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Sunday, 9 September 2018

कया देश गेर मुस्लिम ओर अमिर लोगो के टेक्ससे देश चलता हे,

Date:-10/09/2018

*क्या देश सिर्फ बाकी ८०% नॉन मुस्लिमों के टैक्स के पैसे से चलता है❓नहीं❗बिलकुल नहीं‼*

आजादी के समय मुसलमानों कि सरकारी नौकरियों में ३५% भागीदारी थी जो आज २% है।१८५७ कि क्रांति के बाद कुछ मुस्लिमबहुल बागी रियासतों में ब्रितानिया हुकूमत ने मुस्लिम लोगों कि कोर्ट, पुलिस, फौज वगैरह से छटनी शुरू कर दी थी। आज तक कि सरकारें भी यही निती पर चलती रही। बँटवारे के लिए कांग्रेस के नेहरू जिम्मेदार है जिन्होंने १९३६ के प्रादेशिक सरकार चुनावों में पुरे एकसंध भारत में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया।  जिस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी ९०% थी वहाँ भी एक मुस्लिम उम्मीदवार क्या कांग्रेस को नहीं मिला❓दरअसल मुसलमानों का राजनीतिक वजूद खत्म करने कि निती ही बँटवारे के लिए जिम्मेदार है। यही निती आजादी के बाद भी अपनायी जा रहीं है।
            जो व्यक्ति मौजूदा आयकर (इनकम टैक्स) के दायरे में नही आता, अर्थात जिनकी सालाना आमदनी २.५ लाख से कम है, उनसे ही ७८% अप्रत्यक्ष टैक्स लिया जाता है। देश में मुस्लिम आबादी कम से कम २०% है,लेकिन सरकारी नौकरियों में हमारी हिस्सेदारी २% है जोकि हमारे आबादी के प्रतिशत के समान २०% प्रतिनिधित्व होनी चाहिए थी। जब  हमारी कौम के मुसलमानों का टैक्स में २० प्रतिशत हिस्सा है, तो हमें २०% सरकारी नौकरी, शिक्षण में २० हिस्सा, राजनीति में २०% भागीदारी देकर देश का लोकतंत्र हम मुसलमानोंपर कोई अहसान नही करती। हमने जो २०% चंदा दिया है, आजादी से अब तक देते आए है हम उसका हिस्सा मांग रहे है। इसको ही आरक्षण कहा जाता है।
           इसका मतलब आजादी से अब तक हमे हमारे टैक्स का १०% ही लाभ मिला है। मतलब हमारे आबादी में से बच्चे वगैरह को निकालकर आधे लोग अप्रत्यक्ष कर भरते आए है। हमारी कौम द्वारा भुगतान किए हुए टैक्स कि कीमत २०१७-२०१८ वित्तीय वर्ष के लिए १.२५ लाख करोड़ है। इसका मूल्य ४०० टन सोने कि किमत के बराबर है। सोचो आजादी से अब तक हमने कितना टन सोने के मूल्य का टैक्स दिया होगा। आजादी से लगभग १२ हजार टन सोना ( गोल्ड) के बराबर *चंदा* (टैक्स )दिया है, जिसकी मौजूदा किमत लगभग ३६० लाख करोड़ बनती है। जबकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के ५६० टन गोल्ड रिजर्व है। इससे आप अंदाजा लगा सकते है कि मुसलमानों का देश में आर्थिक योगदान कितना है। आजादी से अब तक तीसरी पीढ़ि चल रही है अगर हम एक परिवार कि सदस्य संख्या ७ भी मानते है तो तो ३ करोड़ मुस्लिम परिवार भारत में है। हर मुस्लिम परिवार ने १२०० किलो सोना जितनी रकम (३६० करोड़)उतना टैक्स आजादी से आज तक दिया हैं। आज हर दस गरीबी रेखा वाले व्यक्तियों में ३ व्यक्ति मुस्लिम है, हर तीसरा कैदी मुसलमान है। हम मुस्लिम क्या आजादी से अब तक सिर्फ़ सरकारी तिजोरिया भरने के लिए है?  *चंदा* (टैक्स) के ऐवज में शिक्षा, रोजगार, न्याय, राजनीतिक *प्रतिनिधित्व/आरक्षण* कि हमारी मांग गलत है?

