दोस्तों
राजनीति की लकीर शायद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए एक ऐसी लक्ष्मण रेखा है जिसको पार करने की उसने कोशिश कभी किसी चुनाव में खुले तौर पर की नहीं तो की याद कीजिए चीन के साथ युद्ध के बाद का चुनाव हो या फिर एमरजेंसी के बाद उन्नीस सौ सतहत्तर
चुनाव या फिर मंडल कमंडल को लेकर इस देश के भीतर में राजनितिक सियासी घमासान और उसके बाद चुनाव का माहौल आरएसएस ने खुद को सामाजिक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर ही रखा और राजनीति को अपने से दूर करने का लगातार प्रयास
तरीके से किया जिससे यह न लगे कि स्वयं सेवक पॉलिटिक्स में हिस्सेदारी करने लगा
लेकिन दो हज़ार चौबिस का चुनाव शायद इस देश के लिए कितना अलग चुनाव है और यह चुनाव सिर्फ राजनीति को प्रभावित नहीं करेगा बल्कि समूचे देश को प्रभावित करेगा और उसकी शिकन या कहें उसको लेकर परेशानी का सबब आरएसएस के माथे पर
क्यों दिखाई देने लगा है
यह दूर की बात नहीं है कि हर बरस दशहरा के मौके पर आरएसएस के सर संघचालक उनका भाषण नागपुर में होता है कल भी हुआ लेकिन कल के भाषण ने उस लकीर के पार जाकर या आरएसएस के माथे पर एक ऐसी शिकन की लकीर खींच डाली
जहां पर उसे लगने लगा है कि आने वाले वक्त में आरएसएस को बिगाड़ने का काम इस देश में बाखूबी होगा और चुनाव के वक्त तो खासतौर से होगा तो क्या यह माना जाए कि राहुल गांधी ने जिस तरीके से आरएसएस को कटघरे में खड़ा किया और आरएसएस ने राहुल गांधी पर बाद
हानि से लेकर तमाम मुकद्दमों के मद्देनजर अदालती कटघरे में खड़ा किया यह एक राजनीतिक लड़ाई की शुरुआत है या फिर आने वाले वक्त में इस बात का एहसास दिल्ली की सत्ता को भी हो चला है कि अगर दिल्ली की सत्ता दो हज़ार चौबिस तक मंगाई तो निशाने पर सबसे पहले
इस देश में आरएसएस ही होगी
और शायद यही वजह है कि पहली बार सर संघ चालक का भाषण दशहरा के मौके पर जो नागपुर से निकला उसने दो बातों पर हर किसी का ध्यान कहीं ना कहीं आकर्षित कर दिया पहली बात तो यह लगा ऐसा कि दरअसल ये सर संघ चालक का भाषण नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली का भाषण है
जिसमें सरकार की उपलब्धियां दर्जनभर उपलब्धियों का जिक्र खुले तौर पर करते हुए इस देश के नेतृत्व को मौजूदा वक्त में नहीं बल्कि अतीत काल से लेकर आने वाले तक में सबसे बेहतरीन शासक के तौर पर स्थापित करना है
और दूसरी परिस्थिति है इस दौर में चाहे सवाल मुसलमानों का हो चाहे सवाल ईसाइयों का
उसको लेकर आरएसएस के भीतर अब एक हलचल हो चली है कि अगर सभी को एक बराबर नहीं रखा और राजनीति एक बराबर रखती नहीं है और मोदी सत्ता ने एक बराबर रखा नहीं है
तो क्यों नहीं उस राजनीति से दो कदम पीछे हट कर खुद को सामाजिक सांस्कृतिक तौर से आगे निकलकर एक ऐसी राजनीतिक परिस्थितियों को इस देश के सामने रखने की जरूरत है जहां कहा जा सके कि देखिए हम सेकुलर हम समाजवादी है
हम सबको साथ लेकर चलना चाहते घाव तो बहुत गहरे होंगे लेकिन यह तौर घाव को भरने का है यह मत सोचिए कि आपके साथ कब क्या अतीत में हुआ है वह तो राजनीति की जरूरत होती है लेकिन जिस देश की जरूरत शायद उन घावों को याद करना नहीं है प्रगति के
