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Thursday, 27 February 2025

Amir Subhani , मुस्लिम विद्वान।



**शीर्षक: अमीर सुब्हानी और बिहार के मुस्लिम समाज में औपनिवेशिक विरासत का प्रभाव**  

**परिचय**  
अमीर सुब्हानी बिहार के एक जाने-माने मुस्लिम विद्वान और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस) हैं। उन्होंने राज्य और केंद्र सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया है, जिसमें गृह विभाग और शिक्षा से जुड़ी भूमिकाएँ शामिल हैं। हालाँकि, उनके लंबे करियर के बावजूद, बिहार के मुस्लिम समाज के विकास में उनके योगदान पर सवाल उठाए जाते रहे हैं। यह लेख उनके जीवन और करियर के माध्यम से भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था तथा औपनिवेशिक शिक्षा मॉडल के प्रभाव को समझने का प्रयास करता है।  

**औपनिवेशिक शिक्षा और ब्यूरोक्रेसी की विरासत**  
भारत की वर्तमान शिक्षा और प्रशासनिक प्रणाली अंग्रेजों द्वारा थोपे गए "मैकाले मॉडल" पर आधारित है, जिसका उद्देश्य स्थानीय समाज को नियंत्रित करने के लिए एक ऐसा वर्ग तैयार करना था जो औपनिवेशिक हितों का संरक्षक बने। यह प्रणाली समाज की जरूरतों से कटी हुई थी और आज भी इसका प्रभाव दिखाई देता है। मुस्लिम समुदाय, विशेषकर बिहार जैसे पिछड़े राज्य में, इस व्यवस्था से अलग-थलग रह गया। शिक्षा और नौकरशाही में सफल होने वाले व्यक्ति अक्सर समुदाय की मूल समस्याओं—जैसे शिक्षा का अभाव, आर्थिक पिछड़ापन, और सामाजिक भेदभाव—से दूर हो जाते हैं।  

**अमीर सुब्हानी: सिस्टम का एक उत्पाद?**  
अमीर सुब्हानी ने अपने करियर में कई उच्च पद संभाले, जिनमें बिहार सरकार के प्रधान सचिव का पद भी शामिल है। उनकी प्रशासनिक कुशलता और निष्ठा सराहनीय रही है। हालाँकि, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या उन्होंने अपने पद का उपयोग बिहार के मुस्लिम समाज की बुनियादी चुनौतियों को हल करने के लिए किया? उदाहरण के लिए, बिहार के मुस्लिम बहुल इलाकों में शिक्षा का स्तर, रोजगार के अवसर, और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर कोई ठोस पहल देखने को नहीं मिलती। यह स्थिति केवल सुब्हानी तक सीमित नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का प्रतिबिंब है जो अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है।  

**समुदाय और सिस्टम के बीच खाई**  
सुब्हानी का करियर इस विरोधाभास को उजागर करता है कि एक व्यक्ति सिस्टम के भीतर सफल होते हुए भी समुदाय के लिए कितना बदलाव ला पाता है। नौकरशाही व्यवस्था की प्राथमिकताएँ अक्सर नीतिगत ढाँचे तक सीमित होती हैं, जिसमें सामुदायिक सशक्तिकरण के लिए रचनात्मक पहलों की गुंजाइश कम होती है। इसके अलावा, औपनिवेशिक शिक्षा मॉडल ने एक ऐसा वर्ग पैदा किया है जो "सिस्टम को चलाने" में तो माहिर है, लेकिन समाज को "बदलने" की पहल से दूर रहता है।  

**निष्कर्ष: व्यवस्थागत परिवर्तन की आवश्यकता**  
अमीर सुब्हानी का उदाहरण हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि केवल व्यक्तिगत सफलता समुदाय के विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। आवश्यकता एक ऐसी शिक्षा और प्रशासनिक व्यवस्था की है जो स्थानीय जरूरतों के प्रति संवेदनशील हो। बिहार के मुस्लिम समाज को आगे बढ़ाने के लिए औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होकर, समावेशी नीतियों और सामुदायिक भागीदारी पर जोर देना होगा। तभी सुब्हानी जैसे पढ़े-लिखे विद्वानों का जीवन समाज के लिए प्रेरणा बन सकता है।  

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यह लेख व्यवस्थागत समीक्षा पर केंद्रित है और किसी व्यक्ति विशेष के योगदान को कम नहीं आँकता। बल्कि, यह उन चुनौतियों को रेखांकित करता है जो औपनिवेशिक विरासत और आधुनिक प्रशासनिक ढाँचे के बीच संघर्ष से पैदा होती हैं।



**शीर्षक: अमीर सुब्हानी, तबलीगी जमात और भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिम पहचान का संदर्भ**  

**परिचय**  
अमीर सुब्हानी बिहार की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में एक प्रमुख चेहरा रहे हैं। उनकी पहचान न केवल एक कुशल आईएएस अधिकारी के रूप में, बल्कि एक ऐसे मुस्लिम विद्वान के तौर पर भी है जो अपनी धार्मिक आस्था और तबलीगी जमात से जुड़ाव को लेकर सार्वजनिक रूप से जाने जाते हैं। चेहरे पर दाढ़ी और इस्लामी जीवनशैली के प्रति उनकी प्रतिबद्धता उनकी धार्मिक पहचान को स्पष्ट करती है। यह लेख भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर मुस्लिम नेतृत्व की भूमिका, उनकी धार्मिक पहचान और राजनीतिक समीकरणों के बीच तनाव को समझने का प्रयास करता है।  

