्किल तमाम पच्चीस मुसलमान पहुँचे। इसके अगले दिन बिजनौर में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों का सम्मेलन हुआ स्थानीय लोगों ने पांच हज़ार से ज़्यादा की भीड़ जुटाने का ऐलान किया था लेकिन सम्मेलन में कुल जमा 100 लोग भी नहीं पहुँचे।
2009 मार्च में दिल्ली में लोकसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के तमाम संगठनों ने मिलकर दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की। रैली का एजेंडा था मुसलमानों की सत्ता में हिस्सेदारी, इनके विकास के लिए जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग। इस रैली में लोगों को लाने के लिए बड़े पैमाने पर बसों का इंतज़ाम किया गय़ा था। लोगों के बैठने के लिए 50 हज़ार कुर्सियों का इंतज़ाम था लेकिन रैली में दो हज़ार लोग भी नहीं पहुँचे। लेकिन पिछले दिनों रामलीला मैदान में इमाम-ए-हरम के पीछे नमाज़ पढ़ने वाली की ऐसी भीड़ उमड़ी कि पैर रखने की भी जगह नहीं बची। धार्मिक आयोजनों के मौक़ों पर मुसलमानों का जोश बल्लियों उछलता है। लेकिन जब समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए तालीमी और सियासी बेदारी का मामला आता है तो ये जोश बर्फ़ की तरह ठंडा पड़ जाता है। शबेरात को नफ़िल नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमान रात-रात भर जागते हें। क़ब्रिसतान में जाकर फ़ातिहा पढ़ते है। रमज़ान में दिन भर टोपी सिर से नहीं उतरती। तरावीह पढ़ने के लिए दूर-दूर तक चले जाएंगे। लेकिन जब समाजाकि, तालीमी और सियासी बेदारी के लिए काम करने का मसला आता है तो लोगों को अपने रोज़गार की फ़िक्र सताने लगेगी। फ़िक्र भी ऐसी मानों अगर एक दिन काम नहीं करेंगे तो शाम को घर में चूल्हा नहीं जलेगा। उनका परिवार भूखा मर जाएगा। लेकिन ऐसे तर्क देने वाले लोग धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए दिन रात एक कर देते हैं। इस लिए ताकि वो सवाब कमा सकें। सवाब मिलेगा। ज़रूर मिलेगा। लेकिन कब? मरने के बाद। किसको कितना सवाब मिलेगा इसका फ़ैसला क़यामत के दिन होगा। क़यामत कब आएगी ये भी किसी को पता नहीं। सवाब के चक्कर में मुसलमान अपनी दुनियादारी की वो तमाम ज़िम्मेदारी भूल जाते हैं जिन्हें निभाना फ़र्ज़ है। नबी-ए-करीमहजरत मुहम्मद (सअव) ने तालीम हासिल करने को हर मर्द और औरत पर फ़र्ज़ बताया। ये भी कहा कि तालीम हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े। लेकिन यहां किसी को उन मुसलमानों के बच्चों की तालीम फ़िक्र ही नहीं है जो ग़ुरबत की वजह से अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। सरकार ने मुफ़्त तालीम को ज़रूरी बना दिया है। मुसलमानों के विकास के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती है। सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों पर अमल के लिए सरकार ने क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपए का बजट दिया है। लेकिन उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। अमल हो जाए तो मुसलमानों की आने वाली नस्लों की तक़दीर संवर जाए। जमहूरियत में ताक़त दिखा कर ही अपने हक़ में फ़ैसले कराए जाते हैं। लेकिन अपनी ताक़त दिखाने में मुसलमान सबसे पीछे है। मुट्ठी भर गुर्जर और जाट जब चाहते हैं सड़कों और रेल की पटरियों पर बैठ कर जिस सरकार को चाहते है झुका देते हैं। अण्णा हज़ारे और बाबा रामदेव नें चंद लाख लोग इकट्ठे किए और यूपीए सरकार की चूलें हिला दीं। लेकिन धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाले मुसलमान जस्टिस सच्चर कमेटी और जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने की मांग करने के लिए एक दिन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर नहीं आ सकते। क्योंकि इन्हें अपनी आने वाली नस्लों के विकास से कोई मतलब नहीं है इन्हें तो बस अपने लिए जन्नत में जगह और ढेर सारा सवाब चाहिए।
दरअसल, धार्मिक रहनुमाओं ने मुसलमानों को घुट्टी पिला रखी है कि ये दुनिया फ़ानी है। इसके बाद यानि मरने के बाद आख़िरत की ज़िंदगी शुरू होगी जो कभी ख़त्म नहीं होगी। दुनिया को छोड़ कर बस उसी के लिए काम करो। मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबक़ा इसी बहकावे में आकर दुनिया और दुनियीदारी की अपनी तमाम ज़िम्मेदारियां भुला बैठा है। ये तबक़ा तालीम की कमी और ना समझी में धार्मिक रहनुमाओं का एजेंड़ा पूरा करने में जुटा हुआ है। हैरानी की बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर पिछड़े हुए मुसलमान हैं..!!

