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Thursday, 26 October 2023

RSS BJP राजनीति को लेकर विश्लेष्ण ।

 
दोस्तों 
राजनीति की लकीर शायद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए एक ऐसी लक्ष्मण रेखा है जिसको पार करने की उसने कोशिश कभी किसी चुनाव में खुले तौर पर की नहीं तो की याद कीजिए चीन के साथ युद्ध के बाद का चुनाव हो या फिर एमरजेंसी के बाद उन्नीस सौ सतहत्तर
चुनाव या फिर मंडल कमंडल को लेकर इस देश के भीतर में राजनितिक सियासी घमासान और उसके बाद चुनाव का माहौल आरएसएस ने खुद को सामाजिक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर ही रखा और राजनीति को अपने से दूर करने का लगातार प्रयास
तरीके से किया जिससे यह न लगे कि स्वयं सेवक पॉलिटिक्स में हिस्सेदारी करने लगा
लेकिन दो हज़ार चौबिस का चुनाव शायद इस देश के लिए कितना अलग चुनाव है और यह चुनाव सिर्फ राजनीति को प्रभावित नहीं करेगा बल्कि समूचे देश को प्रभावित करेगा और उसकी शिकन या कहें उसको लेकर परेशानी का सबब आरएसएस के माथे पर
क्यों दिखाई देने लगा है
यह दूर की बात नहीं है कि हर बरस दशहरा के मौके पर आरएसएस के सर संघचालक उनका भाषण नागपुर में होता है कल भी हुआ लेकिन कल के भाषण ने उस लकीर के पार जाकर या आरएसएस के माथे पर एक ऐसी शिकन की लकीर खींच डाली
जहां पर उसे लगने लगा है कि आने वाले वक्त में आरएसएस को बिगाड़ने का काम इस देश में बाखूबी होगा और चुनाव के वक्त तो खासतौर से होगा तो क्या यह माना जाए कि राहुल गांधी ने जिस तरीके से आरएसएस को कटघरे में खड़ा किया और आरएसएस ने राहुल गांधी पर बाद
हानि से लेकर तमाम मुकद्दमों के मद्देनजर अदालती कटघरे में खड़ा किया यह एक राजनीतिक लड़ाई की शुरुआत है या फिर आने वाले वक्त में इस बात का एहसास दिल्ली की सत्ता को भी हो चला है कि अगर दिल्ली की सत्ता दो हज़ार चौबिस तक मंगाई तो निशाने पर सबसे पहले
इस देश में आरएसएस ही होगी
और शायद यही वजह है कि पहली बार सर संघ चालक का भाषण दशहरा के मौके पर जो नागपुर से निकला उसने दो बातों पर हर किसी का ध्यान कहीं ना कहीं आकर्षित कर दिया पहली बात तो यह लगा ऐसा कि दरअसल ये सर संघ चालक का भाषण नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली का भाषण है
जिसमें सरकार की उपलब्धियां दर्जनभर उपलब्धियों का जिक्र खुले तौर पर करते हुए इस देश के नेतृत्व को मौजूदा वक्त में नहीं बल्कि अतीत काल से लेकर आने वाले तक में सबसे बेहतरीन शासक के तौर पर स्थापित करना है
और दूसरी परिस्थिति है इस दौर में चाहे सवाल मुसलमानों का हो चाहे सवाल ईसाइयों का
उसको लेकर आरएसएस के भीतर अब एक हलचल हो चली है कि अगर सभी को एक बराबर नहीं रखा और राजनीति एक बराबर रखती नहीं है और मोदी सत्ता ने एक बराबर रखा नहीं है
तो क्यों नहीं उस राजनीति से दो कदम पीछे हट कर खुद को सामाजिक सांस्कृतिक तौर से आगे निकलकर एक ऐसी राजनीतिक परिस्थितियों को इस देश के सामने रखने की जरूरत है जहां कहा जा सके कि देखिए हम सेकुलर हम समाजवादी है
हम सबको साथ लेकर चलना चाहते घाव तो बहुत गहरे होंगे लेकिन यह तौर घाव को भरने का है यह मत सोचिए कि आपके साथ कब क्या अतीत में हुआ है वह तो राजनीति की जरूरत होती है लेकिन जिस देश की जरूरत शायद उन घावों को याद करना नहीं है प्रगति के
पथ पर सभी को एक साथ मिलकर चलना होगा
अब आपके जहन में दो सवाल होंगे पहला सवाल व कौन सी उपलब्धियां है जो एक तरफ देश के सर संघ चालक दशहरा के मौके पर इस देश को स्वयंसेवकों के जरिए बताना चाहते हैं और दूसरा सवाल व कौन सी परिस्थिति है जिसमें अब उन्हें महसूस हो
आने लगा है कि इस देश के भीतर जितनी लकीरें खींची गई है उन्हें लकीरों को अगर नहीं मिटाया गया या आरएसएस उसे मिटाते हुए नजर नहीं आई तो फिर चुनाव के बाद क्या होगा शायद इसके लिए आरएसएस व तैयार हो जाना चाहिए
आरएसएस अपने तौर पर कितनी तैयार है और तैयार होना चाहिए कागज पर अलग है और वैचारिक तौर पर और शायद इस देश के परसेप्शन के तौर पर व एक अलग सोच है
दूसरी सोच है कि इस दौर में क्या खुद प्रधानमंत्री जो एक वक्त संघ के प्रचारक रहे और संघ के प्रचारक के प्रधानमंत्री बनने पर आरएसएस ने खूब ढोल पीटे लेकिन इस देश के भीतर जो नफरत और घृणा का जिक्र राहुल गांधी ने लगातार यह कह कर की
या कि मोहब्बत की जरूरत क्यों है क्या उसका एहसास पहली बार राजनीतिक तौर पर आरएसएस को होने लगा है
आप सोच रहे होंगे ये पहेलियाँ बुझाई जा रही है जी नहीं यहां पर चार पांच सवाल पहले आप सुन लीजिए उसके बाद एक पन्नों को हम खोदते चलेंगे पहला सवाल आरएसएस का स्वयंसेवक जमीन पर काम करता है और उसने देखा परखा के इस दौर में मोदी सत्ता के जरिए जो मुद्दे आर्थिक तौर
पर इस देश में निकल कर आए उसको लेकर बोलने वाला सत्ता में कोई रही है
तो आरएसएस की पहली मुश्किल यानी स्वयंसेवक की पहली मुश्किल वहां पर थी
दूसरे मुश्किल है इस दौर में मोदी सत्ता के साथ आरएसएस की सत्ता को खड़ा करके राहुल गांधी या कांग्रेस ने या विपक्ष ने सीधे तौर पर जब निशाने पर लिया तो देश की डेमोक्रेसी और कॉन्स्टिट्यूशन का भी जिक्र किया यह दूसरा सवाल था
तीसरा सवाल है कि आरएसएस अपने तौर पर सामाजिक या सांस्कृतिक परिस्थितियों को जीना इस दौर में छोड़ चुका है और राजनीतिक तौर पर मोदी सत्ता के हर कार्यक्रम के पीछे खड़ा है यह तीसरा सवाल है
चौथा सवाल है स्वयंसेवक की भूमिका और बीजेपी कैडर की भूमिका दोनों एक लकीर पर चलने की स्थिति में इस देश के भीतर नहीं है यह चौथा सवाल पांचवां सवाल है इन तमाम परिस्थितियों में सर संघ चालक की भूमिका क्या होनी चाहिए एक और सर संघ
चालक को क्या अगर अपने स्क्रिप्ट को थमा दिया जाए और वह बोलना शुरू करें तो लगे जैसे प्रधानमंत्री मोदी का भाषण चल रहा है उससे काम चल जायेगा क्या यह पांचवां सवाल है और इन्हीं सवालों के इर्द गिर्द कल दशहरा के मौके पर सर संघ चालक का भाषण राहुल
गांधी का संघ को निशाने पर लेना मोदी सत्ता की चुनाव के मौके पर डांवाडोल स्थिति होना और ऐसे में एक तरफ मोदी सत्ता को भी संभालना है और दूसरी तरफ आरएसएस को भी पुरानी परिस्थितियों के साथ नई दिशा में खड़ा करना है यह भी चुनौती है और इसी
गिरि सारी चीजें धीरे धीरे चल रही है इसीलिए जो स्क्रिप्ट दिल्ली से निकलकर नागपुर पहुंची सबसे पहले उसका सकते
सामान्य तौर पर यह होता नहीं है कि किसी सत्ता के कार्यक्रमों को सर संघचालक एक लाइन में बताने लग जाए लेकिन कल उन्होंने बतलाया यानी मैसेज बहुत साफ दिल्ली का था कि आप उपलब्धियों को परोसते चले जाइए अन्यथा आने वाले वक्त में हम चुनाव हारे तो फिर आप भी कही
नहीं रहेंगे
जरा एक दर्जन मुद्दों को परखने की कोशिश कीजिए
जी ट्वंटी के जरिए जो सफलता मिली
उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान भारत के उसमें बन गई इसी बात का जिक्र मोदी तमाम रैलियों में करते दूसरी पर थी आर्थिक परिस्थितियों में भारत पांचवें पायदान पर पहुंच गया और आने वाले वक्त में पाँच ट्रिलियन के साथ तीसरे पायदान पर होगा इसका जिक्र भी मोदी करते हैं जिसका जिक्र नागपुर के दशहरा मैदान में हो रहा था
डिजिटल टेक्नोलॉजी हमारे देश में कैसे आई और गांव गांव तक फैल गई इसका जिक्र मोदी भाषण में करते हैं सरसंघ चालक ने दशहरा में किया स्टार्टअप इंडिया के जरिए अब जरुरी नहीं है कि नौकरियां दिया जाए हम तो अपने तौर पर इस देश में नौकरियों को खड़ा करने वाले लोगों को खड़ा कर रहे हैं जो लोग ही नौकरी दे दूसरे को