**तबलीगी जमात से जुड़ाव: समाज और राजनीति के बीच**  
तबलीगी जमात, जिसे इस्लामी सुधार और धार्मिक प्रचार का एक वैश्विक आंदोलन माना जाता है, भारत के मुस्लिम समाज में गहरी पैठ रखता है। अमीर सुब्हानी का इस आंदोलन से जुड़ाव उनकी धार्मिक मान्यताओं को दर्शाता है। हालाँकि, यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या प्रशासनिक व्यवस्था में रहते हुए उनकी यह धार्मिक पहचान बिहार के मुस्लिम समाज के विकास में सकारात्मक भूमिका निभा पाई? तबलीगी जमात का मुख्य फोकस धार्मिक शिक्षा और व्यक्तिगत सुधार पर होता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण या शैक्षणिक प्रगति जैसे मुद्दों पर इसकी भूमिका सीमित रही है। सुब्हानी के मामले में भी, उनका धार्मिक जुड़ाव समाज के व्यापक हितों से जुड़े ठोस प्रयासों में तब्दील नहीं हुआ।  

**लोकतंत्र और मुस्लिम पहचान: विरोधाभास या सामंजस्य?**  
भारतीय लोकतंत्र की ताकत यह है कि यह विविधताओं को समेटते हुए चलता है। अमीर सुब्हानी जैसे व्यक्तित्व इसका उदाहरण हैं—एक तरफ उनकी खुली इस्लामी पहचान (जैसे दाढ़ी और धार्मिक जीवनशैली), दूसरी तरफ लोकतांत्रिक संस्थाओं में उनकी सक्रियता। परंतु, यहाँ एक बड़ा सवाल यह है कि क्या यह पहचान समाज के लिए एक "संदेश" बन पाई? क्या सुब्हानी जैसे लोगों ने भारतीय मुसलमानों को यह विश्वास दिलाया कि लोकतंत्र और धार्मिक पहचान साथ-साथ चल सकते हैं?  

**नीतीश कुमार के साथ निकटता: राजनीतिक अवसर या सीमाएँ?**  
अमीर सुब्हानी की नीतीश कुमार सरकार के साथ निकटता एक महत्वपूर्ण पहलू है। नीतीश कुमार ने बिहार में पिछड़े वर्गों, विशेषकर महिलाओं और अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए कई योजनाएँ चलाईं। परंतु, सुब्हानी के प्रशासनिक कार्यकाल में बिहार के मुस्लिम समुदाय—खासकर शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के मोर्चे पर—कोई ठोस बदलाव नजर नहीं आया। क्या यह इसलिए कि प्रशासनिक व्यवस्था में धार्मिक पहचान रखने वाले व्यक्ति भी "सिस्टम के नियमों" से बंधे होते हैं? या फिर, राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच के समीकरण समुदाय-विशेष के हितों को पीछे धकेल देते हैं?  

**संदेश: पहचान से आगे, सामूहिक प्रयास की जरूरत**  
अमीर सुब्हानी का जीवन दो संदेश देता है:  
1. **धार्मिक पहचान और लोकतंत्र का सहअस्तित्व**: भारतीय लोकतंत्र में मुसलमानों के लिए धार्मिक पहचान और राष्ट्रीय कर्तव्य के बीच संतुलन बनाना संभव है।  
2. **व्यवस्थागत सीमाएँ**: केवल व्यक्तिगत पहचान या राजनीतिक संपर्क समुदाय के विकास के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इसके लिए सामूहिक प्रयास, नीतिगत बदलाव और सामाजिक जागरूकता आवश्यक है।  

**निष्कर्ष: पहचान से परे, समाधान की ओर**  
अमीर सुब्हानी की कहानी हमें यह याद दिलाती है कि भारतीय मुसलमानों को केवल प्रतीकात्मक पहचान या व्यक्तिगत सफलता से आगे बढ़कर सोचना होगा। तबलीगी जमात जैसे आंदोलन धार्मिक एकजुटता तो दे सकते हैं, लेकिन शिक्षा, आर्थिक स्वावलंबन और राजनीतिक प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों पर समुदाय को अपनी आवाज मजबूती से उठानी होगी। साथ ही, लोकतांत्रिक व्यवस्था में बैठे हुए नेता और अधिकारियों को यह समझना होगा कि उनकी सफलता तभी सार्थक है जब वह समाज के सबसे कमजोर तबके तक पहुँच बना सके।  

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यह लेख किसी व्यक्ति या संगठन की आलोचना नहीं, बल्कि व्यवस्था और समाज के बीच के अंतर्विरोधों को समझने का प्रयास है। भारतीय मुस्लिम समाज को आगे बढ़ने के लिए धार्मिक पहचान और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच सामंजस्य बनाते हुए सामूहिक प्रगति पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

Tuesday, 18 February 2025

मुस्लिम युवा और तथाकथित मुस्लिम तंजीम से मुक्ति ।






मिल्लत के नौजवानों के लिए नई सोच और नया मिशन

मुस्लिम समाज इस वक्त एक ऐसी आग की तरह है, जो फिलहाल चूल्हे में बुझी पड़ी है। इसकी चिंगारी अभी बाकी है, और इसे बुझने से बचाने के लिए लगातार फूंक मारते रहना ज़रूरी है। जैसे NRC के वक्त हमने अपनी कोशिशों से उस आग को जलाया था, वैसे ही अगर सही दिशा में प्रयास किए जाएँ, तो यह चिंगारी फिर से शोले में बदल सकती है।

मगर एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि जब भी यह आग जलने लगती है, कुछ तथाकथित तंज़ीमें इसे बुझाने के लिए अपने हथकंडे अपनाने लगती हैं। यह हमेशा से होता आया है, और अगर हम इसे नहीं समझेंगे, तो आने वाले समय में भी यही स्थिति बनी रहेगी। इसलिए ज़रूरी है कि मिल्लत के नौजवान इन तंज़ीमों की असलियत को पहचानें, समाज को समझाएँ और अपने संघर्ष को सही दिशा दें।


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खामोशी से बाहर निकलने का वक्त

मिल्लत का एक बड़ा तबका आज खामोश है। कभी जो नौजवान बदलाव की उम्मीद लेकर निकले थे, वे आज हालात के सामने बेबस नज़र आ रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि यह खामोशी डर की वजह से आई है या यह एक नई रणनीति की खोज है?