धार्मिक आयोजनों को कामयाब बनाने के लिए लाखों का तादाद मे जमा होने वाले मुसलमानों में 90 फ़ीसदी पिछड़े हुए मुसलमान ही होते है। ये अपना क़ीमती वक़्त बर्बाद करते हैं। पैसा बर्बाद करते हैं। और इन्हें मज़हबी जुनून मे अंधा करने वाले मज़े लूटते हैं। ताज्जुब की बात है कि मुसलमानों के तमाम धार्मिक संगठनों और मसलकी संगठनों पर उंचे तबक़े के मुसलमान क़ाबिज़ है। कामयाब धार्मिक आयोजनों के आधार पर ये तमाम संगठन मुस्लिम देशों से बेहिसाब पैसा इकट्ठा करते हैं। ये सारा पैसा ज़कात और ख़ैरात के रूप में ग़रीब मुसलमानों की मदद के लिए आता है। लेकिन उन तक पहुँचने के बजाए के मुस्लिम संगठनों के रहनुमाओं की तिजोरियों में पहुँच जाता है।
धार्मिक रहनुमाओ नें मुसलमानों को ज़मीन से नीचे (क़ब्र के अज़ाब) और आसमान के उपर की बातों में ऐसा उलझा रखा है कि ज़्यादातर मुसलमान दुनिया में आने का असली मक़सद ही भूल बैठे है। सवाब कमाने के चक्कर में वो अपने विकास से ग़ाफ़िल हो जाते हैं। धार्मिक रहनुमाओं की इस दकियानूसी सोच और मुसलमानों को पिछड़ा रखने की साज़िश के ख़िलाफ समाज में आवाज़ भी नहीं उठती। कभी कोई आवाज़ उठाने की कोई हिम्मत करता भी है तो फ़तवे जारी करके उसकी आवाज़ दबा दी जाती है। या फिर डरा धमका पर उसे चुप करा दिया जाता है। इसका सबसे बड़ा शिकार पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान हो रहे हैं..!!

संसद और विधानसभाओं में उनकी कोई रहनुमाई है नहीं। ऊँचे तबक़े की रहनुमाई वाले मुस्लिम संगठन कभी उनके हक़ की बात नहीं करते। इसके उलट वो मुस्लिम हितों के नाम पर धार्मिक मसलों पर सरकारों से डील करने में लगे रहते हैं। उनके अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए बढ़िया पब्लिक स्कूल बने हुए हैं। इनकी फ़ीस इतनी ज़्याद होती है कि आम पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान इतनी फ़ीस दे नहीं सकता। ये तमाम संगठन मिलकर मुफ़्त शिक्षा के क़ानून के दायरे से खुद को बाहर रखने की मांग कर रहे हैं। ताकि ग़रीब पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान वक़्फ़ बोर्ड की मुफ़्त जमीन पर चलने वाले इनके हाई प्रोफ़ाइल स्कूलों में मुफ़्त शिक्षा क़ानून के नाम पर दाखिले का दावा ही न कर सके। पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों के लिए इन्होंने हर मस्जिद की बग़ल में एक मदरसा बना दिया है। मदरसे के बाद तमाम दारुल उलूम हैं जहां इनके लिए मज़हबी तालीम तैयार है। ताकि ग़रीब और पिछड़ेपन के शिकार मुसलमान मज़हबी तालीम हासिल करके मस्जिद में मुज़्ज़न और इमामत कर सकें। सवाल ये है कि आख़िर कब तक अंधेरे से उजाले की तरफ़ लाने वाले इस्लाम मज़हब को मानने वाले मुसलमान ख़ुद गुमराही के अंधेरे में पड़े रहेंगे..? ख़ासकर पिछड़ेपन के शिकार मुसलमानों को अब सोचना होगा कि वो धार्मिक संगठनों की ख़ुशहाली के लिए कब तक अपना ख़ून पसीना बहाते रहेंगे। जन्नत में जगह और सवाब के साथ अगर उनके बच्चों को दुनिया में इज़्ज़त भी मिल जाए तो क्या हर्ज़ है। इसके लिए करना सिर्फ़ इतना है कि जिस तरह ये धार्मिक आयोजनों के कामयाब बनाने के लिए तन, मन और धन से जुट जाते हैं। उसी तरह समाजी, तालीमी और सियासी बेदारी वाले कार्यक्रमों को कामयाब बनाने के लिए भी ऐसा ही जोश दिखाएं तो आने वाली पीढ़ियों की क़िसम्त संवर जाएगी। नहीं तो आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेंगी। हमें अपने दिल पर हाथ रख कर सोचना चाहिए जब तक मुस्लमान ख्वाबों में जीना छोड़कर वास्तविकता में जीना नहीं सिखते तब तक भला नहीं होगा..!!

