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Wednesday, 12 February 2025

जमीयते उलमाए हिंद सियासत से अलग होना एक विशेषण।



भारतीय संविधान, जमीयत उलेमा-ए-हिंद का फैसला और डॉ. अंबेडकर की चेतावनी: एक ऐतिहासिक समीक्षा

भूमिका

भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल अंग्रेज़ी शासन से आज़ादी का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह एक नई सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना का भी आंदोलन था। 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान को स्वीकृत किया गया, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। यह संविधान भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद बना, लेकिन इसके साथ ही एक बड़ा सवाल खड़ा हुआ—क्या नई व्यवस्था में सभी समुदायों ने अपनी भूमिका को ठीक से समझा?

इस संदर्भ में, जमीयत उलेमा-ए-हिंद (JUH) द्वारा 27 दिसंबर 1949 को राजनीति से अलग होने का फैसला ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। यह निर्णय ठीक उस समय लिया गया जब भारत एक नई संवैधानिक व्यवस्था की ओर बढ़ रहा था। इस लेख में हम इस निर्णय के दूरगामी प्रभावों और डॉ. भीमराव अंबेडकर की विचारधारा के संदर्भ में इसकी समीक्षा करेंगे।


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जमीयत उलेमा-ए-हिंद का राजनीति से अलग होने का फैसला

जमीयत उलेमा-ए-हिंद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख संगठन था, जिसने महात्मा गांधी और कांग्रेस के साथ मिलकर आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद, भारतीय मुसलमानों के सामने नए सामाजिक और राजनीतिक सवाल खड़े हुए।

27 दिसंबर 1949 को रामपुर (उत्तर प्रदेश) में जमीयत के वार्षिक अधिवेशन में मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने घोषणा की कि जमीयत अब सक्रिय राजनीति से अलग होगी और केवल धार्मिक, शैक्षिक और सामाजिक कार्यों पर ध्यान देगी।

यह निर्णय एक ऐसे समय में लिया गया जब भारतीय संविधान स्वीकृत हो चुका था, और देश एक नई लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर बढ़ रहा था। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह फैसला सही था? क्या भारतीय मुस्लिम नेतृत्व को उस समय राजनीति में सक्रिय रहना चाहिए था?


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डॉ. अंबेडकर की चेतावनी और संवैधानिक संघर्ष

जब संविधान तैयार हो रहा था, तब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि संविधान की सफलता केवल कागजी नहीं होगी, बल्कि इसे सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर लागू करने की जरूरत होगी। उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर लोग केवल संविधान को अंतिम समाधान मानकर बैठ जाएंगे, तो सामाजिक अन्याय और असमानता बनी रहेगी।

डॉ. अंबेडकर ने कहा था:
"हमने संविधान तो बना लिया है, लेकिन यह सिर्फ एक कागज़ी दस्तावेज़ नहीं होना चाहिए। अगर समाज इसे आत्मसात नहीं करता, तो इसका कोई महत्व नहीं रहेगा।"

उन्होंने आगे कहा कि संविधान को लागू करने के लिए सतत संघर्ष की आवश्यकता होगी। लेकिन इसके विपरीत, जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने राजनीति से दूरी बनाने का फैसला कर लिया।

अगर हम अंबेडकर की दृष्टि से देखें, तो जमीयत का यह निर्णय एक अहमकाना (बेवकूफी भरा) कदम था, क्योंकि यह भारतीय मुस्लिम समुदाय को संवैधानिक संघर्ष में एक अहम शक्ति बनने से रोकने वाला था।


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क्या यह फैसला ऐतिहासिक भूल थी?

1. राजनीति से दूरी और मुस्लिम नेतृत्व का पतन

1949 में राजनीति से अलग होने के कारण भारतीय मुसलमानों के पास एक मजबूत नेतृत्व नहीं रहा, जो उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा कर सकता।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद अगर राजनीति में बनी रहती, तो वह मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक बेहतरी के लिए एक प्रभावशाली भूमिका निभा सकती थी।



2. संवैधानिक अवसरों का लाभ न उठाना

भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यकों को कई अधिकार दिए, लेकिन उन्हें प्रभावी बनाने के लिए राजनीतिक भागीदारी जरूरी थी।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने राजनीति से हटकर अपने समुदाय को संघर्ष से वंचित कर दिया।



3. डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण सही साबित हुआ

अंबेडकर का मानना था कि केवल संविधान लिख देने से समानता नहीं आएगी; इसके लिए समाज को लगातार जागरूक और सक्रिय रहना होगा।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद का निर्णय इसके विपरीत था, जिसने राजनीतिक संघर्ष को छोड़कर खुद को सीमित कर लिया।





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निष्कर्ष: इतिहास से सीखने की जरूरत

आज जब हम भारतीय लोकतंत्र और संविधान की 75 से अधिक वर्षों की यात्रा को देखते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीति से दूरी बनाना कभी भी किसी समुदाय के हित में नहीं होता। जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने जिस समय राजनीति से अलग होने का फैसला किया, वह समय वास्तव में संविधान को समझने, अपने अधिकारों को पहचानने और एक मजबूत नेतृत्व विकसित करने का था।

डॉ. अंबेडकर की चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। भारतीय संविधान का केवल होना ही काफी नहीं, बल्कि इसे बचाने, लागू करने और सुधारने के लिए सतत संघर्ष की जरूरत है।

आज मुस्लिम समुदाय और अन्य वंचित वर्गों के लिए सबसे बड़ी सीख यही हो सकती है कि अगर वे अपने संवैधानिक अधिकारों को बनाए रखना चाहते हैं, तो उन्हें राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्रिय रहना होगा।

संविधान एक हथियार है, लेकिन इसे चलाने के लिए मजबूत नेतृत्व और जागरूक समाज की जरूरत होती है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद का 1949 का फैसला हमें यही सिखाता है कि राजनीतिक भागीदारी से अलग होकर कोई भी समुदाय अपने अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकता।


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क्या अब बदलाव संभव है?

आज के दौर में यह जरूरी हो गया है कि मुस्लिम समाज और अन्य हाशिए पर मौजूद समुदाय संविधान को केवल एक दस्तावेज़ न मानें, बल्कि उसे एक संघर्ष का माध्यम समझें। उन्हें राजनीति में सक्रिय भागीदारी करनी होगी, नेतृत्व विकसित करना होगा और संविधान की सुरक्षा के लिए डॉ. अंबेडकर के विचारों से सीख लेकर आगे बढ़ना होगा।

संविधान केवल तब तक मजबूत है, जब तक उसे लागू करने वाले लोग मजबूत हैं।


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