हमें यह समझना होगा कि खामोशी हमेशा कमजोरी की निशानी नहीं होती, बल्कि कभी-कभी यह एक नए तूफान से पहले की शांति होती है। लेकिन अगर यह खामोशी सिर्फ थकान और निराशा का नतीजा है, तो इसे तोड़ना होगा। हमें यह तय करना होगा कि हम सिर्फ प्रतिक्रिया देने तक सीमित रहेंगे, या फिर खुद से एक मज़बूत बदलाव की शुरुआत करेंगे।


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नौजवानों के संघर्ष को नई दिशा देने की ज़रूरत

अगर हमें मिल्लत के युवाओं को फिर से सक्रिय करना है, तो हमें केवल विरोध और नारों से आगे बढ़कर एक मज़बूत रणनीति तैयार करनी होगी।

1. संगठित होना होगा

नौजवानों को बिखराव से बचाना होगा। अगर वे एक संगठित और मज़बूत संगठन के साथ जुड़ेंगे, तो उनकी ताकत कई गुना बढ़ जाएगी।

2. मीडिया और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल

मुख्यधारा का मीडिया अगर हमारी आवाज़ को दबा रहा है, तो हमें अपने मीडिया प्लेटफॉर्म खड़े करने होंगे। यही वजह है कि हमारी टीम रमज़ान के बाद "SOCIAL NETWORK" नाम से एक नया मीडिया स्टेप लॉन्च करने जा रही है।

3. शिक्षा और रोजगार पर ध्यान देना

अगर हमारी कौम खुद को मज़बूत नहीं करेगी, तो बाहरी ताकतें हमें कमजोर करने में सफल होंगी। इसलिए हमें अपने युवाओं को तकनीकी शिक्षा, व्यापार और नए क्षेत्रों में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना होगा।

4. राजनीति में भागीदारी

मिल्लत के नौजवानों को यह समझना होगा कि सिर्फ नारों और सोशल मीडिया पर गुस्सा निकालने से कुछ नहीं बदलेगा। हमें नीतियों को समझना होगा, राजनीति में भाग लेना होगा, और अपने अधिकारों के लिए प्रभावी तरीके से संघर्ष करना होगा।

5. धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व को मज़बूत करना

अगर हमारा नेतृत्व खुद भ्रमित होगा, तो नौजवानों को सही दिशा नहीं मिल पाएगी। हमें अपने धार्मिक और सामाजिक संस्थानों को भी इस बदलाव में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करना होगा।


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SOCIAL NETWORK – मिल्लत के लिए एक नई पहल

हमारी टीम एक नए मीडिया प्लेटफॉर्म "SOCIAL NETWORK" की शुरुआत करने जा रही है, जो सिर्फ खबरों और बयानों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसे मिल्लत के हर क्षेत्र में जागरूकता फैलाने का एक मज़बूत माध्यम बनाया जाएगा।

इसके प्रमुख लक्ष्य होंगे:

युवाओं को सही और निष्पक्ष जानकारी देना

शिक्षा, रोजगार और कानूनी जागरूकता को बढ़ावा देना

जमीनी स्तर पर एक मजबूत नेटवर्क बनाना

मुख्यधारा के मीडिया के मुकाबले एक वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना


यह कोई छोटी पहल नहीं होगी, बल्कि एक बड़े और मज़बूत लक्ष्य के साथ आगे बढ़ेगी। आप सभी से अनुरोध है कि इस मिशन में सहयोग करें और इसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान दें।


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अब खामोशी नहीं, एक नए संघर्ष की शुरुआत!

अब यह समय ठहरने या सिर्फ प्रतिक्रियाएँ देने का नहीं है। अब यह समय खुद से बदलाव लाने का है। हमें अपने प्रयासों को छोटे-बड़े स्तर पर लगातार जारी रखना होगा।

मिल्लत के नौजवानों को इस धुएँ से अलग हटकर उम्मीद की हवा में जलते रहना होगा। क्योंकि अगर आग जलती रहेगी, तो रोशनी भी कायम रहेगी और ज़ुल्म के अंधेरे को खत्म भी किया जा सकेगा।

अब खामोशी को तोड़ने का वक्त आ गया है!
अब हमें आगे बढ़ना होगा!
अब हमें संगठित होना होगा!
अब हमें बदलाव की राह पर चलना होगा!

आप सभी से दुआ और सहयोग की गुज़ारिश है। इंशाअल्लाह, मिल्लत का भविष्य उज्जवल होगा!


1983 मुस्लिम नेल्ली नरसंहार एक दुखद अध्याय असम के इतिहास ।



नमंगली 1983 में नेल्ली (Assam) में हुआ नरसंहार एक अत्यंत दुखद और महत्वपूर्ण घटना थी। इस नरसंहार में हजारों मुसलमानों की हत्या हुई, और यह घटना असम की राजनीति और सामाजिक तनाव के कारण सामने आई थी।

1983 के नेल्ली नरसंहार का मुख्य कारण उस समय के असम आंदोलन से जुड़ी राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ थीं। इस आंदोलन का उद्देश्य असम में विदेशी घुसपैठ को रोकना था, जिसमें विशेष रूप से बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों को निशाना बनाया गया था। इस दौरान एक अफवाह फैल गई कि लाखों अवैध प्रवासी मतदाता के रूप में पंजीकृत हैं, जिससे एक भय और घृणा का माहौल पैदा हुआ।

घटना का विवरण:

तारीख: 18-19 फरवरी 1983

स्थल: नेल्ली, असम

मृतकों की संख्या: अनुमानित 2,000 से अधिक मुसलमान मारे गए थे, हालांकि कुछ रिपोर्टों में यह संख्या 10,000 से अधिक बताई जाती है।

कारण: असम आंदोलन और विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ चल रही राजनीति। इस घटना को उस समय के कुछ कट्टरपंथी संगठनों ने आयोजित किया, जो मानते थे कि मुस्लिम समुदाय असम में अवैध तरीके से बसने वाले बांग्लादेशी प्रवासी हैं।