क्या बदलेगा मुस्लिम समाज, वो समाज कभी नहीं बदल सकता। जिसमें बदलें की चाह और अहसास ही ना हो। बड़ी मशहुर कहावत है। कि ” सोते को तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो जागता हो उससे कैसे जगाया जा सकता है” मुस्लिम समाज के दीनी रहनुमाओं ने मुस्लमानों को कुछ ऐसा ही बना दिया है। उन्हें मौत के बाद की जिन्दगी के सब्ज बाग दिखाकर, उनकी मौजुदा जिन्दगी का ही नक्शा बदल दिया है। उन्हें मौत के बाद मिलने वाली पाक साफ बीबियों की तो फिकर है, मगर वो मौजुदा बीबियों के हलात से बे-खबर हैं। वो मौत के बाद मिलने वाली असल जिन्दगी के चक्कर में, अपनी मौजुदा जिन्दगी को जहनुम बनाने में लगे हुए है। वो सबाब कमाने के चक्कर में, विकास को भूल रहे हैं। नबी-ए-करीम हजरत मोहम्मद (सलव) ने फरमाया था- कि आपको शिक्षा यानि तालीम पाने के लिए चाहे चीन क्यों न जाने पढ़े। कुरआन-पाक और हजुर-ए-पाक ने यह कभी नहीं फरमाया कि मुस्लमान डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक इत्यादि न बन सकता। लेकिन वो बनेगे कब जब उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया जाऐगा और वातावरण बनाया जाए। वो कौन कर सकते हैं वो डाक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफसर, वैज्ञानिक और उसकी अमियत समझने वाले या फिर सही मायनो में मुस्लिम कौम के दर्द को समझने वाला। कोई और दुसरा नहीं..!!!

मो. रफीक चौहान(एडवोकेट) साहब...

Wednesday, 24 October 2018

काश कोई हिंदुत्व/बीजेपी समर्थक, मित्र Alok Mohan की इस पोस्ट पर कुछ कहे

तारीख:-24/10/2018
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मुसलमान हिंदुस्तान के सबसे सस्ते वोटर हैं
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उन्हें सरकार से सुरक्षा के बदले में कुछ भी नहीं चाहिए.

अपनी मेहनत के दम पर कमाने खाने वाले लोग हैं. साईकिल पंचर लगाने से लेकर भारत के राष्ट्रपति तक के पद को सुशोभित किया है. फल बेचने से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज तक रहे.

बिरयानी बनाने का काम करने से लेकर IB प्रमुख तक, कवाब बनाने से लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त तक; एक तो अभी सेना प्रमुख बनने तक रह गए

किसानी से लेकर सेना में भर्ती होकर परमवीर चक्र लिया. पदमश्री से लेकर भारत रत्न तक प्राप्त किया मुसलमानों ने. मोटर वर्कशॉप का काम करने से लेकर अग्नि मिसाईल तक बनाई.

हर क्षेत्र में डंका बजाया है फ़िल्म, कला, साहित्य, संगीत, आप भारत के होने की कल्पना ही नहीं कर सकते बिना मुसलमानों के...

और ये सब इन्होंने बिना आरक्षण, बिना सरकारी मदद और बिना भाई भतीजावाद के प्राप्त किया है यदि असली मेरिट की बात की जाये तो वो भारत के मुसलमानों की है, लेकिन आज 70 साल के बाद भी इन्हें अपने वोट के बदले में क्या चाहिए केवल सुरक्षा....

कितना सस्ता है मुसलमानों का वोट....

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► औरत बियर बार में नंगी नाचे तो किसी को कोई तकलीफ नहीं।
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► औरत बिकनी में क्लब के अंडर पोल डांस करे तो किसी को कोई तकलीफ नहीं।
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► औरत जिस्म के धंधे में गैर मर्दो के साथ सोये तो किसी को कोई तकलीफ नहीं।
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लेकिन जब एक मुसलमान औरत नकाब से अपने जिस्म को ढांके तो पूरी दुनिया के लोगो के सीने पे सांप लोट जाता है।
और कहते है इस्लाम में औरतो को आजादी नही...
#वाह_रे_जाहिलो‬
समझ में नहीं आता ये औरतों को बेपर्दा क्यूँ करना चाहते है.?
[5/9, 14:44] Tauheed Bin Zaheer: दुनिया की तारीख में किसने मासूमो का सबसे ज़्यादा क़त्ल किया है?