तो सरकार पल्ला झाड़ती है इसका जिक्र मोदी करते हैं और इसका जिक्र सरसंघचालक चालक ने नागपुर में किया चंद्रयान की उपलब्धि वैज्ञानिकों की उपलब्धि का सिक्का प्रधानमंत्री मोदी करते हैं
सर संघ चालक ने भी किया खिलाड़ियों का इस दौर में पदकों को लाना और एशियन गेम्स में सौ का आंकड़ा पार कर जाना इसका जिक्र भी प्रधानमंत्री मोदी करते हैं इसका जिक्र भी किया गया सरसंघ चालक के जरिए प्रधानमंत्री मोदी मुस्लिमों के भीतर पसमांदा समाज को खोजते हैं और पसमांदा समाज से इतर हटकर
मुस्लिमों को साथ कैसे खड़ा करना है और उनका भी बराबर हक इस देश के भीतर है और एक लिहाज से सभी बराबर हैं विभाजन का घाव हो या कुछ भी गांव उसको भूल जाइए सब एक साथ खड़े हैं इसको नए तरीके से सर संघ चालक ने मुस्लिम और इसाई दोनों को लेकर रखने की कोशिश दशहरा के भाषण देंगे
चीन को लेकर प्रधानमंत्री अधिकतर खामोश रहते हैं वहीं खामोशी को नए तरीके से सरसंघचालक ने नागपुर में रखने की कोशिश की और हिमालय के जरिए भारत का पर्यावरण हो भारत के भीतर का मौसम विज्ञान हो सीमा की परिस्थितियों इसको रखकर रखा चीन इसे डिस्टर्ब करने की कोशिश करता है लेकिन
इसके बाद के सवाल कहीं ज्यादा मौजूद है
मंदिर अयोध्या में राम मंदिर बाईस जनवरी को प्रधानमंत्री इसका ज़िक्र बाखूबी करते हैं सर संघ चालक में इसका जिक्र बात को भी किया
विरोध जो लोग करते हैं वो नेगेटिव होते हैं
इसका जिक्र प्रधानमंत्री करते हैं इनसे जो सवाल पूछता है प्रधानमंत्री को वह नेगेटिव और विरोध करने वाले लाख लोग उन्हें भारतीय नहीं है कुछ इसी अंदाज में सरसंघ चालक ने कहा भटक यह मत उनके दायरे में आकर खड़ा होता है
प्रधानमंत्री खुद को विश्व गुरु के तौर पर रखना चाहते हैं विश्व गुरू के तौर पर और समाधान भारत ही दे सकता इसका जिक्र सरसंघ चालक ने किया और जिस अमृत काल का जिक्र लगातार प्रधानमंत्री मोदी करते हैं उसी अमृत काल का जिक्र नए सिरे से कि इस अमृत काल में यह सब देखने को हमको बिल रहा है कि चौतरफा प्रो
गति है
यस सर संघ चालक ने किया गया है इस देश की सरकार का भाषण नहीं है
यह प्रधानमंत्री मोदी के रैली का भाषण नहीं है यह दशहरा के मौके पर जब संघ की स्थापना हुई थी उस दिन के महत्व को समझ और उसके बाद सर संघ चालक की पहली स्क्रिप्ट लिस्ट को पढ़िए दिल्ली से यह लिखकर नागपुर पहुंचे
और उसको सरसंघ चालक ने अपने तौर पर पड़ती है
तीन चार महीने इसके बहुत साफ है पहला बोधि न होंगे
तो इस देश में कुछ भी संभव नहीं है यह उसका पहला हिस्सा उसके भीतर का परसेप्शन बनाने की कोशिश है दूसरा विश्व गुरु भारत क्यों हो चला है और दुनिया भर में भारत का डंका कैसे बज रहा है और वह भी प्रधानमंत्री मोदी के इर्द गिर्द यह भी बताने की कोशिश हुई सभी क्षेत्रों में विकास और विकास को लेकर
आपस में प्रतिस्पर्धा मत कीजिए और टकराई यह मत अलग समुदाय जाति उपजाति भूल जाइए इसको और नए सिरे से समझिए कि सभी एक है सर संघ चालक को यह कहना पड़ा जाति और उपजाति यानी एक तरफ ओबीसी का सवाल जब इस देश में उठाए तो कहीं उस पर लीपापोती कैसे की जाए यह भी आपको नागपुर में सरपंच
चालक के भाषण में हिस्सा आपको दिखाई देगा सिर्फ परखने की जरूरत है
बड़ा सवाल यह था कि भारत का जो उत्थान है उसमें दुख है कि नहीं शोषण है कि नहीं या सिर्फ कल्याण ही कल्याण है तो शोषण और दुख तो नहीं कल्याण ही कल्याण है जिसका जिक्र अक्सर प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में करते हैं उसी का जिक्र नए सिरे से दशहरा के भाषण में
सर सरसंघचालक नहीं किया यह पहला हिस्सा है इस हिस्से के बाद शायद सरसंघ चालक को समझ में आया होगा यह तो पढ़ना पड़ेगा तो उन्होंने पढ़ा दिया उसके बाद दूसरा सवाल था इस देश के भीतर में संघ को जब कटघरे में राजनीति खुले तौर पर खड़ा कर रही है
और न सिर्फ खड़ा कर रही है बल्कि उसके जरिए उसकी विचारधारा और उसकी सोच पर भी पहली बार उंगली उठ रही है तो क्यों और चुनाव के मद्देनजर अब नए तरीके से आरएसएस को रखने की जरूरत क्या आ गई है और जिसका रास्ता राजनीति से नहीं निकलता है दो हज़ार चौदह से लेकर दो हज़ार
चार इकतीस तक के भाषण अगर आप ध्यान देंगे जो दशहरा के मौके पर नागपुर से निकलकर आए उसमें राजनीतिक सत्ता के इर्द गिर्द और राजनीति के जरिए समाधान खोजने की कोशिश लगातार हुई लेकिन पहली बार जब सवाल आरएसएस का ही आ गया बाकी मुद्दे तो अपनी
का समाधान राजनीति खोज लेगी लेकिन जब विचारधारा और आरएसएस का सवाल है तो राहुल गांधी ने इस दौर में लगातार सवाल उठाए हैं उससे आहत हैं
उससे डरे हुए हैं चुनाव को लेकर परेशान है क्योंकि चुनाव के मौके पर और चुनाव की प्रतिस्पर्धा में सेंध न पड़े या दिखाते हुए भी इस देश का स्वयं सेवक मोदी सत्ता को बचाने के लिए सक्रिय हो जाए या मैसेज देने की कोशिश भी कहीं न कहीं इस पूरे
भाषण के दौर में निकल कर आई जिसको लेकर एक तरीके से यह अपनी नई सोच है
क्योंकि बहुत साफ तौर पर कहा गया कि समाज को बांटना तो राजनीति का काम है
इससे पहले कभी कहा गया सत्ता जिस रास्ते चलती है वह अपने सत्ता अपने अनुयायियों को बनाए रखने के लिए समाज में लकीरें खींच दी है क्या इससे पहले कहा गया
राजनीति के वर्चस्व को कायम करने के लिए राजनीति क्या क्या करती है उसके साथ हमें खड़े नहीं होना है क्या इससे पहले यह कहा गया
समाज की एकता राजनीति से नहीं आएगी
क्या ये इससे पहले कहा गया
इस देश के भीतर में जो अलग अलग तरीके से लोगों को लगता है कि हमें स्पर्धा हम पिछड़ गए हैं हमको ये चीजें नहीं मिली है ये सारी चीजों का जिक्र होते होते संविधान और बाबा साहब अंबेडकर का जिक्र भी इस मौके पर हो दशहरा के भाषण में जब सबको पता है इसी दौर में धर्म पड़ी
पर
बाबा साहब अंबेडकर ने नागपुर में ही किया था और महज दस किलोमीटर की दूरी पर धर्म परिवर्तन की उस जगह पर दशहरा के दिन ही वहां पर तमाम दलित देश दुनिया भर के लोग पहुंचते हैं लाखों की तादाद में होते हैं और वहां इस बात का एहसास हर किसी को होता है कि धर्म परिवर्तन का मतलब क्या है
वह हिंदुत्व के दायरे में नहीं आता है वो आरएसएस के हिंदुत्व की सोच के दायरे में नहीं आता है लेकिन बाबा साहब अंबेडकर का जिक्र हुआ
सरसंघचालक चालक ने किया राजनीतिक तौर पर एक बड़ा शिफ्ट है एक बड़ा प्यार है
राजनीतिक तौर पर मोदी सत्ता की हार की दिशा में बढ़ते हुए कदम है या उस कदम के बाद आरएसएस के सामने आने वाली परेशानी है
ये कौन सी परिस्थिति है जो दशहरा के मौके पर निकलकर आई है क्योंकि उसके भीतर जवाब और जाइएगा तो उसमें एक चीज और नजर आएगी कि संघ को बलपूर्वक खडे भी होना यानी कोई टकराव नहीं आएगा तो जवाब भी देना है यानी सवाल हिंसा या अहिंसा का नहीं यहां पर जहां पर
सवाल उस राजनीतिक तीखेपन का है जिस राजनीतिक तीखेपन को मोदी सत्ता काल में पैदा किया गया
तो क्या यह अटल बिहारी वाजपेयी भी तो एक वक्त में प्रचारक रहे थे और वहां से निकलकर व प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे लेकिन उस दौर में भाषणों को अगर आप सुनेंगे खासतौर से केसी सुदर्शन के भाषण को
जो समय सरसंघ चालक हुआ करते थे उनके भाषणों में आपको ऐसी याद करते दिखाई नहीं देगी जो इस दौर में सरसंघ चालक मोहन भागवत जिस आदर्श परिस्थिति को खड़ा कर रहे थे और उस आदर्श परिस्थिति के साथ साथ बहुत मुश्किल हालातों को भी बता रहे थे और मुश्किल हालातों में संघ के सामने आने वाली परेशानी
क्या हो सकती है इस का भी अंदेशा दे रहे थे यह स्थिति पहले नहीं थी