घटनाक्रम: अफवाह फैलने के बाद, हिंसक भीड़ ने स्थानीय मुस्लिम आबादी को निशाना बनाना शुरू किया। अधिकांश हत्याएं अवैध प्रवासियों के खिलाफ थीं, जो मुस्लिम समुदाय से संबंधित थे।


इस नरसंहार की व्यापक आलोचना की गई थी और इसे असमिया समाज में मुस्लिमों के खिलाफ घृणा और भेदभाव की एक भयावह मिसाल माना गया। इसके परिणामस्वरूप, असम समझौता (1985) हुआ, जिसमें इस तरह के मुद्दों को सुलझाने के लिए सरकार और विभिन्न समुदायों के बीच समझौता हुआ।

नेल्ली नरसंहार को लेकर अभी भी असम और भारत के विभिन्न हिस्सों में विवाद है, खासकर जब यह मुद्दा मतदाता पंजीकरण और अवैध प्रवासियों के संदर्भ में सामने आता है।


Sunday, 16 February 2025

भारतीय मुस्लिम समाज की 6 पार्टियां ।


भारत में सक्रिय 6 प्रमुख मुस्लिम राजनीतिक पार्टियाँ:

1. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) – असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व में।


2. इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) – केरल में प्रभावी, 1948 में स्थापित।


3. ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (AIUDF) – असम में बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व में।


4. पीस पार्टी ऑफ इंडिया (PPI) – उत्तर प्रदेश में मुस्लिम और दलित राजनीति पर केंद्रित।


5. सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (SDPI) – पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) से जुड़ी मानी जाती है।


6. मजलिस-ए-मुशावरत और अन्य क्षेत्रीय मुस्लिम संगठन – तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में सक्रिय।



ये पार्टियाँ अलग-अलग राज्यों और मुद्दों पर केंद्रित हैं, जिनमें मुस्लिम समुदाय की राजनीतिक और सामाजिक समस्याएँ शामिल हैं।


Friday, 14 February 2025

हजरत मोहानी और संविधान।

मौलाना हसरत मोहानी: स्वतंत्रता संग्राम के सिद्धांतवादी योद्धा और भारतीय संविधान

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे महानायक हुए, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी देश की आज़ादी और सामाजिक न्याय के लिए समर्पित कर दी। इन्हीं में से एक थे मौलाना हसरत मोहानी—एक स्वतंत्रता सेनानी, शायर, पत्रकार, और समाजवादी विचारक। उन्होंने जहां "इंकलाब जिंदाबाद" का नारा दिया, वहीं भारतीय संविधान को लेकर भी अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया।


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मौलाना हसरत मोहानी: एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व

जन्म: 1 जनवरी 1875, उन्नाव, उत्तर प्रदेश

मृत्यु: 13 मई 1951


मौलाना हसरत मोहानी का असली नाम सैयद फज़ल उल हसन था। वे एक विद्वान, कट्टर स्वतंत्रता सेनानी और एक प्रखर लेखक थे। उनके लेखन और भाषणों ने ब्रिटिश सरकार को इतना परेशान किया कि उन्हें कई बार जेल भेजा गया। 1921 में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार "पूर्ण स्वराज" की मांग की थी, जो बाद में कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य बना।

वे भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू साहित्य और क्रांतिकारी राजनीति के संगम का एक महत्वपूर्ण चेहरा थे। उनकी ग़ज़ल "चुपके चुपके रात दिन" आज भी लोकप्रिय है।


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संविधान सभा और मौलाना हसरत मोहानी की भूमिका

भारत की स्वतंत्रता के बाद जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो मौलाना हसरत मोहानी इसके सदस्य बने। लेकिन जब संविधान का अंतिम मसौदा तैयार हुआ, तो उन्होंने उस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। इसके पीछे कई कारण थे:

1. संविधान का स्वरूप: वे एक ऐसे संविधान के पक्षधर थे, जो अधिक न्यायसंगत, गरीबों के अनुकूल और पूर्ण स्वराज की अवधारणा को समाहित करता। उनका मानना था कि भारतीय संविधान ब्रिटिश शासन के ढांचे को पूरी तरह नहीं तोड़ पाया।


2. धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक स्वतंत्रता: वे चाहते थे कि सभी धार्मिक समुदायों को अपने धार्मिक कानूनों के पालन की अधिक स्वतंत्रता मिले। वे इस बात पर जोर देते थे कि संविधान को इस्लामी कानूनों के प्रति अधिक सहिष्णु होना चाहिए, लेकिन वे किसी विशेष प्रावधान के सीधे विरोध या समर्थन में सक्रिय नहीं थे।


3. पूंजीवाद के खिलाफ रुख: वे समाजवाद के समर्थक थे और मानते थे कि संविधान में श्रमिकों और किसानों के अधिकारों को और मजबूती से शामिल किया जाना चाहिए।


4. सरकारी भत्तों का विरोध: उन्होंने सरकारी वेतन और सुविधाओं को अस्वीकार कर दिया। वे संसद आने के लिए साझा तांगे का उपयोग करते थे और सरकारी आवास के बजाय मस्जिद में रहते थे।


5. ब्रिटिश प्रभाव का विरोध: मौलाना मोहानी इस बात से असंतुष्ट थे कि संविधान में अभी भी कई ब्रिटिश कानूनी प्रथाओं का प्रभाव था। वे भारत के लिए पूरी तरह स्वदेशी, स्वतंत्र और क्रांतिकारी संविधान चाहते थे।




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संविधान पर हस्ताक्षर करने से इनकार: एक साहसिक कदम

जब भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया गया, तो जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह संविधान भारत के भविष्य को दिशा देगा। लेकिन मौलाना हसरत मोहानी ने अपने सिद्धांतों से समझौता करने से इंकार कर दिया और अंतिम मसौदे पर हस्ताक्षर नहीं किए।

उनका यह फैसला कोई व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं था, बल्कि उनकी विचारधारा और संघर्ष का हिस्सा था। उनका मानना था कि यह संविधान भारत को उस दिशा में नहीं ले जा पाएगा, जिसकी उन्होंने कल्पना की थी।