1)हिटलर।.

आप जानते हैं ये कौन था?

हिटलर जर्मन "ईसाई" था लेकिन मीडिया कभी "ईसाईयों" को आतंकवादी नहीं कहता।।

2)"जोसफ स्टालिन"

इसने तक़रीबन 20 मिलियन इंसानी जाने ली जिसमे 14.5 मिलियन को तड़पा तड़पा कर मारा गया।।

क्या ये मुसलमान था?

3) "माओ त्से तसुंग (चीन)"

इसने 14 से 20 मिलियन का क़त्ल किया।।

क्या ये मुस्लमान था ??

4) "बेनितो मुस्सोलिनी" (इटली)"

इसने तक़रीबन 400 हज़ार लोगो का कत्लेआम कराया।

क्या ये मुसलमान था ?

5) "अशोक" ने कलिंगा के युद्ध में 100 हज़ार लोगो का कत्लेआम किया ।।
क्या ये मुसलमान था ??

6) "अम्बार्गो" (इराक) जिसे जॉर्ज बुश ने इराक भेजा था।

इराक में 1 मिलियन से ज़्यादा इंसानो की जाने ली गयी जिसमे मासूम बच्चे भी शामिल थे।।

क्या ये भी मुसलमान था ??

आज देखा जाता है के ग़ैर मुस्लिम समाज में "जिहाद " के नाम से एक डर और दहशत बनी हुई है लेकिन मीडिया सच्चाई न बताता है और न दिखाता है।

"जिहाद" एक अरबी का शब्द है जो की एक और अरबी के शब्द "जहादा" से बना है।

जिसका मतलब है "बुराई"  और "नाइंसाफी" के खिलाफ आवाज़ उठाना उसके खिलाफ खड़े होना या इंसाफ के लिए लड़ाई लड़ना।।

जिहाद का मतलब मासूमो व बेगुनाहो की जान लेना या क़त्ल करना हरगिज़ नहीं है।

फ़र्क़ सिर्फ इतना है के हम बुराई के खिलाफ खड़े है , बुराई के साथ नहीं।

क्या इस्लाम हक़ीक़त में परेशानी है ?? 👇🏼👇🏼

1.पहली आलमी जंग (फर्स्ट वर्ल्ड वॉर 1930 के दशक में ) जिसमे 17 मिलियन मौते हुयी।

जिसे ग़ैर मुस्लिम देशों ने किया।।

2. दूसरी आलमी जंग (सेकंड वर्ल्ड वॉर 1939 -1945 ) जिसमे 50 से 55 मिलियन मौते हुयी।।
यह भी ग़ैर मुस्लिमो द्वारा किया गया।।

3. नागासाकी हिरोशिमा एटॉमिक हमले जिसमे 200,000 लोगो की जाने गयी ये हमले भी ग़ैर मुस्लिम(अमेरिका) द्वारा किये गए।

4. वियतनाम की लड़ाई में 5 मिलियन लोग मारे गए ।। यह भी ग़ैर मुस्लिम ने किया।।

5. बोस्निया/कोसोवो की लड़ाई में तक़रीबन 500,000 लोग मारे गए।।
ग़ैर मुस्लिम ने किया ।

6. इराक की जंग में अब तक 12,000,000 लोग मारे गए।जिसे ग़ैर मुस्लिम ने किया।

7.1975-1979 तक कंबोडिया में तक़रीबन 3 मिलियन लोगो की जाने गयी।।
ग़ैर मुस्लिम ने किया।।

8. और आज अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया , फिलिस्तीन, और बर्मा में लोग मारे जा रहे हैं।।

क्या ये सब मुसलमानों ने किया ??

"मुसलमान आतंकवादी नहीं है और जो आतंकवादी है वो मुस्लमान नहीं है।।"

ये दोहरे चेहरे ज़रूर उजागर होने चाहिए।।

जितना ज्यादा हो सके उतना शेयर करे।

मिडिया ग़लत हाथ में है इसलिए वो लोग ग़लत जानकारी लोगो तक पहुचाते है।

लेकिन मोबाइल फ़ोन हमारे हाथ में हैं इसलिए हमें सही जानकारी फैलानी होगी।

अल्लाह ता'ला हमारे इमान व मज़हब की इसी तरह हिफाज़त करता रहे।।

आमीन।।

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