पथ पर सभी को एक साथ मिलकर चलना होगा
अब आपके जहन में दो सवाल होंगे पहला सवाल व कौन सी उपलब्धियां है जो एक तरफ देश के सर संघ चालक दशहरा के मौके पर इस देश को स्वयंसेवकों के जरिए बताना चाहते हैं और दूसरा सवाल व कौन सी परिस्थिति है जिसमें अब उन्हें महसूस हो
आने लगा है कि इस देश के भीतर जितनी लकीरें खींची गई है उन्हें लकीरों को अगर नहीं मिटाया गया या आरएसएस उसे मिटाते हुए नजर नहीं आई तो फिर चुनाव के बाद क्या होगा शायद इसके लिए आरएसएस व तैयार हो जाना चाहिए
आरएसएस अपने तौर पर कितनी तैयार है और तैयार होना चाहिए कागज पर अलग है और वैचारिक तौर पर और शायद इस देश के परसेप्शन के तौर पर व एक अलग सोच है
दूसरी सोच है कि इस दौर में क्या खुद प्रधानमंत्री जो एक वक्त संघ के प्रचारक रहे और संघ के प्रचारक के प्रधानमंत्री बनने पर आरएसएस ने खूब ढोल पीटे लेकिन इस देश के भीतर जो नफरत और घृणा का जिक्र राहुल गांधी ने लगातार यह कह कर की
या कि मोहब्बत की जरूरत क्यों है क्या उसका एहसास पहली बार राजनीतिक तौर पर आरएसएस को होने लगा है
आप सोच रहे होंगे ये पहेलियाँ बुझाई जा रही है जी नहीं यहां पर चार पांच सवाल पहले आप सुन लीजिए उसके बाद एक पन्नों को हम खोदते चलेंगे पहला सवाल आरएसएस का स्वयंसेवक जमीन पर काम करता है और उसने देखा परखा के इस दौर में मोदी सत्ता के जरिए जो मुद्दे आर्थिक तौर
पर इस देश में निकल कर आए उसको लेकर बोलने वाला सत्ता में कोई रही है
तो आरएसएस की पहली मुश्किल यानी स्वयंसेवक की पहली मुश्किल वहां पर थी
दूसरे मुश्किल है इस दौर में मोदी सत्ता के साथ आरएसएस की सत्ता को खड़ा करके राहुल गांधी या कांग्रेस ने या विपक्ष ने सीधे तौर पर जब निशाने पर लिया तो देश की डेमोक्रेसी और कॉन्स्टिट्यूशन का भी जिक्र किया यह दूसरा सवाल था
तीसरा सवाल है कि आरएसएस अपने तौर पर सामाजिक या सांस्कृतिक परिस्थितियों को जीना इस दौर में छोड़ चुका है और राजनीतिक तौर पर मोदी सत्ता के हर कार्यक्रम के पीछे खड़ा है यह तीसरा सवाल है
चौथा सवाल है स्वयंसेवक की भूमिका और बीजेपी कैडर की भूमिका दोनों एक लकीर पर चलने की स्थिति में इस देश के भीतर नहीं है यह चौथा सवाल पांचवां सवाल है इन तमाम परिस्थितियों में सर संघ चालक की भूमिका क्या होनी चाहिए एक और सर संघ
चालक को क्या अगर अपने स्क्रिप्ट को थमा दिया जाए और वह बोलना शुरू करें तो लगे जैसे प्रधानमंत्री मोदी का भाषण चल रहा है उससे काम चल जायेगा क्या यह पांचवां सवाल है और इन्हीं सवालों के इर्द गिर्द कल दशहरा के मौके पर सर संघ चालक का भाषण राहुल
गांधी का संघ को निशाने पर लेना मोदी सत्ता की चुनाव के मौके पर डांवाडोल स्थिति होना और ऐसे में एक तरफ मोदी सत्ता को भी संभालना है और दूसरी तरफ आरएसएस को भी पुरानी परिस्थितियों के साथ नई दिशा में खड़ा करना है यह भी चुनौती है और इसी
गिरि सारी चीजें धीरे धीरे चल रही है इसीलिए जो स्क्रिप्ट दिल्ली से निकलकर नागपुर पहुंची सबसे पहले उसका सकते