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निष्कर्ष: मौलाना हसरत मोहानी की विरासत

मौलाना हसरत मोहानी एक ऐसे योद्धा थे, जो कभी सत्ता और लाभ के लिए नहीं झुके। उन्होंने आज़ादी के लिए संघर्ष किया, संविधान सभा में अपनी असहमति दर्ज कराई और जीवनभर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाते रहे।

वे "इंकलाब जिंदाबाद" के वास्तविक जनक थे, जो बाद में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के संघर्ष का प्रतीक बन गया।

वे साहित्य, राजनीति और समाज सुधार तीनों मोर्चों पर संघर्ष करने वाले विरले व्यक्तित्वों में से थे।

उनकी ग़ज़लें आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं, और उनकी विचारधारा से प्रेरणा लेने वालों की कमी नहीं है।


आज भी उनका योगदान हमें याद दिलाता है कि सच्चा क्रांतिकारी वही होता है, जो अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं करता।

"इंकलाब जिंदाबाद!" का नारा देने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी को भारत हमेशा याद रखेगा।


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अब मैं इस विषय से संबंधित एक नई इमेज तैयार करता हूँ।



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मौलाना हसरत मोहानी ने संविधान के अंतिम मसौदे पर हस्ताक्षर नहीं किए और इसके प्रावधानों से असहमति जताई। संविधान स्वीकृत होने के बाद उन्होंने इसे "अधूरी आज़ादी" बताया और कहा कि यह वास्तविक स्वतंत्रता का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि ब्रिटिश शासन के ढांचे का एक नया संस्करण है।

संविधान स्वीकृत होने के बाद मौलाना हसरत मोहानी की प्रतिक्रिया

संविधान को 26 नवंबर 1949 को स्वीकृत किया गया, लेकिन मौलाना हसरत मोहानी ने इस पर गंभीर आपत्ति जताई और कहा:

1. यह संविधान जनता के अधिकारों की पूरी तरह रक्षा नहीं करता।

वे मानते थे कि यह संविधान पूंजीवादी और अभिजात्य वर्ग के हितों की रक्षा करता है, जबकि किसानों, मजदूरों और गरीबों के अधिकारों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।



2. ब्रिटिश प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है।

उन्होंने कहा कि यह संविधान ब्रिटिश शासन के कई कानूनों और ढांचों को बनाए रखता है, जिससे सही मायनों में भारत की संप्रभुता और स्वराज स्थापित नहीं हो पाता।



3. धार्मिक स्वतंत्रता और इस्लामी कानूनों के प्रति असंतोष।

वे मानते थे कि मुस्लिम समुदाय को अपने धार्मिक कानूनों के पालन की अधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए थी, लेकिन संविधान में इसे लेकर संतुलन नहीं बनाया गया।




संविधान पर उनका ऐतिहासिक बयान:

संविधान स्वीकृत होने के बाद, मौलाना हसरत मोहानी ने कहा था:

> "यह संविधान हमारी असली आज़ादी को प्रतिबिंबित नहीं करता। यह केवल सत्ता के हस्तांतरण का एक नया रूप है, जिसमें शोषित वर्गों की आवाज़ को दबाया गया है।"



> "जब तक इस संविधान में आम जनता—विशेष रूप से किसान और मजदूरों—के लिए सही मायनों में स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित नहीं की जाती, तब तक यह हमारे सपनों का संविधान नहीं हो सकता।"



उनका अंतिम पक्ष और विरोध का स्वरूप

मौलाना हसरत मोहानी संविधान के कुछ बुनियादी प्रावधानों से नाखुश थे, लेकिन उन्होंने संसदीय प्रणाली को पूरी तरह खारिज नहीं किया। वे स्वतंत्र भारत में भी एक सच्चे समाजवादी और क्रांतिकारी बने रहे, और संविधान के तहत जारी प्रशासन की लगातार आलोचना करते रहे।

उनका यह साहसिक रुख भारतीय इतिहास में अद्वितीय है, क्योंकि उन्होंने सत्ता या राजनीतिक पदों की परवाह किए बिना सिर्फ अपने सिद्धांतों के आधार पर निर्णय लिया।



Thursday, 13 February 2025

कोरोना वायरस एक षडयंत्र और एक सीजनल फ्लू ?


2019 का कोरोना वायरस और 2025 का सीजनल फ्लू: एक विश्लेषण ।

एक षड्यंत्र या संयोग?

2019 में कोरोना वायरस (COVID-19) के प्रकोप ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया। महामारी के नाम पर लॉकडाउन, मास्क, वैक्सीन, और सामाजिक प्रतिबंधों ने न केवल आम जनता के जीवन को प्रभावित किया, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक ढांचे को भी हिला दिया। कई लोगों का मानना है कि यह एक प्राकृतिक वायरस नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित षड्यंत्र था जिसका उद्देश्य दुनिया को नियंत्रित करना और वैश्विक शक्तियों को मजबूत करना था।

अब, 2025 में, जब दुनिया धीरे-धीरे सामान्य हो रही है, एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है— सीजनल फ्लू। सर्दी, खांसी, बुखार और सांस की तकलीफ के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन इसे सिर्फ एक "मौसमी बीमारी" बताकर नजरअंदाज किया जा रहा है। क्या यह सच में एक आम फ्लू है, या फिर यह 2019 की तरह ही एक और प्रयोगात्मक षड्यंत्र है?


⚫ 2019 में कोरोना वायरस: जनता पर नियंत्रण का हथियार?