*प्रसिद्ध उद्योगपति फोर्ड ने कहा था " जिस दिन देश कि जनता को देश कि अर्थव्यवस्था कैसे चलती है पता चलेगा, उसके अगले हीे सुबह देश में क्रांति होगी।"*

(मजदूर बिगुल में प्रकाशित देश कि अर्थव्यवस्था का सही चेहरा सामने लानेवाला एक लेख निचे👇 प्रस्तुत कर रहे है। )

*क्या देश सिर्फ अमीरों के टैक्स के पैसे से चलता है? नहीं!*

अक्सर उच्च मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग द्वारा यह कहा जाता है कि देश उनके पैसे से चल रहा है। वही लोग हैं जो सरकार को टैक्स देते हैं जिससे सारे काम होते हैं, ग़रीब लोग तो केवल सब्सिडी, मुफ़्त सुविधाओं आदि के रूप में उन टैक्स के पैसों को उड़ाते हैं। इस प्रकार ग़रीब आम जनता देश पर बोझ होती है। दरअसल यह एक बड़ा झूठ है जो काफ़ी व्यापक रूप से लोगों में फैला हुआ है। अगर आँकड़ों के हिसाब से देखा जाये तो कहानी इसकी उल्टी ही है। सरकार जो टैक्स वसूलती है उसका बड़ा हिस्सा इसी ग़रीब आम जनता की जेबों से आता है। आइए देखते हैं कैसे।
आमतौर पर उच्च मध्यवर्ग का यह तर्क रहता है कि चूँकि टैक्स ढाई लाख से ऊपर की आमदनी वाले व्यक्ति पर ही लगता है, इसलिए केवल वही लोग कर (टैक्स) देते हैं जिनकी सलाना आय ढाई लाख से ज़्यादा है। पर जिस कर की वो बात कर रहे हैं वो आमदनी के ऊपर कर है। आयकर ही एकमात्र सरकार की आय का स्रोत नहीं है। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि आयकर से सरकार को बहुत कम आमदनी होती है।
सरकार दो तरीक़़े के टैक्स वसूलती है –
1. प्रत्यक्ष कर
2. अप्रत्यक्ष कर
प्रत्यक्ष कर में आयकर और कॉरपोरेशन टैक्स या निगम कर आते हैं जबकि अप्रत्यक्ष कर में सेल्स टैक्स, सर्विस टैक्स, राज्यों का वैट टैक्स (इनको मिलाकर अब वस्तु और सेवा कर बना दिया गया है), कस्टम ड्यूटी, एक्साइज ड्यूटी, रोड टैक्स, मनोरंजन कर, स्टाम्प ड्यूटी आदि टैक्स आते हैं।
सरकार को इन सबसे आमदनी होती है, जिससे सरकार बजट बनाती है। मध्यम और उच्च वर्ग में फैली ये ग़लत धारणा कि उनके टैक्स के पैसों से देश चलता है, हर साल की कर वसूली के आँकड़ों को देखते ही धाराशाही हो जाती है।
वित्त वर्ष 2017-18 की बात करें तो कुल कर उगाही 19,46,119 करोड़ रुपये थी। इसमें कॉरपोरेशन कर 5,63,744 करोड़ रुपये था और आयकर 4,41,255 करोड़ रुपये था। अगर कुल बजट के प्रतिशत के हिसाब से देखें तो आयकर वसूली कुल बजट का मात्र 22% हुई थी। यही वह 22% है जिसके लिए मध्यवर्ग और उच्चवर्ग यह सोचते हैं कि वही देश चला रहे हैं, बाक़ी तो बोझ हैं। दूसरी तरफ़़ अगर देखा जाये तो इसी दौरान अप्रत्यक्ष करों से 9,41,119 करोड़ रुपये की आय हुई थी। जिससे सरकार को 2017-18 में कुल राजस्व की 48% प्राप्ति हुई थी।
पर यह पूरी तस्वीर नहीं है। दरअसल ऊपर जिस कॉरपोरेशन कर (जो कि कुल राजस्व का 29% है) की बात की गयी है, वो भी जनता को चुकाना पड़ता है। कॉरपोरेशन टैक्स किसी कम्पनी के कुल मुनाफ़़े पर लगने वाला कर है। भारत में यह 30% की दर से लगता है तथा इस पर सरचार्ज व सेस भी लगता है। कम्पनी द्वारा चुकाया गया कर वास्तव में किसके द्वारा चुकाया जाता है, क्योंकि कम्पनी एक व्यक्ति नहीं है? वास्तव में इसका भुगतान भी उस ग्राहकों को करना पड़ता है, जो वो उत्पाद ख़रीदते हैं। माल के पैदा होने की प्रक्रिया में उसके मूल्य में वृद्धि श्रम के द्वारा पैदा होती है, जो देश के करोड़ों मज़दूरों-कर्मचारियों द्वारा किया जाता है। इस दाम में हुई वृद्धि का बहुत