सामान्य तौर पर यह होता नहीं है कि किसी सत्ता के कार्यक्रमों को सर संघचालक एक लाइन में बताने लग जाए लेकिन कल उन्होंने बतलाया यानी मैसेज बहुत साफ दिल्ली का था कि आप उपलब्धियों को परोसते चले जाइए अन्यथा आने वाले वक्त में हम चुनाव हारे तो फिर आप भी कही
नहीं रहेंगे
जरा एक दर्जन मुद्दों को परखने की कोशिश कीजिए
जी ट्वंटी के जरिए जो सफलता मिली
उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान भारत के उसमें बन गई इसी बात का जिक्र मोदी तमाम रैलियों में करते दूसरी पर थी आर्थिक परिस्थितियों में भारत पांचवें पायदान पर पहुंच गया और आने वाले वक्त में पाँच ट्रिलियन के साथ तीसरे पायदान पर होगा इसका जिक्र भी मोदी करते हैं जिसका जिक्र नागपुर के दशहरा मैदान में हो रहा था
डिजिटल टेक्नोलॉजी हमारे देश में कैसे आई और गांव गांव तक फैल गई इसका जिक्र मोदी भाषण में करते हैं सरसंघ चालक ने दशहरा में किया स्टार्टअप इंडिया के जरिए अब जरुरी नहीं है कि नौकरियां दिया जाए हम तो अपने तौर पर इस देश में नौकरियों को खड़ा करने वाले लोगों को खड़ा कर रहे हैं जो लोग ही नौकरी दे दूसरे को
तो सरकार पल्ला झाड़ती है इसका जिक्र मोदी करते हैं और इसका जिक्र सरसंघचालक चालक ने नागपुर में किया चंद्रयान की उपलब्धि वैज्ञानिकों की उपलब्धि का सिक्का प्रधानमंत्री मोदी करते हैं
सर संघ चालक ने भी किया खिलाड़ियों का इस दौर में पदकों को लाना और एशियन गेम्स में सौ का आंकड़ा पार कर जाना इसका जिक्र भी प्रधानमंत्री मोदी करते हैं इसका जिक्र भी किया गया सरसंघ चालक के जरिए प्रधानमंत्री मोदी मुस्लिमों के भीतर पसमांदा समाज को खोजते हैं और पसमांदा समाज से इतर हटकर
मुस्लिमों को साथ कैसे खड़ा करना है और उनका भी बराबर हक इस देश के भीतर है और एक लिहाज से सभी बराबर हैं विभाजन का घाव हो या कुछ भी गांव उसको भूल जाइए सब एक साथ खड़े हैं इसको नए तरीके से सर संघ चालक ने मुस्लिम और इसाई दोनों को लेकर रखने की कोशिश दशहरा के भाषण देंगे
चीन को लेकर प्रधानमंत्री अधिकतर खामोश रहते हैं वहीं खामोशी को नए तरीके से सरसंघचालक ने नागपुर में रखने की कोशिश की और हिमालय के जरिए भारत का पर्यावरण हो भारत के भीतर का मौसम विज्ञान हो सीमा की परिस्थितियों इसको रखकर रखा चीन इसे डिस्टर्ब करने की कोशिश करता है लेकिन
इसके बाद के सवाल कहीं ज्यादा मौजूद है
मंदिर अयोध्या में राम मंदिर बाईस जनवरी को प्रधानमंत्री इसका ज़िक्र बाखूबी करते हैं सर संघ चालक में इसका जिक्र बात को भी किया
विरोध जो लोग करते हैं वो नेगेटिव होते हैं
इसका जिक्र प्रधानमंत्री करते हैं इनसे जो सवाल पूछता है प्रधानमंत्री को वह नेगेटिव और विरोध करने वाले लाख लोग उन्हें भारतीय नहीं है कुछ इसी अंदाज में सरसंघ चालक ने कहा भटक यह मत उनके दायरे में आकर खड़ा होता है
प्रधानमंत्री खुद को विश्व गुरु के तौर पर रखना चाहते हैं विश्व गुरू के तौर पर और समाधान भारत ही दे सकता इसका जिक्र सरसंघ चालक ने किया और जिस अमृत काल का जिक्र लगातार प्रधानमंत्री मोदी करते हैं उसी अमृत काल का जिक्र नए सिरे से कि इस अमृत काल में यह सब देखने को हमको बिल रहा है कि चौतरफा प्रो
गति है
यस सर संघ चालक ने किया गया है इस देश की सरकार का भाषण नहीं है