अगर हम 2019-2021 के दौर को देखें, तो साफ नजर आता है कि COVID-19 के कारण:

1. दुनिया भर में सरकारों ने अपने नागरिकों पर नियंत्रण स्थापित किया।


2. बड़े कॉरपोरेट और फार्मा कंपनियों ने भारी मुनाफा कमाया।


3. डिजिटल ट्रैकिंग और डेटा निगरानी के नए तरीके लागू हुए।


4. मध्यम और छोटे व्यापारियों को भारी नुकसान हुआ, जिससे सिर्फ बड़ी कंपनियों को फायदा मिला।



⬛ ऐसे में कई लोग मानते हैं कि यह सिर्फ एक स्वास्थ्य संकट नहीं था, बल्कि एक "जैविक युद्ध" था जिसे वैश्विक सत्ता संतुलन बदलने के लिए इस्तेमाल किया गया।


2025 में सीजनल फ्लू: एक नई लहर या नई साजिश?

आज हम देख रहे हैं कि दुनियाभर में लोगों को सर्दी-खांसी, बुखार और अन्य फ्लू जैसी बीमारियों से जूझना पड़ रहा है। लेकिन इस बार इसे "सीजनल फ्लू" का नाम दिया जा रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि 2019 में जब कोरोना वायरस फैलना शुरू हुआ था, तब भी लक्षण लगभग ऐसे ही थे।

तो सवाल उठता है:

▪️क्या 2025 का सीजनल फ्लू एक नया जैविक प्रयोग है?

▪️क्या इसे एक नए महामारी चक्र के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है?

▪️क्या यह भी किसी बड़े राजनीतिक और आर्थिक बदलाव की भूमिका बना रहा है?


कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, कई देशों में सरकारें और स्वास्थ्य एजेंसियां एक नए "फ्लू वैरिएंट" की चेतावनी दे रही हैं। क्या यह लोगों को फिर से डराने और स्वास्थ्य संबंधी नए प्रतिबंध लगाने की रणनीति हो सकती है?


निष्कर्ष: सतर्क रहने की जरूरत ।

2019-2021 के दौर ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बड़े स्तर पर आम जनता को भ्रमित करना, डराना और नियंत्रित करना आसान है। अब 2025 में अगर एक नई बीमारी को "सीजनल फ्लू" के नाम पर सामान्य बनाया जा रहा है, तो यह सोचने का विषय है। हमें सतर्क रहना होगा, जानकारी इकट्ठी करनी होगी, और यह समझना होगा कि क्या यह सच में एक प्राकृतिक घटना है या फिर एक और साजिश।

सवाल यह है: क्या हम फिर से वही गलती दोहराएंगे, या इस बार जागरूक होकर सही निर्णय लेंगे?

Wednesday, 12 February 2025

जमीयते उलमाए हिंद सियासत से अलग होना एक विशेषण।



भारतीय संविधान, जमीयत उलेमा-ए-हिंद का फैसला और डॉ. अंबेडकर की चेतावनी: एक ऐतिहासिक समीक्षा

भूमिका

भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल अंग्रेज़ी शासन से आज़ादी का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक नई सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना का भी आंदोलन था। 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान को स्वीकृत किया गया, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। यह संविधान भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद बना, लेकिन इसके साथ ही एक बड़ा सवाल खड़ा हुआ—क्या नई व्यवस्था में सभी समुदायों ने अपनी भूमिका को ठीक से समझा?

इस संदर्भ में, जमीयत उलेमा-ए-हिंद (JUH) द्वारा 27 दिसंबर 1949 को राजनीति से अलग होने का फैसला ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। यह निर्णय ठीक उस समय लिया गया जब भारत एक नई संवैधानिक व्यवस्था की ओर बढ़ रहा था। इस लेख में हम इस निर्णय के दूरगामी प्रभावों और डॉ. भीमराव अंबेडकर की विचारधारा के संदर्भ में इसकी समीक्षा करेंगे।


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जमीयत उलेमा-ए-हिंद का राजनीति से अलग होने का फैसला

जमीयत उलेमा-ए-हिंद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख संगठन था, जिसने महात्मा गांधी और कांग्रेस के साथ मिलकर आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद, भारतीय मुसलमानों के सामने नए सामाजिक और राजनीतिक सवाल खड़े हुए।

27 दिसंबर 1949 को रामपुर (उत्तर प्रदेश) में जमीयत के वार्षिक अधिवेशन में मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने घोषणा की कि जमीयत अब सक्रिय राजनीति से अलग होगी और केवल धार्मिक, शैक्षिक और सामाजिक कार्यों पर ध्यान देगी।

यह निर्णय एक ऐसे समय में लिया गया जब भारतीय संविधान स्वीकृत हो चुका था, और देश एक नई लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर बढ़ रहा था। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह फैसला सही था? क्या भारतीय मुस्लिम नेतृत्व को उस समय राजनीति में सक्रिय रहना चाहिए था?


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डॉ. अंबेडकर की चेतावनी और संवैधानिक संघर्ष

जब संविधान तैयार हो रहा था, तब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि संविधान की सफलता केवल कागजी नहीं होगी, बल्कि इसे सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर लागू करने की जरूरत होगी। उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर लोग केवल संविधान को अंतिम समाधान मानकर बैठ जाएंगे, तो सामाजिक अन्याय और असमानता बनी रहेगी।

डॉ. अंबेडकर ने कहा था:
"हमने संविधान तो बना लिया है, लेकिन यह सिर्फ एक कागज़ी दस्तावेज़ नहीं होना चाहिए। अगर समाज इसे आत्मसात नहीं करता, तो इसका कोई महत्व नहीं रहेगा।"

उन्होंने आगे कहा कि संविधान को लागू करने के लिए सतत संघर्ष की आवश्यकता होगी। लेकिन इसके विपरीत, जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने राजनीति से दूरी बनाने का फैसला कर लिया।

अगर हम अंबेडकर की दृष्टि से देखें, तो जमीयत का यह निर्णय एक अहमकाना (बेवकूफी भरा) कदम था, क्योंकि यह भारतीय मुस्लिम समुदाय को संवैधानिक संघर्ष में एक अहम शक्ति बनने से रोकने वाला था।


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क्या यह फैसला ऐतिहासिक भूल थी?