तो क्या यह माना जाए कि इस दौर में इस देश के भीतर में सौ बरस होने को आ रहे आरएसएस के और अगले साल दशहरा से शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो जाएगी जो दो साल तक चलेगी
दो हज़ार छब्बीस तक चलेगी लेकिन जरा कल्पना कीजिए दो हज़ार चौबिस में मोदी सत्ता की हार एक झटके में आरएसएस को कितने पीछे ले जाएगी या फिर उसको किन मुश्किल हालातों में खड़ा करेगी या को यह बताने की जरूरत होनी नहीं चाहिए आरएसएस को इसका एहसास हो चला है
और इसीलिए जब पूरा भाषण का लब्बो लुबाब आपके सामने आएगा तो एक सवाल आएगा कि जो स्वयं सेवक रूठे हुए हैं वो समझ जाएं समझ लें एकजुटता के साथ कैसे खड़ा होना है चुनाव के वक्त में हालांकि चुनाव का भी खुले तौर पर सरसंघ चालक ने अपने भाषण में जिक्र किया
कि वह ज़िक्र वोट देने तक का था लेकिन एकजुटता और जिस लिहाज से दो हज़ार चौबिस के चुनाव की दिशा में बढ़ते हुए कदम और उससे पहले पांच राज्यों के चुनाव और खासतौर से जो चार पाँच राज्य है कहां पर वहां पर आरएसएस की शाखाएं बड़ी तादाद में है वह मध्यप्रदेश राजस्थान छत्तीसगढ़
हो तेलांगना हो या मिजोरम ही क्यों ना हो नॉर्थ ईस्ट भीतर भी एक हजार से ज्यादा
मौजूदगी बकायदा शाखाओं के सरिए और सवाल यह भी उठा था कि मणिपुर के भीतर
जब दो समुदायों के भीतर की हिंसक परिस्थितियों को रोक पाने में स्टेट फेल हो गया प्रधानमंत्री ने खामोशी बरती तो मणिपुर के सवाल को उठाकर सर संघ चालक ने मोदी सत्ता के उन घावों पर मरहम लगाने की कोशिश की जिससे कोई अकेला घाव न दे सके और यह कह दिया कि दरअसल वहां पर यह सब कुछ
कोई करा रहा है कौन करा रहा है कैसे करा रहा एस्टेट की भूमिका क्या होती है कॉन्स्टिट्यूशन क्या कहता है डेमोक्रेसी का मतलब क्या होता रूल ऑफ लॉ क्या होता है इस पर कोई बात नहीं राजनीति की एक नई लकीर आरएसएस के भीतर खींच रही है
उसे समझ में आने लगा है कि मोदी काल के दौर में उसका राजनीतिकरण उसके चाहे अनचाहे परिस्थितियों के साथ हो चुका है
और राजनीतिक परिणाम उसकी अपनी विचारधारा अपने संगठन अपनी सोच को प्रभावित करेंगे इससे कोई इंकार कर नहीं सकता है को की जवाब राजनीति के पिछलग्गू बन जाते हैं और अपनी विचारधारा छोड़कर सत्ता को ही सबसे बड़ी विचारधारा के तौर पर देखने वाली दृष्टि ले आते हैं तो उसके
बात चीजें बचती रही है और आप चाहे अनचाहे उस दायरे में खड़े हो ही जाते हैं जो इस देश की राजनीति से प्रभावित होती है और जिस राजनीति पर सरसंघचालक की आरोप लगा रहे हैं कि आप समाज को बांटते हैं समुदायों को बांटते हैं राजनीति वर्चस्व का खेल है वह अपने आयल अनुयायियों को पीछे लेने के
लिए किसी को दुश्मन बना ही लेता इन बातों का जिक्र किया गया
तो क्या यह एक ऐसी परिस्थिति में मोदी सत्ता आकर खड़ी हो गई है जहां मुश्किल हालात अब आरएसएस के सामने भी है क्योंकि आरएसएस का सोचना था दो हज़ार चौबिस में जब निन्यानवे बरस पूरे होंगे और सवा बजे शुरू होगा तब एक लाख शाखाएं इस देश में आरएसएस की चलेगी आज
तारीख में अगर देखें जो आखिरी डाटा इनका मार्च दो हज़ार बाईस का निकलकर आया हालांकि दो हज़ार तेईस को लेकर अलग अलग तरीके से लेकिन मार्च दो हज़ार बाईस तक लगभग इस देश के अड़तीस हजार तीन सौ नब्बे जगहों पर सात हजार से ज्यादा शाखाएं इनकी चलती है साप्ताहिक शाखाएं बीस हजार छः सौ एक
क्या है संघ मंडली लगभग आठ हजार या उससे कुछ कम की है और इसको फैलाना है और खास तौर से जिन राज्यों में अभी चुनाव हो रहे और उसके बाद जब देशभर में चुनाव होंगे जहां जहां संघ की बड़ी शाखाएं हैं उसमें खासतौर से केरल में वह नहीं है कर्नाटक में बड़ा प्रयोग उस दौर में की
गया वहां पर भी अब उसकी सत्ता नहीं है
आदिवासी इलाकों में चाहे वह मध्यप्रदेश का इलाका हो चाहे वह तेलांगना का इलाका हो या राजस्थान का इलाका हो वहां पर चुनावी हार मिली पिछली बार और इस बार उनकी अपनी राजनीतिक जमीन डबल इंजन के चक्कर में फंसती चली गई और यह सवाल लगातार उन जगहों पर हर कोई पूछता चला गया आदिवासियों के बीच काम करने वाले
इस डबल इंजन में आप बीजेपी के साथ ही आरएसएस के साथ हैं या दोनों एक है जवाब नहीं था किसी के पास इस मुश्किल हालात में सर चालक के सामने हो सकता है इस दौर में बहुत मुश्किल हो और ट्रेनिंग बैठाने की कोशिश लगातार हो रही हूँ शायद इसीलिए
पहले हिस्से में प्रधानमंत्री मोदी की उपलब्धियों का खांचा और दूसरी परिस्थिति में आरएसएस के सामने आने वाले संकट को लेकर इस देश के भीतर में एक आदर्श समाज की परिकल्पना रखने की कोशिश की गई है
आखिर के तीन सबसे बड़े सवाल
जो शायद सौ बरस की आरएसएस जो होने जा रही है उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती
रेफरेंस पहले का दो बरस एक प्रचारक की सत्ता इस देश में रही उस दौर में आरएसएस का जो भी विस्तार हुआ वह आरएसएस का विस्तार बीजेपी की सत्ता की मलाई खाने के लिए हो रहा था इसका जवाब कोई देने की स्थिति में आता नहीं
और इसीलिए कहा जाता है कि पूरे तरीके से ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट में संघ के लोग भरे पड़े हैं
क्वालिटी निकलकर नहीं आती है इस देश के भीतर में तमाम यूनिवर्सिटी में पीसीओ प्रोफेसर की नियुक्ति हो यहां तक कि दिल्ली तक में आरएसएस के दफ्तर से लड्डूओं का डब्बा पहुँच जाए तो कितनी बड़ी तादाद में हो वही तय करने लगा है
नियुक्तियों को लेकर यानी नौकरियों को लेकर आरएसएस इस दौर में सत्ता का एक जरिया बन गया यह पहला सवाल है जो सबसे मुश्किल हालात में आरएसएस को डालता है कि जब सत्ता नहीं रहेगी तब वह क्या करेगी यह पहला सवाल था
दूसरा सवाल जिस विचारधारा का जिक्र लगातार हो रहा है उसमें ध्यान दीजिए तो मोदी सत्ता ने प्रचारक के विचार को खोया सत्ता के विचार को अपनाया आरएसएस ने सत्ता के विचार को विचारधारा में तब्दील होते हुए देखा और अपने चालीस संगठनों में से जो महत्त्वपूर्ण
शेष संगठन हुआ करते थे वो स्वदेशी संगठन हो व किसान संघ का संगठन हो वह भारतीय मजदूर संघ का संगठन हो व अपने तरीके से आदिवासी कल्याण से जुड़ा हुआ संगठन हो वह महिलाओं से जुड़ा हुआ संगठनों ये तमाम संगठन कुंद पड़ गए और उस पूरी दायरे के भीतर में विश्व हिन्दू परिषद
भी कहीं का नहीं बचा
अपने संगठन को ही इस दौर में सत्ता की खातिर कमजोर इस दूसरे का जवाब भी नहीं मिलेगा
तीसरा सवाल अगर मोदी सत्ता नौ बरस से यह समझाती रही आरएसएस की कि हम हैं तो आप है तो अगला सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाएगा कि जब हम नहीं है तब आप कहां होंगे क्योंकि इन दो वर्षों में कांग्रेस के लौटने का मतलब संघ को तवे स्टोर नाइजेशन
की तरह परखने की परिस्थिति को बार बार सत्ता के जरिए बताया गया कहलाया दिया और एक झटके में अब ये सवाल निकल कर आ रहा है जब में बरस में कदम रखने पर उतारू है आरएसएस
सत्ता नहीं रहेगी तब क्या होगा
सुविधाएं नहीं रहेंगी तब क्या होगा विस्तार विचारधारा से होता है सुविधाओं से नहीं आरएसएस इसे तब भी नहीं समझ पाई और शायद अब भी नहीं समझ पा रही है लेकिन बावजूद इसके सर संघचालक स्वयंसेवकों को सक्रिय कर रहे हैं दिल्ली का पाठ सुनाकर
पचास सकते हो तो लो
संकट राजनीतिक दरवाजे पर आकर खड़ा है
बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत बहुत शुक्रिया

Sunday, 22 October 2023

विकास का नया मॉडल और सरकारी सिस्टम को कम पर लगाना ।

 
दोस्तों आप मानें या न मानें लेकिन मोदी सरकार मान चुकी है कि भारत विकसित राष्ट्र होने की दिशा में बढ़ चला है और अगर विकसित देश भारत नहीं हो रहा है और आपके भीतर कोई सवाल है तो फिर हो सकता है
