ठेके पर गुजरात की खौफनाक हकीकत...
Nationaldastak

गुजरात की सरकार ठेके पर चल रही है। ये बात सुनकर किसी को भी अचरज होगा लेकिन ये 100 फीसद सच है। सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा यहां ठेके पर काम करता है। इसमें तीन कटेगरी है। पहली फिक्स्ड, दूसरी ठेका प्रथा और तीसरी आउट सोर्सिंग। फिक्स्ड वेतन की व्यवस्था ये है कि इसमें सभी कर्मचारियों को पहले पांच सालों तक निश्चित वेतन पर काम करना पड़ता है। फिर उन्हें नियमित करने की बात होती है। इसमें कई बार ऐसा होता है कि एक पद पर कार्यरत किसी कर्मचारी को बीच में किसी दूसरे उच्च पद पर जाने की स्थिति में उसे पांच साल की गिनती नये सिरे से शुरू करनी पड़ती है और इस प्रक्रिया में कई बार कर्मचारियों को दस-दस साल फिक्स्ड वेतन के तहत काम करना पड़ जाता है। जो बहुत ही कम है।
इसकी शुरुआत 1996 में सबसे पहले शिक्षा विभाग से हुई जब सरकार ने बाल गुरू योजना के तहत शिक्षकों के लिए फिक्स्ड वेतन की शुरुआत की। उस समय इसकी राशि 2500 रुपये हुआ करती थी। यह राशि 2006 तक बनी रही। बाद में इसे बढ़ाकर 5700 कर दिया गया। दूसरी व्यवस्था ठेके की है। इसमें शुरुआत चार हजार रुपये से होती है। जिसमें हर साल 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी होती है। लेकिन इन कर्मचारियों को कभी नियमित नहीं किया जाता है। तीसरी व्यवस्था आउटसोर्सिंग की है जो सबसे ज्यादा फलने-फूलने वाला धंधा है। इसमें सरकार किसी एक ठेकेदार या एजेंसी को निश्चित राशि के भुगतान पर कर्मचारियों को लाने का ठेका देती है। इसमें सरकार की तरफ से प्रति कर्मचारी के हिसाब से 10 से लेकर 18 हजार रुपये दिये जाते हैं। लेकिन आमतौर पर एजेंसी या ठेकेदार कर्मचारियों को 4 से लेकर 6 हजार रुपये ही देते हैं।
बताया जाता है कि इसमें कर्मचारियों से पेंसिल से हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं और फिर बाद में अपने मनमुताबिक उनमें बदलाव कर आंकड़ों की खानापूर्ति कर ली जाती है। बुनियादी तौर पर ये लूट की व्यवस्था है जिसमें बिचौलिया मालामाल हो रहा है।
तीनों व्यवस्थाएं तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों में लागू हैं। कुछ जगहों पर द्वितीय श्रेणी के कर्मचारी भी इसी व्यवस्था के साथ भर्ती हैं। यहां तक कि पुलिस और प्रशासन में सब इंस्पेक्टर और नायब मामलातदार (राजस्व) तक इन्हीं व्यवस्थाओं के तहत रखे गए हैं। डिप्टी सेक्शन अफसर तक की नियुक्तियां इसी व्यवस्था के तहत हो रही है। ये सारी व्यवस्थाएं पुलिस, शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशासन आदि विभागों में धड़ल्ले से चल रही हैं। होम गार्ड को 180 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से दिया जाता है जो पंजाब में खेतिहर मजदूरों को मिलने वाले 300-400 रुपये और देश की मनरेगा मजदूरी से भी कम है।
इस तरह से अगर अलग-अलग विभागों के हिसाब से देखा जाए तो फिक्स्ड और ठेके पर शिक्षा विभाग में तकरीबन 2 लाख, पुलिस विभाग में 70 हजार, स्वास्थ्य में 85 हजार और क्लर्क पदों पर 20-25 हजार कर्मचारी नियुक्त हैं। इतना ही नहीं क्लास वन के तहत रिटायर होने वाले नौकरशाहों को फिर से कांट्रेक्ट पर रख लिया जाता है। बताया जा रहा है कि इस तरह के तकरीबन 1000 नौकरशाह हैं।
इन व्यवस्थाओं के तहत नियुक्त कर्मचारी समान काम के तहत समान वेतन की मांग कर रहे हैं। यह मामला हाईकोर्ट में गया था जिसने कर्मचारियों के पक्ष में फैसला सुनाया। बावजूद इसके राज्य सरकार ने उसे मानने से इनकार कर दिया और उसने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी है। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सरकार को जमकर लताड़ लगायी है। उसने कहा कि ये भ्रष्टाचार पैदा करने वाली व्यवस्था है और सरकार इस पर तत्काल रोक लगाए। इसको लेकर कर्मचारी आंदोलन भी कर रहे हैं।
एक जनवरी 2017 को अपनी मांगों को लेकर तकरीबन 15 हजार कर्मचारियों ने अहमदाबाद में प्रदर्शन किया। इसके पहले भी ये कर्मचारी बांहों पर काली पट्टी बांधकर काम पर जाने के जरिये इसका विरोध कर चुके हैं। इस आंदोलन की अगुवाई कर रहे प्रवीण राम का कहना है कि सरकार दबाव में जरूर आयी है और मुख्यमंत्री से एक चक्र की वार्ता भी हुई है। उन्होंने मांगों को पूरा करने का भरोसा भी दिलाया है। लेकिन अगर सरकार अपने वादे पर खरा नहीं उतरती है तो कर्मचारी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए बाध्य होंगे। अगर ये सच सरकारी कर्मचारियों का है तो निजी कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों की दुर्दशा का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। ये कारपोरेट गुजरात का नंगा सच है। गुजरात के इस मॉडल में ऊपर के 10 फीसदी लोगों के लिए आम लोग बैलों की तरह जुत रहे हैं।
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