छोटा हिस्सा मज़दूर को मज़दूरी के रूप में मिलता है, बाक़ी अलग-अलग स्तरों पर फ़ैक्टरी मालिक, थोक विक्रेता, ख़ुदरा विक्रेताओं आदि के बीच मुनाफ़़े के रूप में बँटता है। इस प्रकार मुनाफ़़े पर दिया गया कर भी दरअसल मज़दूर द्वारा पैदा किये गये मूल्य पर प्राप्त मुनाफ़़े पर होता है। साथ ही मुनाफ़़ा वसूली (प्रॉफि़ट रियलाइजे़शन) उत्पाद के बिकने की प्रक्रिया में ही होता है। अगर कोई 100 रुपये का सामान ख़रीदता है जिसकी मज़दूरी सहित लागत 60 रुपये है और बाक़ी 40 रुपये अलग-अलग स्तरों पर मुनाफ़़े के रूप में बँटते हैं तो उस मुनाफ़़े पर अलग-अलग स्तरों पर दिया गया टैक्स ग्राहक द्वारा सामान के बदले दिये गये पैसे (100 रु.) से ही दिये जाते हैं। क्योंकि मुनाफ़़ा मूल्य वृद्धि (वैल्यू एडिशन) और माल विक्रय (वैल्यू रियलाइजे़शन) की चक्रीय प्रक्रिया में ही पैदा होता है, जबकि फ़ैक्टरी मालिक, थोक विक्रेता, ख़ुदरा विक्रेता आदि इस प्रक्रिया में बस बीच के माध्यम के रूप में काम करते हैं। अगर माल पैदा हो पर उसको ग्राहक न ख़रीदे तो उस पर कुछ मुनाफ़़ा नहीं होगा, फिर मुनाफ़़े पर कर देने का सवाल ही पैदा नहीं। इस प्रकार कॉरपोरेशन कर अप्रत्यक्ष रूप से आम जनता से ही वसूला जाता है। इसको भी अगर जनता द्वारा चुकाये गये अप्रत्यक्ष करों में जोड़ दिया जाये तो आम जनता ही कुल राजस्व का 78% भाग चुकाती है।
कुछ लोग कह सकते हैं कि अप्रत्यक्ष कर भी तो मध्यवर्ग और उच्च वर्ग द्वारा ही ज़्यादा दिया जाता है। यह सच है कि अप्रत्यक्ष कर उन सभी को देना पड़ता है जो कोई सामान ख़रीदते हैं, सेवा का उपभोग करते हैं। लेकिन अगर हम भारत में आयकर देने वाले करदाताओं का स्लैब देखें, तो पता चलता है कि भारत में आयकर देने वाला वर्ग बहुत छोटा है। 2015-16 के अनुसार केवल 1.7% लोग आयकरदाता हैं। इसलिए निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग से ज़्यादा ख़र्च करने के बावजूद इस कुल 1.7% आबादी द्वारा अप्रत्यक्ष कर में योगदान बहुत कम है।
इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि इस देश में एक भिखारी भी टैक्स देता है। अब एक और सवाल पूछा जा सकता है कि आखि़र एक व्यक्ति या परिवार औसतन कितना कर देता है?
इस सवाल का जवाब काफ़ी अचम्भित करने वाला है, ये एक ऐसी सच्चाई है जिस पर हमेशा पर्दा डालने को कोशिश की गयी है। अगर आप आयकर देते हैं तो आपको पता होता है कि आपने साल में कितना टैक्स दिया, पर अगर आप यह जानना चाहे कि आपने साल में कितना अप्रत्यक्ष कर दिया तो ये बहुत मुश्किल है। यहाँ हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि एक व्यक्ति कितना अप्रत्यक्ष कर देता है। फे़डरेशन ऑफ़ इण्डियन चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री (फि़क्की) द्वारा 2007 के एक अध्ययन के मुताबिक़ किसी उत्पाद के दाम का औसतन 35% टैक्स होता है। तबसे आज तक कई बार टैक्स बढ़ाया जा चुका है, व कई तथाकथित टैक्स सुधार भी हो चुके हैं। आज पेट्रोल उत्पादों पर 100% से भी ज़्यादा टैक्स है, बाक़ी सामानों पर भी टैक्स पहले से काफ़ी बढ़ाया जा चुका है, इसलिए ये 35% का आँकड़ा आज 40 से 45% तक पहुँच गया है। एक मोटा-मोटी गणना के लिए अगर हम आज के परिप्रेक्ष्य में ख़र्च पर औसत 30% कर की दर लेकर चले (क्योंकि कुछ ख़र्च टैक्स की सीमा से बाहर हैं व कुछ पर टैक्स कम है) तो भी चौंकाने वाली तस्वीर सामने आती है।
अगर एक व्यक्ति की आय 5 लाख रुपये सालाना है जिसमें वो 4 लाख परिवार के वहन में ख़र्च कर देता है बाक़ी कुछ पैसे बचत करता है। इस हिसाब से उसको आयकर कितना देना पड़ेगा?
ढाई लाख से ऊपर की आमदनी का 5% जो कि 12500 रुपये होता है। अब देखते हैं कि उसको अप्रत्यक्ष कर कितना देना पड़ता है। अगर 4 लाख रुपये सामानों और सेवा के ऊपर ख़र्च करता है तो 30% के हिसाब से उसको क़रीब 1,20,000 रुपये टैक्स अप्रत्यक्ष कर के रूप में देना पड़ेगा। इस राशि की तुलना में आयकर कुछ भी नहीं है। स्पष्ट है कि एक मध्यम आय वाले व्यक्ति को आयकर के मुकाबले क़रीब 10 गुना ज़्यादा अप्रत्यक्ष कर देना पड़ता है। हर साल बजट आने पर लोग यह तलाशते हैं कि आयकर की दर कम हुई कि नहीं, जबकि सबसे बड़ा कर का बोझ अप्रत्यक्ष कर का होता है।
एक व्यक्ति जिसकी आमदनी ढाई लाख तक है उसको आयकर नहीं देना पड़ता, पर उसको क़रीब 75,000 रुपये अप्रत्यक्ष कर देना होता है। इस देश का एक मज़दूर परिवार जिसमें दो लोग 10 हज़ार रुपये की मज़दूरी करते हैं और साल में 2,40,000 रुपये कमाते हैं जो सारा उनके ऊपर व्यय होता है, ऐसे में वो 72,000 रुपये टैक्स के रूप में सरकार को देते हैं। यह बात साफ़़ है कि अप्रत्यक्ष कर प्रत्यक्ष कर से ज़्यादा चिन्ताजनक है। इसका एक कारण और है। अप्रत्यक्ष कर की दर सबके लिए समान रहती है, जिससे एक मज़दूर भी उसी दर से टैक्स दे रहा होता है, जिस दर से उसका अरबपति मालिक। इसको समझने के लिए भी एक उदाहरण ले सकते हैं। एक मज़दूर परिवार की आय अगर ढाई लाख सालाना है और ख़र्च 2 लाख है तो उसको 60 हज़ार अप्रत्यक्ष कर देना होता है। वहीं अगर एक मालिक की आय 1 करोड़ रुपये सालाना है और ख़र्च 30 लाख रुपये है (आमदनी बढ़ते जाने पर बचत का हिस्सा बढ़ता जाता है) तो इस हिसाब से उसको 9 लाख अप्रत्यक्ष कर देना होता है। ये देखने में काफ़ी ज़्यादा लगता है लेकिन दोनों स्थितियों की तुलना करें तो मज़दूर परिवार अपनी कुल आय का 24% अप्रत्यक्ष कर में देता है, जबकि मालिक अपनी कुल आय का 9% अप्रत्यक्ष कर में देता है। यहाँ पर प्रत्यक्ष कर भी जोड़ा जा सकता है, लेकिन उसमें दाँव-पेंच की काफ़ी गुंजाइश होती है, अपनी आय कम दिखाना, फ़र्ज़ी डोनेशन, ऋण दिखाना आदि तरीक़़ों का व्यापक इस्तेमाल करके मालिक अपनी आय का काफ़ी हिस्सा छुपा लेता है। यही कारण है कि भारत में आयकरदाताओं की संख्या इतनी कम है। वास्तव में मालिक इन तिकड़मों का इस्तेमाल कर 10-15% के आसपास ही आयकर देते हैं। इसको भी ऊपर की संख्या में जोड़ दें तो भी मालिक अपनी आय का कुल 20-25% ही टैक्स देते हैं। इस प्रकार एक मज़दूर और एक अरबपति दोनों को अपनी आय का लगभग समान हिस्सा कर के रूप में देना पड़ता है, जबकि मज़दूर परिवार की आय ही बहुत कम होती है। स्पष्ट है कि यह कराधान प्रणाली आम जनता/मज़दूरों के लिए काफ़ी अन्यायपूर्ण है।
ऊपर के आँकड़ों से ये बात साफ़़ हो जाती है कि देश के कुल राजस्व का क़रीब 80% देश की आम जनता की जेबों से आता है। ऐसे में उच्च मध्यम वर्ग व उच्च वर्ग का ये दम्भ भरना कि देश को वही लोग चला रहे हैं – बिल्कुल बेबुनियाद और बेवक़ूफ़ी भरा है। इस देश की करोड़ों आम मेहनतकश जनता के दम पर यह देश चलता है। उनकी मेहनत के दम पर भी और उनके पैसे के दम पर भी। वास्तव में ये मालिक लोग ही हैं जो देश के ऊपर बोझ हैं, जो ख़ुद कुछ भी पैदा नहीं करते और आम जनता की मेहनत को निचोड़कर अन्धाधुन्ध सम्पत्ति बटोरते हैं।

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