कल आपके घर के दरवाजे पर भी एक फरमान आ जाए और जिसमें लिखा हुआ हो कि आप ही को यह प्रचार करना है कि भारत विकसित राष्ट्र व चला है और यह प्रचार आपको अपने घर पर अपने मोहल्ले में अपने गांव में अपने उस पूरे इलाके के भीतर करना है जहां
पर भी आप जा सकते हैं क्योंकि यह फरमान है तो आपको यह काम करना पड़ेगा आप कहेंगे कैसे यह संभव है जिस देश के भीतर अभी भी रोजगार को लेकर लाले पड़े हुए हूँ किसानों को अपनी आय जो लागत होती है वहां भी मिल नहीं पा रही हो
आंखों में डिग्री लेकर इस देश के भीतर का युवा अभी भी सड़कों पर धूल फांक रहा हो और आप कहते हैं हम विकसित हो चले हैं
अगर विकसित का मतलब प्रति व्यक्ति आय ही सही तो अभी भी हम लगभग तेरह गुना विकसित राष्ट्रों की तुलना में पिछड़े हुए हैं तो हम विकसित कैसे हो गए लेकिन फरमान है तो आपको मानना पड़ेगा आप सोच रहे हैं यह बड़ी अजीबो गरीब स्थिति है कि फरमान कोई ऐसा कैसे
सकता है कि हम विकसित हो गए जिन्हें अभी आपके पास यह फरमान नहीं आएगा लेकिन कल परसों उसके बाद कभी भी आभी सकता है ये सवाल अब इसलिए बड़ा हो चला है क्योंकि इस देश के तमाम नौकरशाहों को इस देश में घूम घूमकर और पकाएं
फायदा ग्राम पंचायतों तक में घूम घूमकर यह बताना है कि भारत विकसित राष्ट्र होने की दिशा में संकल्प लेकर चल पड़ा है और इस देश के भीतर में जो एग्रीकल्चर यानी खेती है और जो किसान है उसकी माली हालत में कितना सुधार हुआ है सरकार ने किस किस
तरह के कि कौन कौन सी योजनाएं इस देश में लागू करती है यह बताने का का इस देश के आईएएस करेंगे वह तमाम अधिकारी करेंगे जो पीढ़ियों से लेकर कलेक्टर तक तमाम जिलों को संभालते हैं अब उनका यह काम है कि सरकार की उन कार्यक्रमों को जनता तक यह कहकर पहुंचा
माना है कि दरअसल हम कितने विकसित राष्ट्र होने की दिशा में पर चले तो हो सकता है आपके जहन में एक सवाल इस बात को लेकर भी हो क्या ऐसा तो नहीं है इससे पहले सेना को कहा गया कि आप सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रम को लेकर नौ शहरों में खून जाइए
और वहां पर अलग अलग प्वॉइंट बताइए और चूंकि सेना के प्रति जनता का भाव बेहतरीन होता है उसे गौरव महसूस होता है तो सरकार की योजना अगर सेना ही बताने लगे तो क्या फर्क पड़ता है सरकार तो जनता की है और उसकी योजनाएं जनता के लिए है तो फिर सेना को इसमें लगा दिया जाए उसका
अगला स्टेप अब नौकर शाही की दिशा में बढ़ा है
यानी सवाल बहुत पुराना हो चला है कि सरकार पूरे सिस्टम को अपने प्रचारक के तौर पर कैसे इस्तेमाल कर रही थी
यह सवाल पुराना हो चला है कि सत्ता में बने रहने के लिए सपा के लिए जो अलग अलग सरकारी संस्थानों का उपयोग इस दौर में हो रहा था वो सारे सवाल अब पीछे छूट गए
नया फरमान नौकर शाही के लिए है और इस नौकर शाही फरमान की एक तस्वीर जरा आप देख लीजिए जो तीन दिन पहले ही जारी की गई इस देश के भीतर में चाहे वह डिप्टी सेक्रेटरी हो ज्वाइंट सेक्रेटरी और डायरेक्टर लेवल का अधिकारी हो इस देश के भीतर में जितने भी जिले हैं
उन जिलों में जितने भी ग्राम पंचायतें हैं उन तमाम जगहों पर अगले सात दिनों तक ऐसा कार्यक्रम चलाया जाए जिससे लोगों के जहन में यह बात बस जाए कि हाँ यही वह परिस्थिति है जिसमें भारत विकसित तो हो चला है और इसके लिए बकायदा
जो फरमान जारी किया गया है व जे एस मलिक अंडर सेक्रेटरी गवर्नमेंट ऑफ इंडिया उनके जरिए यह फरमान प्रिंसिपल चीफ कमिश्नर ऑफ इनकम टैक्स उनको बताया गया कि आप ज्वाइंट सेक्रेटरी डायरेक्टर डिप्टी सेक्रेटरी हर अलग अलग सर्विस के भीतर डिप्लॉयमेंट होगा और एक रथ यात्रा निकलेगी
जिसके जरिए गांव गांव में आप सोचेंगे कितने का तो गांव तकरीबन दो लाख उनहत्तर हजार गांव और झीलें लगभग सात सौ पैंसठ जिले इन तमाम जगहों पर यह अधिकारी घूमेंगे हम इस बात का और आगे बढ़ाएं उससे पहले जरा इस फरमान को देख लीजिए
ठीक देखा आपने यही वह चिट्ठी है जो जारी की गई है और इसकी तारीख जो है वह सत्रह दस दो हज़ार तेईस की है जो फाई नंबर है वह आई तो एक सीरो फोर सेवन एक पब्लिक टू जीरो टू थ्री
और देश के सात सौ पैंसठ जिले दो लाख उनहत्तर हजार ग्राम पंचायतों में इस देश के भीतर एग्रीकल्चर यानी खेती और किसानों के कल्याण को लेकर सरकार ने जो भी काम किया है उसको बकायदा सेलिब्रेशन के साथ बतलाना है इन तमाम अधिकारियों को और नौ
हाल में सरकार की जो उपलब्धियां इस दौर में की गई वो सबकुछ इस दौर में बताना है और उसका नाम रखा गया है विकसित भारत संकल्प यात्रा जानकारी लेनी है जानकारी देनी है जागरुकता पैदा करनी है ग्राम पंचायत लेवल पर करनी है और यह बीस नवंबर दो हज़ार इक्कीस
से यह रथ यात्रा शुरू हो जाएगी जो कि पच्चीस जनवरी दो हज़ार चौबिस तक चलेगी यानी छब्बीस जनवरी के एक दिन पहले तक और इस दौर में जो भी प्रिपरेशन होगा जो भी प्लानिंग होगी उसका जो भी एक्सप्रेशन होगा उसकी जो भी मॉनिटरिंग होगी इस रथयात्रा को लेकर तमाम बड़े
अधिकारी एकजुट हो जाएं और इसके जो पद घोषित किया गया इसमें बड़े बड़े अधिकारी यह न सोचे कि उनका यह काम नहीं है इसी लिए बकायदा लिख दिया गया सरकार के भीतर डायरेक्टर तक कि अधिकारी ज्वाइंट सेक्रेटरी तक के अधिकारी डिप्टी सेक्रेटरी तक के अधिकारी से जुड़ेंगे और दिल्ली जैसे क्षेत्र
में भी पंद्रह अधिकारियों की स्पेशल तौर पर नियुक्ति होगी
हो सकता है आप सोच रहे होंगे अगर वाकई सरकार सूबे से लेकर रात तक और उनके इलाके का वीडियो हो या फिर जिले के भीतर में कलेक्टर और डीएम ही क्यों ना हो वहां भी अगर बताने लगेगा कि यह कमाल की स्थिति इस देश के भीतर आ चुकी है और हम विकसित राष्ट्र होने की दिशा में बढ़ चुके हैं तो सरकार का का
कार्यक्रम जरा समझ लीजिए
दिसंबर के महीने में प्रधानमंत्री मोदी इस देश में दो हज़ार सैंतालीस का वीजा रखें
कैसा विकसित राष्ट्र होगा उससे पहले विकसित राष्ट्र आपके जहन में बस जाना चाहिए इसीलिए इसकी शुरुआत बीस नवंबर से वह जाएगी और चूंकि यह रथ यात्रा के जरिए निकलेगा जो जिले जिले गांव गांव ग्राम पंचायत के भीतर रथ यात्रा के तौर पर देखा जाएगा तो जनवरी के महीने
आते आते अयोध्या में राम मंदिर और उसमें भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम भी हो जाएगा जिसमें प्रधानमंत्री शरीफ भी होंगे
यानी चुनाव की दिशा में बढ़ते हुए देश के भीतर में पहले सेना को झोंका गया अब देश की नौकरशाही को झोंका जा चुका है इस देश के भीतर में मीडिया उसको तो पहले ही अपने हाथ में ले लिया गया और बताया गया आपको किस रूप में कौन सा कार्य करना है
फरवरी के महीने में अंतरिम बजट कामना है उस अंतरिम बजट में इस रथयात्रा निकाली जायेगी गांव किसान मजदूर इनके कल्याणकारी योजना इनके हक को बताते हुए कि हमने आपको यही दे दिया है अब आप आंखमिचौली न करें कोई सवाल न करें तो एक क्षण के लिए जरा हमें लगता है
कि आज इस देश की उस स्थिति को समझिए जहां पर इस देश के ग्राम पंचायत और झीलों के भीतर सरकार इस संकल्प यात्रा जो विकसित भारत के नाम के साथ निकाल रही है उसका सच क्या है
बकायदा सरकार का नीति आयोग यह कहता है कि इस देश के भीतर में एक सौ पच्चीस एस्प्रेसो डिस्टिक उन्होंने बनाया जो बड़े ही गरीब जिले हैं उन गरीब जिलों के भीतर की प्रति व्यक्ति आय इस देश की औसत आय जो सरकार ने बताई उसकी तुलना में लगभग एक चौथाई है या
यानी पच्चीस पर्सेंट है
और अगर इन गांव के भीतर चले जाइएगा जिनकी संख्या एक सौ पच्चीस ब्रेसनन डिस्टिक के भीतर तकरीबन चालीस हजार से ज्यादा गांव जो यहां पर मौजूद हैं वहां पर न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने के लिए भी इन लोगों को अभी भी पांव पर खड़ा हो पाने की स्थिति स
कार पैदा नहीं कर पाए भारत ग्रामीण जीवन का भारत है और ग्रामीण जीवन का मतलब यह है कि कमोवेश साठ फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है
दो हज़ार चौबिस से पहले उनके जहन में इस बात को डाल दिया जाए कि भारत विकसित होकर कैसे पता चला है और यह फरमान नौकर शाही के लिए है इससे पहले सेना को था उससे पहले मीडिया को था और उसके साथ साथ इस देश की न्यायपालिका के जरिए भी बहुत कुछ अपने अनुकूल करने की कोई
कई माध्यमों से की गई बचा किया बची है संसद जिस संसद के भीतर जब कृषि कानून पर रिफॉर्म लेकर आया जाता है या तीन कानून लाए जाते हैं तो उसमें भी वोटिंग तक नहीं कराई जाती है और शोर शराबे के बीच उसको पार करा दिया जाता और देश में सात सौ अस्सी
ज्यादा किसानों की मौत उस आंदोलन को चलाते हुए हो जाती है जो प्रधानमंत्री जिस कानूनों की तारीफ कर रहे थे और सात सौ मौतों के बाद प्रधानमंत्री जागते हैं और कहते हैं ठीक है मैं इसे वापस लेता हूं लगता है आपको मैं समझा नहीं पाया तो इस देश के समूचे सिर्फ
सिस्टम को ही प्रचारक के तौर पर ये संघ के प्रचारक नहीं ही आप कह सकते हैं मोदी प्रचारक है जो बोधि प्रचारक जो संघ के प्रचारक से भी एक पायदान ऊपर खड़ा है क्योंकि सत्ता अब उसके हाथ में है और उसे ही देश के भीतर में उन बातों को पहुंचाना है जो नौ बरस में सरकार अपनी
नीतियों के आसरे हो सकता है न पहुंचा पाई हो लेकिन सरकार को लगता है उसने कर दिया काम तो कर दिया यानी कागज पर जो भी उपलब्धियां खींची गई है वही सच है और उसी को काम अब हर किसी को बताना है तो हो सकता है कल अगर आपको ऐसा लग रहा हो कि जी नहीं अभी हम
विकसित राष्ट्र कहा हुए हैं और विकसित राष्ट्र कैसे हो जाएंगे तो एक क्षण के लिए जरा समझने की कोशिश कीजिएगा भारत की ओवर ऑल इकनॉमी जो है उस इकोनॉमी के भीतर का सच क्या है यह हम बताएं उससे पहले दो बात दिमाग में रखिएगा
इकनॉमी कॉर्पोरेट के नेटवर्क से भारत में बढ़ रही है
भारत के भीतर में लोअर क्लास लोवर मिडिल क्लास मिडिल क्लास अपर मिडल क्लास सभी की स्थिति इस दौर में नाजुक होती चली जा रही है बड़ी तादाद में नौकरियां गईं बड़ी तादाद में नौकरियां पैदा हो नहीं पाई हमारे यहां का प्रोडक्शन कम हो गया उत्पादन सेक्टर नीचे चला गया इस देश के अलग
सेक्टर को लेकर जो स्थिति है उसमें स्थिति इतनी नाजुक है कि भारत की कैटगरी अगर इस देश की इंडस्ट्री और प्रोडक्शन और बेरोजगारी से जुड़ी जाए तो फिर हम एक गरीब राष्ट्र के तौर पर हमारा नाम आता है और इसीलिए जब भूख को लेकर यानी खाली पेट इस देश की कैसी स्थिति है
है जब वह एक सौ ग्यारह नंबर पर आ गया निचली पायदान से एक सौ इक्कीस देशों में तो सवाल था सरकार इसे मानेगी या नहीं मानेगी तो सरकार ने एक सिरे से इनकार कर दिया और जरा कल्पना कीजिए एक कैबिनेट मिनिस्टर यह कहती हैं कि मैं जब सुबह से लेकर शाम तक अलग अलग जगहों पर कहीं कॉन्फ्रेंस करने
हवाई जहाज की जाती हो फिर दूसरे शहर में जाते हो हवाई जहाज से और उसके बाद अचानक मुझे कोई फोन करके पूछे आपको भूख लगी है क्या तो मैं कहूंगी यहां मुझे भूख लगी है तो मुझे भी भूखों की शुमारी में शामिल कर दिया जाएगा यह बात इस देश के एक कैबिनेट मिनिस्टर कहती हैं
सवाल यह नहीं है कि यह देश के भीतर गरीब और सरकार के बीच कितनी बड़ी रेखा इस दौर में खींची जा चुकी है इतनी मोटी लकीर है कि अब उसे कौन सा सिस्टम पार करेगा तो सिस्टम नहीं बना पाए तो पूरे सिस्टम को ही सत्ता और सरकार और मोदी की उपलब्धियों के मद्देनजर अब
प्रचारक के तौर पर पूरे देश में फैलाने का जिम्मा सरकार ने ले लिया लेकिन बाहर आए जब हम आपसे जिक्र कर रहे थे एक सौ पच्चीस प्रश्न डिस्ट्रिक जहां की आए जो है तीस से चालीस हजार के बीच में घूमती है जो चार सौ से ज्यादा जो चालीस हजार से ज्यादा गांव है इस देश के भीतर दें
ग्राम पंचायत कहिए वहां पर जो स्थिति है अगर प्रति व्यक्ति आय के तौर पर देखेंगे तो बत्तीस हजार से नीचे यानी उस औसत से भी नीचे जिस दायरे में में डिस्टिक आते हैं अब यहां पर सवाल सबसे बड़ा ये आता है कि अगर ऐसी स्थिति है
तो क्या इस देश के भीतर में पहली बार सरकार को समझ में आ गया कि इस देश का गरीब सरकार से रूठा हुआ है सरकार समझ गई इस देश का किसान सरकार से रूठा हुआ है इस देश में ग्रामीण भारत के भीतर जितनी मुश्किल है अब सरकार को क्या समझ में आ गया तो सरकार ने प्रोपगेंडा का या स
कार ने अपनी उपलब्धियों को बताने के तौर तरीके में उस पूरे सिस्टम को ही लगाना तय किया जो बीस नवंबर से पच्चीस जनवरी तक हर गांव गांव में घूमकर बताएगा क्या कमाल हुआ है तो सच क्या हमें लगता है हम पूरे देश में जाए उससे पहले चुकी चुनाव का मौसम भी है स्थिति इस देश के भीतर में
ग्रामीण भारत और एग्रीकल्चर कि क्या है यह भी एक क्षण के लिए जरा समझ मसला इस देश में जीडीपी में जो योगदान होता है वह तकरीबन अट्ठारह पर्सेंट कृषि का योगदान होता है लेकिन एम्प्लॉयमेंट कृषि जो देती है इस देश के पैंतालीस छियालीस पर्सेंट लोगों को देती है
अब यहां पर सवाल है कि पैंतालीस छियालीस परसेंट औसत है पूरे देश का जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उन राज्यों का अगर औसत निकाला जाएगा तो वह तकरीबन साठ पर्सेंट बनेगा यानी साठ पर्सेंट एग्रीकल्चर पर निर्भर है मध्यप्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़
हो या तेलांगना तेलांगना में कम है तकरीबन अड़तालीस परसेंट है छत्तीसगढ़ में यह लगभग तिरेसठ परसेंट है मध्यप्रदेश में यह लगभग साठ परसेंट है और जो जीडीपी का योगदान होता है राज्यों के भीतर भी अब आप कल्पना कीजिए कि मध्य प्रदेश के भीतर इंडस्ट्री है ही नहीं क्योंकि चौवालीस से ज्यादा परसेंट
जीडीपी में योगदान एग्रीकल्चर का है
यह स्थिति राजस्थान में लगभग उनतीस तीस पर्सेंट की है छत्तीसगढ़ के भीतर लगभग इक्कीस बाईस पर्सेंट की है लेकिन कृषि पर लोग टिके हुए हैं लगभग बारह पर्सेंट पहला मैसेज किया है कि अगर एग्रीकल्चर ना हो ग्रामीण भारत के भीतर की परिस्थिति में तो इस देश के भीतर
लोगों की मौत हो जाएगी परिस्थितियां इतनी नाजुक है कि क्या आर्थिक और सामाजिक तौर पर यह ऐसी परिस्थिति ले जाती है जहां व्यक्ति को लील ली
क्योंकि जब आप भूख का जिक्र करते हैं तो यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट इस सिलसिले में भी बताती है कि कितनी बड़ी तादाद में इस देश के भीतर में लोगों की परिस्थिति कैसे नाजुक होती चली गई और उनकी जिंदगी इस दौर में कैसे समाप्त हुई
लेकिन हमें लगता है फिर दोबारा लौटी है गांव के भीतर में सरकार रोजगार दे पाने की स्थिति में सिर्फ मनरेगा के साथ है मनरेगा में स्थिति इतनी नाजुक है कि जो लोग काम मांगने आ रहे हैं उनको भी काम दे पाने की स्थिति में नहीं है सरकार जो कि प्रति दिन दो सौ से ढाई सौ रुपए के बीच में अलग अलग राज्यों
मैं उसे देना पड़ता है
बजट में इस बार ही सात हजार रुपए निर्धारित किए गए छह महीने के भीतर उसमें से लगभग नाइंटी एक परसेंट खत्म हो गए यानी सत्तावन हजार रुपए खत्म हो गए
अब सरकार कहती है चालीस हजार रुपए और डाल देंगे चालीस हजार करोड़ रुपया और डाल देंगे
ताऊ करो और डालेगा तो एक लाख करोड़ हो जाएगा तो इस देश की ग्रामीण माली हालत के भीतर अगर और चलिएगा तो जरा सोचिए कि इस देश में किसानी से जुड़े हुए लगभग बारह करोड़ किसान और उसमें से हटकर जो महिलाएं हैं उनकी संख्या भी लगभग
सत्तर लाख महिलाएं भी किसानी से जुड़ी हुई हैं उनकी आय और उन पर किसान का वक्त करते वक्त उनकी लागत है उस लागत का रिटर्न भी नहीं मिल पा रहा है व फसल इस दौर में जो बर्बाद होती है उसमें जो सरकार की बीमा योजना है उस बीमा योजना का लाभ
सिर्फ बारह पर्सेंट को हुआ और कंपनियों को लाभ एक सौ बारह पर्सेंट से ज्यादा का होगी
किस इकोनॉमी के तहत कौन सी उपलब्धि सरकार जाकर बताने वाली है ये सिर्फ सोचिए कि इस देश के आईएएस भी अब इस काम में लगेंगे आईपीएस भी काम में लगेंगे सेना पहले से काम में लगी है प्रोफेशनल्स जो मीडिया से जुडे तो उनको उसमें झोंका जा चुका है और इन तमाम पृष्ठ
में पूरा सिस्टम ही एक ऐसा क्रिएट कर लिया गया जिसमें बोधि प्रचारक की परिस्थिति इस देश में हाई रैंकिंग में आकर टिक गई
हमें लगता है कुछ और चीज समझिए एम्प्लॉयमेंट ग्रोथ
दो हज़ार बाईस तेईस में एक परसेंट
अगले साल यानी तेईस चौबिस के से से हैं फ़ोन दिखला रहा है ग्रोथ में वन प्वाइंट गौण पर्सेंट का ग्रोथ है यानी कल्पना कर रहे हैं कि कैसे एम्प्लॉयमेंट ग्रोथ है गांव के भीतर में एम्प्लॉयमेंट ग्रोथ माइनस में है
इस देश के भीतर में जो एम्प्लॉयमेंट रेत की स्थिति है अगर उसको परखेंगे तो अगर युवाओं के बीच देखें बीस से चौबिस साल के भीतर में तो पिछले इलेक्शन से पहले यानी दो हज़ार उन्नीस के इलेक्शन से पहले दो हज़ार अट्ठारह उन्नीस में व एम्प्लॉयमेंट रेट बीस से चौबिस साल में अट्ठाईस पर्सेंट था
जो अब घटकर उन्नीस परसेंट हो गया है
जो हमारे यहां का ग्रामीण लेबर मार्केट है वहां पर अन्य एम्प्लॉयमेंट रेट इस दौर में लगभग साढ़े सात पर्सेंट तक आ चुका है
हमारी जो वर्क फोर्स है वह लगातार बढ़ रही है लेकिन काम न होने की वजह से स्थितियां नाजुक हो चली है
कौन कौन से सवाल किस किस रूप में इस देश के भीतर में जाकर टिक गई उसमें पहला बड़ा सवाल यही आ गया सरकार ने मान लिया कि वह जिन भी योजनाओं को इस देश में लेकर आती है वह जमीन तक पहुंच जाती है
उसका प्रचार प्रसार नहीं हो पा रहा है तो पहली बार पूरे सिस्टम को उसके प्रचार प्रसार में लगा दी
और लोगों के जहन में सुबह से लेकर रात तक सिर्फ अभी टेलीविजन पर चलता था अखबारों में रहता था अब अगर द्वारे द्वारे वहां के अधिकारी निचले स्तर के अधिकारी से लेकर कलेक्टर तक अगर इस बात का ऐलान करने लगे कि देखिए खेती की दिशा में हमने कितना सुधार कर दिया और सरकार की यह योजना
हैं इन योजनाओं से आपको इतना लाभ हुआ है तो अगले दो महीनों में यानी बीस नवंबर से पच्चीस जनवरी तक यही बात अगर बोली जायेगी तो उसके बाद चुनाव की दिशा में बढ़ते वक्त आपके जहन में हो सकता है आप खुद को न देखें कि आपके कपड़े कैसे हैं आप अपने आप को
देखिए आपके पेट में भोजन है या नहीं है आप यह न देख पाएं कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं नहीं जा रहे हैं आपके जहन में रहेगा हाथ सरकार ने यह कहा है तो उसी दिशा में चल पड़ी है यह एक तात्कालिक परिस्थितियां है जो बताती है कि भविष्य की दिशा में क्या वाक्य या आपके दरवाजे पर कोई फरमा इस तरीके
से आकर
चस्पा किया जा सकता है
क्योंकि कोई दूसरा सिस्टम इस देश में बचा ही नहीं जिस सिस्टम के आसरे ये सवाल किया जा सके कि सरकार ऐसा क्यों कर रही है अगर उसकी योजनाएं इस देश के भीतर में प्रभावी है
तो फिर जनता को बताने की क्या जरूरत है जनता अगर उसे महसूस कर रही है कि शानदार सरकार की योजनाएं हैं तो सरकार के साथ खड़ी है इसमें कौन सी मुश्किल है लेकिन पहली बार यानी जो सिस्टम को बनाने के लिए इस देश में एक रोजगार की लकीर एक वक्त नेहरू के दौर से शुरू हुई
कि बीडीओ तक का अधिकारी क्यों बनाने की जरूरत है और गांव के डेवलपमेंट में वीडियो का क्या योगदान होगा कैसे वह जुड़ेगा और ऊपर से नीचे तक पाइपलाइन नहीं बल्कि नीचे से ऊपर तक की पाइपलाइन जाएगी उस पाइपलाइन को तो मौजूदा सत्ता ने पकड़ लिया लेकिन उस पाइपलाइन के भीतर का जो मैटीरियल था वो रोजगार
से नहीं जुड़कर खेती से नहीं कर बेरोजगारी से नहीं कर व जुड़ गया कि इन योजनाओं को उपलब्धियों को बताने का काम है और यही काम सबको करना है तो इस स्थिति में एक आखरी सवाल यह है क्या चुनाव के वक्त जब पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं तो ऐसा न
ही है कि इन पांच राज्यों के भीतर अब यह अधिकारी सक्रिय नहीं होंगे क्योंकि वह तो बीस नवंबर से शुरू हो जाएगा
हालांकि उसके बाद की परिस्थिति है कि सत्रह नवंबर को जब वोटिंग हो जाए मध्य प्रदेश के भीतर में उसके बाद यहां पर जाएं अधिकारी लेकिन बावजूद इसके राजनीतिक तौर पर चुनावी बरस में सरकार का अपना कार्यक्रम बिल्कुल तय शुदा है दिसंबर दो हज़ार तेईस से भारत
विकसित हो रहा है भारत विकसित हो जाएगा भारत चकाचौंध में समाज जाएगा दुनिया में भारत एक ताकत के तौर पर होगा और उसके प्रहरी और उसके लिए आप ही सब कुछ होंगे और आप ही का जीवन बेहतरीन हो रहा है इसको आप को मानना शुरू दिसंबर के महीने से करना होगा
जिसका पूरा फार्मेट नीति आयोग बना रहा है कि भारत विकसित हो चला है और दो हज़ार सैंतालीस में कमाल हो जाएगा लेकिन अभी से आप उस कमाल को महसूस करना शुरू कर दीजिए भूल जाइए बाकी तमाम परिस्थिती
बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत बहुत शुक्रिया

राजनीति और पेसो की मायाजाल के साथ 25 लाख करोड़ का पूंजीवाद को फायदा एक विश्लेषण।

 
दोस्तों  राजनीति हर किसी के बूते की बात होती नहीं है और इस बात का जिक्र तो सौ बरस से हर कोई करता चला आ रहा है अगर आप एक सामान्य आदमी है ईमानदार व्यक्ति हैं तो राजनीति मत कीजिए
यह बात कोई आज की नहीं है लेकिन जरा कल्पना कीजिए कि एक सामान्य पॉलिटिकल पार्टी के लिए भी अब राजनीति करना और चुनाव में जाना और चुनाव में जीत जाना असंभव सा है
सिर्फ व्यक्ति तक बात नहीं रही है अब तो राजनैतिक दलों तक यह बात आ गई है और इस देश के भीतर में तमाम छोटे छोटे राजनीतिक दल जब तक उनकी ताकत कुछ राजनीतिक सौदेबाजी करने की है तब तक तो वह बचे हुए हैं टिके हुए हैं
लेकिन इसके बाद वह अपने बूते कोई चुनाव जीत सकते हैं इस कल्पना को छोड़ दें तो की राजनीति के तौर तरीके दो हज़ार चौदह के बाद जिस तेजी से बदले हैं
उसने राजनीति और राजनीति की पूंजी भर को नहीं परोसा बल्कि इस देश की इकोनॉमिक पॉलिसी और इस देश के विकास का खाका भी उस राजनीतिक सत्ता से जाकर जुड़ गया जिसकी कल्पना इससे पहले कभी किसी राजनीतिक दल ने किसी नेता ने यहां तक कि किसी प्रधान
मंत्री ने भी की नहीं होगी
भारत की राजनीति का मतलब क्या इस देश की इकोनॉमिक पॉलिसी हो सकती है
भारत में चुनाव लड़ने का मतलब क्या कॉरपोरेट का नेटवर्थ हो सकता है
भारत में कॉरपोरेट फंडिंग और पॉलिटिकल फंडिंग के बीच कोई तालमेल हो सकता है इस देश के भीतर में बैंकों का एनपीए और बैंकों से जुडे हुए विलफुल डिफॉल्टर यानी जो जान बूझकर पैसा नहीं लौटाते हैं उनके बीच भी कोई तारतम्य इस देश की
राजनीतिक सत्ता या पॉलिटिकल फंडिंग से जुड़ी हुई हो सकती है और अगर यह जुड़ी हुई है तो फिर जो सत्ता में है उसके पास ही सब पैसा आएगा क्या ये सब कोई इससे पहले कहा जा सकता था इस देश में कॉर्पोरेट पैसा देता है डफली पैसा देते हैं बिजनस पसंद
ऐसा देते हैं
और तो और ऐसी अज्ञात चोर सभी पैसा आता है जिसकी जानकारी इलेक्शन कमीशन तक पहुंचती जरूर है लेकिन एक क्षण के लिए कल्पना कीजिए कि बीते नौ बरस पर इस देश में तकरीबन पच्चीस लाख करोड़ रुपए सरकार ने गायब कर दिए तो आप क्या कहेंगे