यह प्रधानमंत्री मोदी के रैली का भाषण नहीं है यह दशहरा के मौके पर जब संघ की स्थापना हुई थी उस दिन के महत्व को समझ और उसके बाद सर संघ चालक की पहली स्क्रिप्ट लिस्ट को पढ़िए दिल्ली से यह लिखकर नागपुर पहुंचे
और उसको सरसंघ चालक ने अपने तौर पर पड़ती है
तीन चार महीने इसके बहुत साफ है पहला बोधि न होंगे
तो इस देश में कुछ भी संभव नहीं है यह उसका पहला हिस्सा उसके भीतर का परसेप्शन बनाने की कोशिश है दूसरा विश्व गुरु भारत क्यों हो चला है और दुनिया भर में भारत का डंका कैसे बज रहा है और वह भी प्रधानमंत्री मोदी के इर्द गिर्द यह भी बताने की कोशिश हुई सभी क्षेत्रों में विकास और विकास को लेकर
आपस में प्रतिस्पर्धा मत कीजिए और टकराई यह मत अलग समुदाय जाति उपजाति भूल जाइए इसको और नए सिरे से समझिए कि सभी एक है सर संघ चालक को यह कहना पड़ा जाति और उपजाति यानी एक तरफ ओबीसी का सवाल जब इस देश में उठाए तो कहीं उस पर लीपापोती कैसे की जाए यह भी आपको नागपुर में सरपंच
चालक के भाषण में हिस्सा आपको दिखाई देगा सिर्फ परखने की जरूरत है
बड़ा सवाल यह था कि भारत का जो उत्थान है उसमें दुख है कि नहीं शोषण है कि नहीं या सिर्फ कल्याण ही कल्याण है तो शोषण और दुख तो नहीं कल्याण ही कल्याण है जिसका जिक्र अक्सर प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में करते हैं उसी का जिक्र नए सिरे से दशहरा के भाषण में
सर सरसंघचालक नहीं किया यह पहला हिस्सा है इस हिस्से के बाद शायद सरसंघ चालक को समझ में आया होगा यह तो पढ़ना पड़ेगा तो उन्होंने पढ़ा दिया उसके बाद दूसरा सवाल था इस देश के भीतर में संघ को जब कटघरे में राजनीति खुले तौर पर खड़ा कर रही है
और न सिर्फ खड़ा कर रही है बल्कि उसके जरिए उसकी विचारधारा और उसकी सोच पर भी पहली बार उंगली उठ रही है तो क्यों और चुनाव के मद्देनजर अब नए तरीके से आरएसएस को रखने की जरूरत क्या आ गई है और जिसका रास्ता राजनीति से नहीं निकलता है दो हज़ार चौदह से लेकर दो हज़ार
चार इकतीस तक के भाषण अगर आप ध्यान देंगे जो दशहरा के मौके पर नागपुर से निकलकर आए उसमें राजनीतिक सत्ता के इर्द गिर्द और राजनीति के जरिए समाधान खोजने की कोशिश लगातार हुई लेकिन पहली बार जब सवाल आरएसएस का ही आ गया बाकी मुद्दे तो अपनी
का समाधान राजनीति खोज लेगी लेकिन जब विचारधारा और आरएसएस का सवाल है तो राहुल गांधी ने इस दौर में लगातार सवाल उठाए हैं उससे आहत हैं
उससे डरे हुए हैं चुनाव को लेकर परेशान है क्योंकि चुनाव के मौके पर और चुनाव की प्रतिस्पर्धा में सेंध न पड़े या दिखाते हुए भी इस देश का स्वयं सेवक मोदी सत्ता को बचाने के लिए सक्रिय हो जाए या मैसेज देने की कोशिश भी कहीं न कहीं इस पूरे
भाषण के दौर में निकल कर आई जिसको लेकर एक तरीके से यह अपनी नई सोच है
क्योंकि बहुत साफ तौर पर कहा गया कि समाज को बांटना तो राजनीति का काम है
इससे पहले कभी कहा गया सत्ता जिस रास्ते चलती है वह अपने सत्ता अपने अनुयायियों को बनाए रखने के लिए समाज में लकीरें खींच दी है क्या इससे पहले कहा गया
राजनीति के वर्चस्व को कायम करने के लिए राजनीति क्या क्या करती है उसके साथ हमें खड़े नहीं होना है क्या इससे पहले यह कहा गया