1. राजनीति से दूरी और मुस्लिम नेतृत्व का पतन

1949 में राजनीति से अलग होने के कारण भारतीय मुसलमानों के पास एक मजबूत नेतृत्व नहीं रहा, जो उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर सकता।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद अगर राजनीति में बनी रहती, तो वह मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक बेहतरी के लिए एक प्रभावशाली भूमिका निभा सकती थी।



2. संवैधानिक अवसरों का लाभ न उठाना

भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यकों को कई अधिकार दिए, लेकिन उन्हें प्रभावी बनाने के लिए राजनीतिक भागीदारी जरूरी थी।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने राजनीति से हटकर अपने समुदाय को संघर्ष से वंचित कर दिया।



3. डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण सही साबित हुआ

अंबेडकर का मानना था कि केवल संविधान लिख देने से समानता नहीं आएगी; इसके लिए समाज को लगातार जागरूक और सक्रिय रहना होगा।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद का निर्णय इसके विपरीत था, जिसने राजनीतिक संघर्ष को छोड़कर खुद को सीमित कर लिया।





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निष्कर्ष: इतिहास से सीखने की जरूरत

आज जब हम भारतीय लोकतंत्र और संविधान की 75 से अधिक वर्षों की यात्रा को देखते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीति से दूरी बनाना कभी भी किसी समुदाय के हित में नहीं होता। जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने जिस समय राजनीति से अलग होने का फैसला किया, वह समय वास्तव में संविधान को समझने, अपने अधिकारों को पहचानने और एक मजबूत नेतृत्व विकसित करने का था।

डॉ. अंबेडकर की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। भारतीय संविधान का केवल होना ही काफी नहीं, बल्कि इसे बचाने, लागू करने और सुधारने के लिए सतत संघर्ष की जरूरत है।

आज मुस्लिम समुदाय और अन्य वंचित वर्गों के लिए सबसे बड़ी सीख यही हो सकती है कि अगर वे अपने संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखना चाहते हैं, तो उन्हें राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्रिय रहना होगा।

संविधान एक हथियार है, लेकिन इसे चलाने के लिए मजबूत नेतृत्व और जागरूक समाज की जरूरत होती है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद का 1949 का फैसला हमें यही सिखाता है कि राजनीतिक भागीदारी से अलग होकर कोई भी समुदाय अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकता।


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क्या अब बदलाव संभव है?

आज के दौर में यह जरूरी हो गया है कि मुस्लिम समाज और अन्य हाशिए पर मौजूद समुदाय संविधान को केवल एक दस्तावेज़ न मानें, बल्कि उसे एक संघर्ष का माध्यम समझें। उन्हें राजनीति में सक्रिय भागीदारी करनी होगी, नेतृत्व विकसित करना होगा और संविधान की सुरक्षा के लिए डॉ. अंबेडकर के विचारों से सीख लेकर आगे बढ़ना होगा।

संविधान केवल तब तक मजबूत है, जब तक उसे लागू करने वाले लोग मजबूत हैं।


Tuesday, 11 February 2025

उत्तराखंड सरकार का UCC कानून पर हाईकोर्ट को लेकर अपडेट ।



वकील ने उत्तराखंड नागरिक संहिता को हाईकोर्ट में चुनौती दी; कहा प्रावधान मुस्लिम, LGBTQ समुदायों के प्रति भेदभावपूर्ण हैं।


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वकील ने उत्तराखंड नागरिक संहिता को हाईकोर्ट में चुनौती दी; कहा प्रावधान मुस्लिम, LGBTQ समुदायों के प्रति भेदभावपूर्ण हैं
द्वारा - लाइवलॉ न्यूज नेटवर्कअपडेट: 2025-02-11 08:42 GMT
राष्ट्रपति ने उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता को मंजूरी दी
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उत्तराखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर हाल ही में लागू किए गए 'समान नागरिक संहिता उत्तराखंड 2024' को चुनौती दी गई है, विशेष रूप से विवाह और तलाक और लिव-इन रिलेशनशिप को कवर करने वाले प्रावधानों को चुनौती देते हुए दावा किया गया है कि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। 

उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड विधानसभा द्वारा उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक, 2024 पारित किए जाने के लगभग एक वर्ष बाद, 27 जनवरी को उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू की। यह यूसीसी लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है।

एक अधिवक्ता द्वारा दायर याचिका में संहिता के कुछ हिस्सों को चुनौती दी गई है, विशेष रूप से संहिता के भाग-1 अर्थात विवाह और तलाक तथा भाग-3 अर्थात लिव-इन रिलेशनशिप के तहत प्रदान की गई धाराओं के साथ-साथ समान नागरिक संहिता नियम उत्तराखंड, 2025 को भी चुनौती दी गई है।

याचिका में कहा गया है कि यूसीसी उत्तराखंड, 2024 ने महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण व्यक्तिगत नागरिक मामलों से संबंधित विभिन्न चिंताओं पर अंकुश लगाया है, हालांकि ऐसे कई प्रावधान और नियम हैं जो राज्य में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं और उनकी निजता के अधिकार, जीवन के अधिकार का उल्लंघन करते हैं और बड़े अर्थों में "विवाह और अपने साथी को चुनने" पर निर्णय लेने में व्यक्तियों की स्वायत्तता के अधिकार को छीन लेते हैं।

इसमें कहा गया है कि ये प्रावधान मुस्लिम समुदाय के प्रति भेदभावपूर्ण हैं, क्योंकि ये विवाह और तलाक के संबंध में उनकी कुछ पारंपरिक प्रथाओं की अनदेखी करते हैं तथा उन पर हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों को थोपते हैं।

उदाहरण के लिए, यह दावा किया जाता है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 3(1)(जी) जो विवाह के लिए निषिद्ध संबंधों को परिभाषित करती है, उसे मुस्लिम और पारसी समुदायों पर लागू कर दिया गया है, जबकि इस तथ्य की अनदेखी की गई है कि एक पुरुष और उसके पिता की बहन की बेटी, एक पुरुष और उसके पिता के भाई की बेटी, एक पुरुष और उसके मामा की बेटी तथा एक पुरुष और उसकी मामा की बेटी के बीच विवाह पवित्र कुरान और पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के तहत निषिद्ध नहीं है।