गायब करने का मतलब यह नहीं है कि अचानक छूमंतर हो गया पैसा गायब का मतलब यह है कि इस देश में आरबीआई ने नोट छापे बैंकों ने नोट पार्टी और वहीं नोट जब बैंक में वापस नहीं आ पाए तो सरकार ने नोट छापकर उसी दोस्त जो कि
दिए गए थे उसकी भरपाई करती और जिसके जरिए भरपाई की और जो पैसा बैंकों से लेकर फरार हो गए फिर उन्होंने नए तरीके से इस देश की सत्ता को सादा या सत्ता को साधने का तरीका पहले ही अपनाया जा चुका था
और नौ बरस में अगर पच्चीस लाख करोड़ रुपए इस देश के भीतर में ब्रिटेन ऑफ कर दिए जाते हैं बट्टे खाते में डाल दिए जाते हैं तो यह रुपया क्या आपको किसी बजट में इस तरीके से नजर आता है
बरस दर बरस चुनाव दर चुनाव
राज्यों के चुनाव लोकसभा के चुनाव अगर सारे हाथी को एक एक करके परखना शुरू कीजिएगा तो हो सकता है आपके सायं में ये सवाल बड़ा छोटा हो जाए कि पांच राज्यों के चुनाव में किसी पॉलिटिकल पार्टी ने कौन सी सूची जारी कर दी
कितने उम्मीदवारों का चयन अभी और करना है और क्यों आखिर राजस्थान के भीतर वसुंधरा राजे सिंधिया को हाशिए पर धकेला गया उन्हें मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर किया गया शिवराज सिंह चौहान के साथ ही ऐसा हुआ और दिल्ली में बैठे ऐसे ऐसे कैबिनेट मिनिस्टर जिनकी ताकत का एहसास दो हज़ार
चौदह से पहले हर कोई लगाता था लेकिन इस दौर में उनकी कोई ताकत नहीं बची है और वह भी कुछ खुद नहीं बोल पाते हैं यह कैसे संभव है यह संभव तभी है जब इस देश की राजनीति आपकी मुट्ठी में
राजनीति के जरिए चुनाव कराने के तौर तरीके आपके बुद्धि में हो और किसी भी पॉलिटिकल पार्टी के भीतर यह ताकत जिन मुट्ठियों में होगी उस व्यक्ति की ही चलेगी तो क्या इस दौर के भीतर में यह कहना कि इस देश के भीतर जितना माफी या जितना बट्टे खाते में डाले
गई रकम है उसी के इर्द गिर्द इस देश के भीतर में जो इलेक्टोरल ट्रस्ट का पैसा कर फंडिंग के जरिए राजनीतिक दलों तक पहुंचता है
जो कॉर्पोरेट का पैसा फंडिंग तक राजनीतिक दलों तक पहुंचता है उसको अगर कैटेगराइज किया जाए तो क्या यह बात निकलकर आ सकती है कि कितने लोग कितने इंडस्ट्री कितने कॉर्पोरेट कितने एमएसएमई और कितने छोटे बड़े व्यापारी कितनी बड़ी तादाद है जिन्होंने बैंकों से नोट
लिए आरबीआई ने नोट छापे सरकार ने उस नोट को माफी दे दी अगर इस दौर में भारत की राजनीति सिर्फ और सिर्फ पूंजी के आसरे चलती है जो चलती थी चलती है लेकिन अगर उसका सोर्स एक ही जगह जा रहा है
तो क्या कोई राजनीतिक दल जो क्षत्रपों की तादाद इस देश के भीतर पटी पड़ी है यह कितने दिन चुनाव लड़ पाएंगे
दो बार सत्ता से बाहर रहते नहीं है कि क्षत्रप इस दौर में अपने तौर पर घबराने लगते हैं और उनके सामने मुश्किल होती है संगठन को भी कैसे चला पाए
ऐसा नहीं है कि इस देश के भीतर में इससे पहले यह परिस्थिति नहीं रही होगी लेकिन पहले पाइपलाइन पैसे की तमाम जगहों पर जाती थी
पहले चुनाव लड़ने के तौर तरीकों में कहीं कोई विचारधारा मायने रखती थी ध्यान दीजिए सबकुछ खत्म हो गया गौण हो गया महत्वपूर्ण इस दौर में दो ही चीज हुई एक इस देश के भीतर में पहली बार कौन कितना पैसा रेवड़ी के तौर पर जनता को पढ़ सकता है ऐलान
घोषित करता है वह एक बड़ा हिस्सा चुनावी जीत का हो गया दूसरा हिस्सा सरकार किसी की बने लेकिन वह सरकार आखिर में हमारी होगी यह ताकत विधायकों से लेकर सांसदों की खरीद फरोख्त का खुला खेल इस देश ने बार बार देखा और किस तरीके से विधायक और
सांसद जाकर छुप जाते हैं सबको सब किसी ने देखा हमें लगता है कि आज इन परिस्थितियों को जरा बारीकी से समझना है क्योंकि जब हम इस बात का जिक्र कर रहे हैं पच्चीस लाख करोड़ तो जाहिर है इस देश के भीतर में जो भी पब्लिक सेक्टर के बैंक हैं या जो शीतल कॉमर्शियल बैंक है उनका एक खाका मौजूद है जो
बताता है कि चौबिस लाख पचानवे हजार अस्सी करोड़ रुपए इस दौर में
बट्टे खाते में डाल दिए गए और यह एक आरटीआई के जरिए निकलकर आया जो की सूरत के एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं संजय जावा उन्होंने उस आरटीआई के जरिए निकाली इस रकम को और बरस दर बरस जानकारी भेजी और तमाम जगहों पर यह जानकारी जब आई तो लोग भी हैरत अंगेज तक की पार्लियामेंट में तो आप बताते थे
लगभग ग्यारह लाख करोड़ लेकिन यहां तो खेल लगभग पच्चीस लाख करोड़ का है तो क्या वो सिर्फ सरकारी बैंकों का आंकड़ा होता था जी वो सिर्फ सरकारी बैंकों का खड़ा था शीतल कॉमर्शियल बैंक को देखिए कहा अगर तो उसमें समझते चले जाइए कि इलेक्शन से ठीक पहले लोकसभा चुनाव के इलेक्शन से पहले
जो पब्लिक सेक्टर का बैंक था उसको अगर रिटर्न ऑफ सरकार ने एक लाख तिरासी हजार दो सौ दो करोड़ जो दो हज़ार अट्ठारह उन्नीस का साल है उस बरस किया तो दूसरी तरफ शेड्यूल कॉमर्शियल बैंक में उस दौर में दो लाख छत्तीस हजार दो सौ पैंसठ करोड़ रुपए माफी थी
और यह सिलसिला लगातार चलता चला गया बरस दर बरस उसके बाद उत्तर प्रदेश का इलेक्शन था उसमें भी जो कॉमर्शियल बैंक के दो लाख करोड़ से ज्यादा कहीं चल रहे थे
यह परिस्थिति बताती है कि एक तरफ यह खाखा आरबीआई के जरिए आरटीआई निकलकर आता है कि यह पच्चीस लाख करोड़ का है
दूसरी तरफ जरा सोचिए इस देश में जिद अकाउंट का पैसा है जो कि विलफुल डिफॉल्टर इस दौर में आए उनकी संख्या सोलह हजार आठ सौ तिरासी जो एनपीए के दायरे में आए उन अकाउंट्स की तादाद छत्तीस हजार एक सौ पचास इन दोनों को मिलाई जायेगा तो यह तकरीबन बावन हजार
चार अकाउंट्स पार कर जाता है टोटल जो जानकारी आती है वह लगभग सात हजार के लगभग है जिन अकाउंट्स के जरिए इस दौर में जो भी पैसे निकले और नहीं आए वापस लौटकर वह इन अकाउंट के जरिए अगला सवाल आपका होगा अच्छा ऐसे कौन लोग थे
यह बार बार आर बी आई ने बताया सरकार ने पार्लियामेंट के भीतर भी बनाया कि देख यहां ऐसे टॉप मोस्ट दस यह है उसमें मान लीजिए उन्होंने मेहुल चौकसी का नाम लिया उसमें नीरव मोदी का नाम ले लिया विजय माल्या का नाम लिए बात से नहीं चलेगी सवाल यह है कि जब हम सात हजार अकाउंट का जिक्र कर रहे हैं तो ये सात हजार एकाउंट एक
शहर में तो नहीं है इस देश के अलग अलग शहरों में बिखरे पड़े हैं सभी के एक धंधे तो नहीं है सबकी अलग अलग धंदे होंगे को इंडस्ट्री में है कोई बिजनेस में है कोई ट्रेडर है कोई एमएसएमई से जुड़ा है कोई बड़ा कॉर्पोरेट है सभी अपने तौर पर जुड़े होंगे और जो पैसा पॉलिटिकल फंडिंग होती है वह इनके जरिए होती और क्या
आपने कभी सुना है किसी विधायक को खरीदने के लिए कोई पॉलिटीशियन पैसा लेकर गया और उसने दे दिया जी ने ऐसा नहीं होता है होता यह है कि स्वस्थ व्यक्ति बता दिया जाता है वह सोर्स व्यक्ति को इंडस्ट्रियलिस्ट होता है कोई कॉर्पोरेट से जुड़ा हुआ व्यक्ति होता है कोई बड़ा वह पारी होता है वह अलग अलग माध्यम से
की जाती है जो खरीद फरोख्त विधायकों की होती है उसके मद्देनजर और चूंकि सरकार ही यह सब कर रही है तो फिर उन पर छापा कौन मारेगा
सक्रिय कैसे होगी या क्लीन चिट उनको दे दी जाती और महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ इसका खुला खेल और उससे पहले मध्यप्रदेश में जो वार्ता खुले तौर पर चीजें निकलकर आई यह बात कर्नाटक में भी निकल कर आई थी
जब वहां की सरकार दामाद ट्रोल हुई थी लेकिन उसके बाद है कि जो जानकारी हमारी टीम ने निकाली वह बड़ी रोचक जानकारी इस मायने में है कि इस देश के भीतर में जो पैसा लिए हुए हैं अलग अलग बैंकों से इसमें यह जान लीजिए कि जो भारत के सरकारी बैंक है वह लगभग बारह और लगभग बाईस शिड्यूल कॉमर्शियल बैंक