समाज की एकता राजनीति से नहीं आएगी
क्या ये इससे पहले कहा गया
इस देश के भीतर में जो अलग अलग तरीके से लोगों को लगता है कि हमें स्पर्धा हम पिछड़ गए हैं हमको ये चीजें नहीं मिली है ये सारी चीजों का जिक्र होते होते संविधान और बाबा साहब अंबेडकर का जिक्र भी इस मौके पर हो दशहरा के भाषण में जब सबको पता है इसी दौर में धर्म पड़ी
पर
बाबा साहब अंबेडकर ने नागपुर में ही किया था और महज दस किलोमीटर की दूरी पर धर्म परिवर्तन की उस जगह पर दशहरा के दिन ही वहां पर तमाम दलित देश दुनिया भर के लोग पहुंचते हैं लाखों की तादाद में होते हैं और वहां इस बात का एहसास हर किसी को होता है कि धर्म परिवर्तन का मतलब क्या है
वह हिंदुत्व के दायरे में नहीं आता है वो आरएसएस के हिंदुत्व की सोच के दायरे में नहीं आता है लेकिन बाबा साहब अंबेडकर का जिक्र हुआ
सरसंघचालक चालक ने किया राजनीतिक तौर पर एक बड़ा शिफ्ट है एक बड़ा प्यार है
राजनीतिक तौर पर मोदी सत्ता की हार की दिशा में बढ़ते हुए कदम है या उस कदम के बाद आरएसएस के सामने आने वाली परेशानी है
ये कौन सी परिस्थिति है जो दशहरा के मौके पर निकलकर आई है क्योंकि उसके भीतर जवाब और जाइएगा तो उसमें एक चीज और नजर आएगी कि संघ को बलपूर्वक खडे भी होना यानी कोई टकराव नहीं आएगा तो जवाब भी देना है यानी सवाल हिंसा या अहिंसा का नहीं यहां पर जहां पर
सवाल उस राजनीतिक तीखेपन का है जिस राजनीतिक तीखेपन को मोदी सत्ता काल में पैदा किया गया
तो क्या यह अटल बिहारी वाजपेयी भी तो एक वक्त में प्रचारक रहे थे और वहां से निकलकर व प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे लेकिन उस दौर में भाषणों को अगर आप सुनेंगे खासतौर से केसी सुदर्शन के भाषण को
जो समय सरसंघ चालक हुआ करते थे उनके भाषणों में आपको ऐसी याद करते दिखाई नहीं देगी जो इस दौर में सरसंघ चालक मोहन भागवत जिस आदर्श परिस्थिति को खड़ा कर रहे थे और उस आदर्श परिस्थिति के साथ साथ बहुत मुश्किल हालातों को भी बता रहे थे और मुश्किल हालातों में संघ के सामने आने वाली परेशानी
क्या हो सकती है इस का भी अंदेशा दे रहे थे यह स्थिति पहले नहीं थी
तो क्या यह माना जाए कि इस दौर में इस देश के भीतर में सौ बरस होने को आ रहे आरएसएस के और अगले साल दशहरा से शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो जाएगी जो दो साल तक चलेगी
दो हज़ार छब्बीस तक चलेगी लेकिन जरा कल्पना कीजिए दो हज़ार चौबिस में मोदी सत्ता की हार एक झटके में आरएसएस को कितने पीछे ले जाएगी या फिर उसको किन मुश्किल हालातों में खड़ा करेगी या को यह बताने की जरूरत होनी नहीं चाहिए आरएसएस को इसका एहसास हो चला है
और इसीलिए जब पूरा भाषण का लब्बो लुबाब आपके सामने आएगा तो एक सवाल आएगा कि जो स्वयं सेवक रूठे हुए हैं वो समझ जाएं समझ लें एकजुटता के साथ कैसे खड़ा होना है चुनाव के वक्त में हालांकि चुनाव का भी खुले तौर पर सरसंघ चालक ने अपने भाषण में जिक्र किया
कि वह ज़िक्र वोट देने तक का था लेकिन एकजुटता और जिस लिहाज से दो हज़ार चौबिस के चुनाव की दिशा में बढ़ते हुए कदम और उससे पहले पांच राज्यों के चुनाव और खासतौर से जो चार पाँच राज्य है कहां पर वहां पर आरएसएस की शाखाएं बड़ी तादाद में है वह मध्यप्रदेश राजस्थान छत्तीसगढ़
हो तेलांगना हो या मिजोरम ही क्यों ना हो नॉर्थ ईस्ट भीतर भी एक हजार से ज्यादा
मौजूदगी बकायदा शाखाओं के सरिए और सवाल यह भी उठा था कि मणिपुर के भीतर
जब दो समुदायों के भीतर की हिंसक परिस्थितियों को रोक पाने में स्टेट फेल हो गया प्रधानमंत्री ने खामोशी बरती तो मणिपुर के सवाल को उठाकर सर संघ चालक ने मोदी सत्ता के उन घावों पर मरहम लगाने की कोशिश की जिससे कोई अकेला घाव न दे सके और यह कह दिया कि दरअसल वहां पर यह सब कुछ
कोई करा रहा है कौन करा रहा है कैसे करा रहा एस्टेट की भूमिका क्या होती है कॉन्स्टिट्यूशन क्या कहता है डेमोक्रेसी का मतलब क्या होता रूल ऑफ लॉ क्या होता है इस पर कोई बात नहीं राजनीति की एक नई लकीर आरएसएस के भीतर खींच रही है
उसे समझ में आने लगा है कि मोदी काल के दौर में उसका राजनीतिकरण उसके चाहे अनचाहे परिस्थितियों के साथ हो चुका है
और राजनीतिक परिणाम उसकी अपनी विचारधारा अपने संगठन अपनी सोच को प्रभावित करेंगे इससे कोई इंकार कर नहीं सकता है को की जवाब राजनीति के पिछलग्गू बन जाते हैं और अपनी विचारधारा छोड़कर सत्ता को ही सबसे बड़ी विचारधारा के तौर पर देखने वाली दृष्टि ले आते हैं तो उसके
बात चीजें बचती रही है और आप चाहे अनचाहे उस दायरे में खड़े हो ही जाते हैं जो इस देश की राजनीति से प्रभावित होती है और जिस राजनीति पर सरसंघचालक की आरोप लगा रहे हैं कि आप समाज को बांटते हैं समुदायों को बांटते हैं राजनीति वर्चस्व का खेल है वह अपने आयल अनुयायियों को पीछे लेने के
लिए किसी को दुश्मन बना ही लेता इन बातों का जिक्र किया गया
तो क्या यह एक ऐसी परिस्थिति में मोदी सत्ता आकर खड़ी हो गई है जहां मुश्किल हालात अब आरएसएस के सामने भी है क्योंकि आरएसएस का सोचना था दो हज़ार चौबिस में जब निन्यानवे बरस पूरे होंगे और सवा बजे शुरू होगा तब एक लाख शाखाएं इस देश में आरएसएस की चलेगी आज
तारीख में अगर देखें जो आखिरी डाटा इनका मार्च दो हज़ार बाईस का निकलकर आया हालांकि दो हज़ार तेईस को लेकर अलग अलग तरीके से लेकिन मार्च दो हज़ार बाईस तक लगभग इस देश के अड़तीस हजार तीन सौ नब्बे जगहों पर सात हजार से ज्यादा शाखाएं इनकी चलती है साप्ताहिक शाखाएं बीस हजार छः सौ एक
क्या है संघ मंडली लगभग आठ हजार या उससे कुछ कम की है और इसको फैलाना है और खास तौर से जिन राज्यों में अभी चुनाव हो रहे और उसके बाद जब देशभर में चुनाव होंगे जहां जहां संघ की बड़ी शाखाएं हैं उसमें खासतौर से केरल में वह नहीं है कर्नाटक में बड़ा प्रयोग उस दौर में की
गया वहां पर भी अब उसकी सत्ता नहीं है
आदिवासी इलाकों में चाहे वह मध्यप्रदेश का इलाका हो चाहे वह तेलांगना का इलाका हो या राजस्थान का इलाका हो वहां पर चुनावी हार मिली पिछली बार और इस बार उनकी अपनी राजनीतिक जमीन डबल इंजन के चक्कर में फंसती चली गई और यह सवाल लगातार उन जगहों पर हर कोई पूछता चला गया आदिवासियों के बीच काम करने वाले