याचिका में दावा किया गया है कि यह इन समुदायों के "प्रचलित रीति-रिवाजों, अधिकारों और प्रथाओं" की घोर अवहेलना है, जिन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित किया गया है।

यह ध्यान देने योग्य है कि यूसीसी में प्रावधान है कि विवाह के पक्षकार निषिद्ध संबंधों की श्रेणी में नहीं आएंगे, यदि उन्हें नियंत्रित करने वाली प्रथा दोनों के बीच विवाह की अनुमति देती है। हालांकि याचिका में कहा गया है कि धारा 4(iv) में प्रावधान है कि यदि कोई प्रथा निषिद्ध संबंधों के बीच विवाह की अनुमति देती है तो इसे पंजीकृत किया जा सकता है, लेकिन दूसरी ओर प्रावधान में एक और योग्यता प्रदान की गई है जिसमें कहा गया है कि इसे केवल तभी अनुमति दी जा सकती है जब यह "सार्वजनिक नीति और नैतिकता के विरुद्ध न हो"। याचिका में कहा गया है कि प्रावधान ऐसे विवाहों के पंजीकरण पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है। 

याचिका में कहा गया है कि नियम 9 (3) (ई) ii) में प्रयुक्त भाषा यह प्रावधान करती है कि केवल वे बहुविवाही विवाह, जिन्हें किसी कानून द्वारा अनुमति दी गई है, संहिता के तहत अपने आगे के विवाह को पंजीकृत कर सकते हैं, जबकि यह एक सर्वविदित तथ्य है कि वर्तमान कानूनी स्थिति के अनुसार, ऐसा कोई कानून नहीं है जो बहुविवाह की अनुमति देता हो; यह केवल मुसलमानों के रीति-रिवाज और प्रथाएं हैं जो बहुविवाह और कुछ रिश्तों (निषिद्ध डिग्री) के बीच विवाह की अनुमति देती हैं।

याचिका में कहा गया है, " इस प्रकार स्पष्ट रूप से, ये प्रावधान मनमानेपन और अविवेक के दोष से ग्रस्त हैं और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करते हैं और तथ्य यह है कि ये प्रावधान किसी व्यक्ति के पिछले लिव-इन संबंधों के संबंध में भी घोषणा की मांग करते हैं, जो समाप्त हो चुके हैं, जो निजता के अधिकार का घोर उल्लंघन है, जो भारत के संविधान के तहत जीवन के अधिकार का एक अनिवार्य हिस्सा है। " 

लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में याचिका में कहा गया है कि धारा 4 (बी) में कहा गया है कि केवल एक पुरुष और महिला जो "विवाह की प्रकृति" के रिश्ते के माध्यम से एक साझा घर में रहते हैं, बशर्ते कि उनका रिश्ता निषिद्ध संबंधों की श्रेणी में न आता हो, उन्हें लिव-इन रिलेशनशिप में कहा जाता है।

याचिका में दावा किया गया है कि अगर इस प्रावधान को शाब्दिक अर्थ में समझा जाए तो यह केवल "जैविक पुरुष या महिला" से संबंधित होगा, जिससे LGBTQ समुदाय से संबंधित व्यक्तियों को उनके लिव-इन संबंधों के पंजीकरण के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। यह LGBTQ समुदाय के साथ अनुचित व्यवहार होगा।

याचिका में आगे कहा गया है कि लिव-इन रिलेशनशिप की परिभाषा यह बताती है कि कौन इस तरह के रिश्ते में रह सकता है, लेकिन यह सहवास की न्यूनतम अवधि प्रदान करने में विफल रहता है, जो किसी रिश्ते को लिव-इन रिलेशनशिप मानने के लिए एक आवश्यक शर्त है। इसमें यह भी कहा गया है कि धारा के "केवल गैर-अनुपालन" के लिए निर्धारित दंड भी मनमाना और असंगत है। 

इसमें कहा गया है कि ऐसे मामलों में जहां लिव-इन रिलेशनशिप पंजीकृत नहीं हो सकती, उनमें वह भी शामिल है जहां एक व्यक्ति नाबालिग है और यह मनमाना है क्योंकि 21 वर्ष का पुरुष और 18 वर्ष की महिला एक-दूसरे से विवाह कर सकते हैं, लेकिन 21 वर्ष से कम आयु की महिला लिव-इन रिलेशनशिप में नहीं रह सकती, क्योंकि संहिता इसकी अनुमति नहीं देती। 

इसमें एक ऐसे परिदृश्य की ओर भी संकेत किया गया है, जिसमें दो व्यक्ति स्वयं को "रूममेट" बताते हैं तथा एक ही घर में रहते हैं, लेकिन एक साथ "सहवास" नहीं करते हैं, एक व्यक्ति की शिकायत पर रजिस्ट्रार द्वारा उन्हें उनके लिव-इन संबंध को पंजीकृत करने के लिए नोटिस दिया जाता है, तथा उन्हें लिव-इन संबंध न होने तथा केवल "रूममेट" होने के बारे में आवश्यक जानकारी प्रदान करने के लिए कहा जाता है।

याचिका में सवाल उठाया गया है कि क्या रजिस्ट्रार साक्ष्य की पुष्टि किए बिना सारांश जांच के माध्यम से कोई निर्णय ले सकता है। इसमें दावा किया गया है कि रजिस्ट्रार को संहिता के तहत यह पता लगाने के लिए अत्यधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं कि व्यक्ति लिव-इन रिलेशनशिप में हैं या नहीं, जो स्पष्ट रूप से संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है। 

यह 'निवासी' शब्द के दायरे को भी चुनौती देता है, जिस पर संहिता लागू होती है, जहां तक इसमें उत्तराखंड में एक निश्चित समयावधि के लिए निवास करने वाले अन्य राज्यों के स्थायी निवासी भी शामिल हैं।

7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓

सैयद नदीम द्वारा . 11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों ...