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Friday, 14 February 2025

हजरत मोहानी और संविधान।

मौलाना हसरत मोहानी: स्वतंत्रता संग्राम के सिद्धांतवादी योद्धा और भारतीय संविधान

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐसे महानायक हुए, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी देश की आज़ादी और सामाजिक न्याय के लिए समर्पित कर दी। इन्हीं में से एक थे मौलाना हसरत मोहानी—एक स्वतंत्रता सेनानी, शायर, पत्रकार, और समाजवादी विचारक। उन्होंने जहां "इंकलाब जिंदाबाद" का नारा दिया, वहीं भारतीय संविधान को लेकर भी अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया।


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मौलाना हसरत मोहानी: एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व

जन्म: 1 जनवरी 1875, उन्नाव, उत्तर प्रदेश

मृत्यु: 13 मई 1951


मौलाना हसरत मोहानी का असली नाम सैयद फज़ल उल हसन था। वे एक विद्वान, कट्टर स्वतंत्रता सेनानी और एक प्रखर लेखक थे। उनके लेखन और भाषणों ने ब्रिटिश सरकार को इतना परेशान किया कि उन्हें कई बार जेल भेजा गया। 1921 में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार "पूर्ण स्वराज" की मांग की थी, जो बाद में कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य बना।

वे भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू साहित्य और क्रांतिकारी राजनीति के संगम का एक महत्वपूर्ण चेहरा थे। उनकी ग़ज़ल "चुपके चुपके रात दिन" आज भी लोकप्रिय है।


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संविधान सभा और मौलाना हसरत मोहानी की भूमिका

भारत की स्वतंत्रता के बाद जब संविधान सभा का गठन हुआ, तो मौलाना हसरत मोहानी इसके सदस्य बने। लेकिन जब संविधान का अंतिम मसौदा तैयार हुआ, तो उन्होंने उस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। इसके पीछे कई कारण थे:

1. संविधान का स्वरूप: वे एक ऐसे संविधान के पक्षधर थे, जो अधिक न्यायसंगत, गरीबों के अनुकूल और पूर्ण स्वराज की अवधारणा को समाहित करता। उनका मानना था कि भारतीय संविधान ब्रिटिश शासन के ढांचे को पूरी तरह नहीं तोड़ पाया।


2. धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक स्वतंत्रता: वे चाहते थे कि सभी धार्मिक समुदायों को अपने धार्मिक कानूनों के पालन की अधिक स्वतंत्रता मिले। वे इस बात पर जोर देते थे कि संविधान को इस्लामी कानूनों के प्रति अधिक सहिष्णु होना चाहिए, लेकिन वे किसी विशेष प्रावधान के सीधे विरोध या समर्थन में सक्रिय नहीं थे।


3. पूंजीवाद के खिलाफ रुख: वे समाजवाद के समर्थक थे और मानते थे कि संविधान में श्रमिकों और किसानों के अधिकारों को और मजबूती से शामिल किया जाना चाहिए।


4. सरकारी भत्तों का विरोध: उन्होंने सरकारी वेतन और सुविधाओं को अस्वीकार कर दिया। वे संसद आने के लिए साझा तांगे का उपयोग करते थे और सरकारी आवास के बजाय मस्जिद में रहते थे।


5. ब्रिटिश प्रभाव का विरोध: मौलाना मोहानी इस बात से असंतुष्ट थे कि संविधान में अभी भी कई ब्रिटिश कानूनी प्रथाओं का प्रभाव था। वे भारत के लिए पूरी तरह स्वदेशी, स्वतंत्र और क्रांतिकारी संविधान चाहते थे।




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संविधान पर हस्ताक्षर करने से इनकार: एक साहसिक कदम

जब भारतीय संविधान को अंतिम रूप दिया गया, तो जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह संविधान भारत के भविष्य को दिशा देगा। लेकिन मौलाना हसरत मोहानी ने अपने सिद्धांतों से समझौता करने से इंकार कर दिया और अंतिम मसौदे पर हस्ताक्षर नहीं किए।

उनका यह फैसला कोई व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं था, बल्कि उनकी विचारधारा और संघर्ष का हिस्सा था। उनका मानना था कि यह संविधान भारत को उस दिशा में नहीं ले जा पाएगा, जिसकी उन्होंने कल्पना की थी।


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निष्कर्ष: मौलाना हसरत मोहानी की विरासत

मौलाना हसरत मोहानी एक ऐसे योद्धा थे, जो कभी सत्ता और लाभ के लिए नहीं झुके। उन्होंने आज़ादी के लिए संघर्ष किया, संविधान सभा में अपनी असहमति दर्ज कराई और जीवनभर समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाते रहे।

वे "इंकलाब जिंदाबाद" के वास्तविक जनक थे, जो बाद में भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के संघर्ष का प्रतीक बन गया।

वे साहित्य, राजनीति और समाज सुधार तीनों मोर्चों पर संघर्ष करने वाले विरले व्यक्तित्वों में से थे।

उनकी ग़ज़लें आज भी लोगों के दिलों में जीवित हैं, और उनकी विचारधारा से प्रेरणा लेने वालों की कमी नहीं है।


आज भी उनका योगदान हमें याद दिलाता है कि सच्चा क्रांतिकारी वही होता है, जो अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं करता।

"इंकलाब जिंदाबाद!" का नारा देने वाले इस महान स्वतंत्रता सेनानी को भारत हमेशा याद रखेगा।


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अब मैं इस विषय से संबंधित एक नई इमेज तैयार करता हूँ।



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मौलाना हसरत मोहानी ने संविधान के अंतिम मसौदे पर हस्ताक्षर नहीं किए और इसके प्रावधानों से असहमति जताई। संविधान स्वीकृत होने के बाद उन्होंने इसे "अधूरी आज़ादी" बताया और कहा कि यह वास्तविक स्वतंत्रता का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि ब्रिटिश शासन के ढांचे का एक नया संस्करण है।

संविधान स्वीकृत होने के बाद मौलाना हसरत मोहानी की प्रतिक्रिया

संविधान को 26 नवंबर 1949 को स्वीकृत किया गया, लेकिन मौलाना हसरत मोहानी ने इस पर गंभीर आपत्ति जताई और कहा:

1. यह संविधान जनता के अधिकारों की पूरी तरह रक्षा नहीं करता।

वे मानते थे कि यह संविधान पूंजीवादी और अभिजात्य वर्ग के हितों की रक्षा करता है, जबकि किसानों, मजदूरों और गरीबों के अधिकारों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।



2. ब्रिटिश प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है।

उन्होंने कहा कि यह संविधान ब्रिटिश शासन के कई कानूनों और ढांचों को बनाए रखता है, जिससे सही मायनों में भारत की संप्रभुता और स्वराज स्थापित नहीं हो पाता।



3. धार्मिक स्वतंत्रता और इस्लामी कानूनों के प्रति असंतोष।

वे मानते थे कि मुस्लिम समुदाय को अपने धार्मिक कानूनों के पालन की अधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए थी, लेकिन संविधान में इसे लेकर संतुलन नहीं बनाया गया।




संविधान पर उनका ऐतिहासिक बयान:

संविधान स्वीकृत होने के बाद, मौलाना हसरत मोहानी ने कहा था:

> "यह संविधान हमारी असली आज़ादी को प्रतिबिंबित नहीं करता। यह केवल सत्ता के हस्तांतरण का एक नया रूप है, जिसमें शोषित वर्गों की आवाज़ को दबाया गया है।"



> "जब तक इस संविधान में आम जनता—विशेष रूप से किसान और मजदूरों—के लिए सही मायनों में स्वतंत्रता और समानता सुनिश्चित नहीं की जाती, तब तक यह हमारे सपनों का संविधान नहीं हो सकता।"



उनका अंतिम पक्ष और विरोध का स्वरूप

मौलाना हसरत मोहानी संविधान के कुछ बुनियादी प्रावधानों से नाखुश थे, लेकिन उन्होंने संसदीय प्रणाली को पूरी तरह खारिज नहीं किया। वे स्वतंत्र भारत में भी एक सच्चे समाजवादी और क्रांतिकारी बने रहे, और संविधान के तहत जारी प्रशासन की लगातार आलोचना करते रहे।

उनका यह साहसिक रुख भारतीय इतिहास में अद्वितीय है, क्योंकि उन्होंने सत्ता या राजनीतिक पदों की परवाह किए बिना सिर्फ अपने सिद्धांतों के आधार पर निर्णय लिया।



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