इस डबल इंजन में आप बीजेपी के साथ ही आरएसएस के साथ हैं या दोनों एक है जवाब नहीं था किसी के पास इस मुश्किल हालात में सर चालक के सामने हो सकता है इस दौर में बहुत मुश्किल हो और ट्रेनिंग बैठाने की कोशिश लगातार हो रही हूँ शायद इसीलिए
पहले हिस्से में प्रधानमंत्री मोदी की उपलब्धियों का खांचा और दूसरी परिस्थिति में आरएसएस के सामने आने वाले संकट को लेकर इस देश के भीतर में एक आदर्श समाज की परिकल्पना रखने की कोशिश की गई है
आखिर के तीन सबसे बड़े सवाल
जो शायद सौ बरस की आरएसएस जो होने जा रही है उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती
रेफरेंस पहले का दो बरस एक प्रचारक की सत्ता इस देश में रही उस दौर में आरएसएस का जो भी विस्तार हुआ वह आरएसएस का विस्तार बीजेपी की सत्ता की मलाई खाने के लिए हो रहा था इसका जवाब कोई देने की स्थिति में आता नहीं
और इसीलिए कहा जाता है कि पूरे तरीके से ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट में संघ के लोग भरे पड़े हैं
क्वालिटी निकलकर नहीं आती है इस देश के भीतर में तमाम यूनिवर्सिटी में पीसीओ प्रोफेसर की नियुक्ति हो यहां तक कि दिल्ली तक में आरएसएस के दफ्तर से लड्डूओं का डब्बा पहुँच जाए तो कितनी बड़ी तादाद में हो वही तय करने लगा है
नियुक्तियों को लेकर यानी नौकरियों को लेकर आरएसएस इस दौर में सत्ता का एक जरिया बन गया यह पहला सवाल है जो सबसे मुश्किल हालात में आरएसएस को डालता है कि जब सत्ता नहीं रहेगी तब वह क्या करेगी यह पहला सवाल था
दूसरा सवाल जिस विचारधारा का जिक्र लगातार हो रहा है उसमें ध्यान दीजिए तो मोदी सत्ता ने प्रचारक के विचार को खोया सत्ता के विचार को अपनाया आरएसएस ने सत्ता के विचार को विचारधारा में तब्दील होते हुए देखा और अपने चालीस संगठनों में से जो महत्त्वपूर्ण
शेष संगठन हुआ करते थे वो स्वदेशी संगठन हो व किसान संघ का संगठन हो वह भारतीय मजदूर संघ का संगठन हो व अपने तरीके से आदिवासी कल्याण से जुड़ा हुआ संगठन हो वह महिलाओं से जुड़ा हुआ संगठनों ये तमाम संगठन कुंद पड़ गए और उस पूरी दायरे के भीतर में विश्व हिन्दू परिषद
भी कहीं का नहीं बचा
अपने संगठन को ही इस दौर में सत्ता की खातिर कमजोर इस दूसरे का जवाब भी नहीं मिलेगा
तीसरा सवाल अगर मोदी सत्ता नौ बरस से यह समझाती रही आरएसएस की कि हम हैं तो आप है तो अगला सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाएगा कि जब हम नहीं है तब आप कहां होंगे क्योंकि इन दो वर्षों में कांग्रेस के लौटने का मतलब संघ को तवे स्टोर नाइजेशन
की तरह परखने की परिस्थिति को बार बार सत्ता के जरिए बताया गया कहलाया दिया और एक झटके में अब ये सवाल निकल कर आ रहा है जब में बरस में कदम रखने पर उतारू है आरएसएस
सत्ता नहीं रहेगी तब क्या होगा
सुविधाएं नहीं रहेंगी तब क्या होगा विस्तार विचारधारा से होता है सुविधाओं से नहीं आरएसएस इसे तब भी नहीं समझ पाई और शायद अब भी नहीं समझ पा रही है लेकिन बावजूद इसके सर संघचालक स्वयंसेवकों को सक्रिय कर रहे हैं दिल्ली का पाठ सुनाकर
पचास सकते हो तो लो
संकट राजनीतिक दरवाजे पर आकर खड़ा है
बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत बहुत शुक्रिया