निकलकर आते हैं उसमें तमाम बैंकों के छोटे बड़े नाम है उसमें एक्सिस बैंक भी आएगा बंदर भी आएगा सीएसपी बैग भी आएगा सिटी यूनियन भी आएगा डीसीबी भी आएगा धन लक्ष्मी भी आएगा एचडीएफसी भी आएगा दस बैंक भी आएगा आईडीएफसी भी आएगा जेके बैंक भी आएगा कर्नाटक बैंक भी आएगा कौड़ा वैश्य बैंक भी आएगा कोटक बैंक भी आएगा लक्ष्मी विलास बैंक के तमाम
बैंकों के नाम है जो कि एक से शुरू प्राइवेट सेक्टर के बैंक सभी को जो माफ सरकार ने किया लेकिन हमारी टीम ने जब चीजें कलेक्ट किया तो वो हैरत अंगेज इसलिए थी क्योंकि इस देश के भीतर में जो कॉर्पोरेट खुद को बतलाते हैं उनकी संख्या लगभग एक हजार से बारह
के बीच है जो इस दौर में एनपीए के दायरे में शामिल है या विलफुल डिफॉल्टर के तौर पर शामिल एक हजार से बारह के बीच में वह रेड जाए जो अलग अलग तरीके से निकला रहा क्योंकि एक हजार से बारह का जिक्र हम इसलिए करें उसमें से कुछ ने कहा या कुछ ने जो जानकारी दी वह इंडस्ट्री के तौर पर गई थी
इन दस किस्तों की तादाद सबसे ज्यादा एक छोटी बड़ी इंडस्ट्री जो इस देश के भीतर चल रही है वह होटल इंडस्ट्री भी हो सकती है और वह किसी स्टील या आयरन से जुडी हुई इंडस्ट्री भी हो सकती है
वह कुछ भी बना सकती है वो ताड़ बना सकती है वह प्लग बना सकती है वह ग्लास बना सकती है वह प्लेट बना सकते हैं कुछ भी बना सकती है इनकी संख्या लगभग पच्चीस हजार है जिन्होंने पैसा रिटेन नहीं किया एनपीए के दायरे में या विलफुल डिफॉल्टर है
यह पच्चीस हजार में से कुछ एक हजार से बारह के बीच में हमने रखा महत्वपूर्ण यह है कि जिस एमएसएमई को लेकर सरकार जिक्र करती है छोटे छोटे जो अपने तौर पर खड़े होते उसमें भी बड़ी तादाद आ गई और बॉबी तकरीबन छोटे बड़े मिलाकर अलग अलग साल को जोड़ते चले जाइएगा तो सत्रह हजार अकाउंट जो है
से जुडे हुए नजर आने लगते हैं
और बाकी कुछ और है जो अलग हैं अब यहां पर दूसरा इस दौर में जो अलग अलग तरीके से इलैक्शन पर जो कहते हैं कि पैनी नजर रहती है सरकार की रहती है इलेक्शन कमीशन की रहती है
तो क्या यह पैसा रोटेट करके उन तक पहुंच जाता है जो कि एनपीए के दायरे में हैं या विलफुल डिफॉल्टर है
क्योंकि अगर एक बरस का ही जिक्र करें दो हज़ार बाईस तेईस का जिक्र करते हैं अगर हम तो एसबीआई के पास कितने अकाउंट पर एक हज़ार नौ सौ इक्कीस अकाउंट जो विलफुल डिफॉल्टर के तौर पर आए पंजाब नेशनल बैंक में दो हज़ार दो सौ इकतीस डिफॉल्टर यूनियन बैंक में एक हज़ार आठ सौ इकहत्तर डिफॉल्टर बैंक ऑफ बड़ौदा में
दो हज़ार दो सौ बीस डिफॉल्टर अलग अलग तरीके से अलग अलग बैंकों के भीतर डिफॉल्टर है और इनके पास जो रकम है वह मिनिमम रकम जो है वह लगभग बीस से चौबिस हजार करोड़ के बीच की है मैक्सिमम रकम जो है एसबीआई के उस पर में लगभग एक थाउजेंड गढ़ सामंती नाइन थाउजेंड
तू अंदर सामंती करोड़ की कुल रकम है
मैसेज किया है पहला पहला में से सबसे बड़ा है कि इस देश के भीतर भी सरकार जो
रिटर्न ऑफ करती है जो बट्टे खाते में पैसा डालती और बैंक उसको अपनी बुक से निकालता है लेकिन जो पैसा लिए हुए और नहीं लौटाते हैं और उस पैसे की एवज में बहुत सिर्फ पांच सितारा जीवन ही नहीं जी रहे बल्कि उनकी रईसी में कोई कमी नहीं आ रही है वह फिर दोबारा दूसरे अकाउंट के जरिये
दूसरे इंडस्ट्री के जरिए दूसरे तरीके से वह बैंकों के जरिए फिर से लिए क्या ले लेते हैं इसमें एक एक्सपर्ट का कहना है कि देखिए लगभग ट्वंटी ट्वंटी फाइव परसेंट अकाउंट जो होते हैं और रिप्रेजेंटेटिव होते हैं यानी एक व्यक्ति ने जहां से उठाए उसके बाद नहीं लौटाए फिर वह दूसरे नाम दूसरे तरीकों से अकाउंट
वह खोल देता है
और उसके बाद बैंक से फिर वह लोन उठाता है और पुरानी हिस्सेदारी साझेदारी दोस्ती यारी जो कहना चाहिए और पॉलिटिकल तौर पर निर्णय होते हैं इस देश के भीतर में इसीलिए बैंकों के बोर्ड में भी नियुक्तियां राजनीतिक तौर पर होती है यह कोई छुपी हुई बात नहीं है यहां तक कि आरबीआई के बोर्ड में ही
जो नियुक्तियां होती है वह यूं ही नहीं होती है यह हर कोई जानता है इस देश के भीतर में इसको बताने की जरूरत होनी नहीं चाहिए कि इस देश के भीतर में जितने भी पब्लिक सेक्टर से जुड़े हुए ऑर्गनाइजेशन से उसमें नियुक्तियां बोर्ड के भीतर में पॉलिटिकल तौर पर होती है और बड़ी तादाद में जो बीजेपी से जुड़े पॉलिटीशियन उनको भी या बोर्ड में डाल दिया जाए
आता है जिससे व निगरानी रखें कि बात इधर से उधर न चली जाए
अब यहां पर अगला सवाल यह था कि इस देश के भीतर में जब इतनी बड़ी रकम
जो आई चली गई जानकारी नहीं कुछ पता नहीं और उसके जरिए पॉलिटिकल तौर पर अगर पाइपलाइन में जा रहा है तो अगला सवाल कोई भी पूछेगा कि राज्यों के चुनाव हो या फिर लोकसभा के चुनाव अगर सरकार यह अगर सरकार नहीं अगर सत्ता यह सोच ले कि इस चुनाव को हमें जीतना
और राजनीतिक तौर पर जो पॉलिटिकल फंडिंग का पैसा होता है उसका भी एक किस्सा हमको लगता है यहां पहले आपको जिक्र कर देना चाहिए यह हमारी टीम ने जानकारी दी मसलन इलेक्टोरल बॉन्ड जो है इलेक्टोरल बॉन्ड जितना भी कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी राजनैतिक दल जो तमाम नेशनल पार्टी है या दूसरे छात्र
रीजनल पॉलिटिकल सभी को जितना मिला उससे तीन गुना ज्यादा बीजेपी को गया
तीन गुना ज्यादा जो कॉर्पोरेट ट्रस्ट का पैसा है जो अलग अलग इलेक्टोरल ट्रस्ट के जरिए पैसा आता है उसने जितना भी सबको मिला उसका तकरीबन पाँच गुना ज्यादा बीजेपी को मिला
जो अननोन शोर से जिसमें कहा जाता है कि दो हजार रुपए से कम पहले वह बीस हजार था उसको दो हज़ार किया गया उसका भी जोरशोर से इसे बॉडी दस गुना ज्यादा से लगभग में बीजेपी के हिस्से में आ जाता है अगर रकम की पूरी की पूरी रकम को अगर जोड़िएगा परसेंट जोड़िएगा तो बीजेपी नीचे आ जाएगी लेकिन जब पूरी
रकम जोड़िएगा तो वह दस गुना ज्यादा अब यहां पर पहला सवाल फिर आपके लिए महत्वपूर्ण हो जाएगा अगर सारा पैसा इस तरीके से सिर्फ बीजेपी के पास जा रहा है और चुनाव लड़ने के लिए पैसा ही मायने रखता है या पैसा भी मायने रखता है
तो इन दोनों चीजों से जो नेशनल पार्टी है वह तो मान लीजिए उम्मीद बनाए रखें
और जो उम्मीद बनाकर चलती है कि हम चुनाव जीत जाएंगे यह भरोसा और आश्वासन चुनावी बाजार में लगातार देती चलती है तो उसको भी कुछ पैसा आ रहा होगा मसलन कुछ पैसा आम आदमी पार्टी के पास आ रहा है कुछ पैसा इस दौर में ममता बनर्जी के पास आता है कुछ पैसा स्टालिन यानी डीएमके के पास आ रहा है कुछ पैसा
गाहे बगाहे नीतीश कुमार के पास पहुंच जाता है सत्ता में हो तो बने रहते हैं तो जो रीजनल फोर्सेस में जो सत्ता में है इनके पास कुछ परसेंट आता है लेकिन वह ओवरऑल का पांच से सात पर्सेंट से ज्यादा पैसा होता नहीं जो अलग अलग माध्यमों से पैसा आ रहा है दूसरी बड़ी बात जिन राज्यों में क्षत्रपों की मौजूद
की है उन राज्यों में जो कॉर्पोरेट है जो वह पारी है जो इंडस्ट्रियलिस्ट है जो एमएसएमई है इसमें हमने एक जिक्र नहीं किया था ट्रेडर्स और बिजनेस पर संस्था उनसे जुडे हुए अकाउंट भी तकरीबन दस हजार के लगभग है
इसमें हम मान लेते हैं कि लगभग बीस पर्सेंट रिप्रेजेंटेटिव होता है लेकिन बावजूद इसके यह पूरा खाका निकल कर सामने आता है कि पैसा अगर एक ही जगह पॉलिटिकल तौर पर जा रहा है तो किसी भी पार्टी के लिए अपने ऑर्गेनाइजेशन को जिंदा रखना कोई सामान्य सी बात नहीं होती है
वो सिर्फ पारंपरिक छापने का जिक्र नहीं है सिर्फ गंदा और झंडा उठाने का जिक्र नहीं है कार्यकर्ताओं को जो फुलफिल एजेंट जुड़े हुए हैं उनको कुछ पैसा देने भर का जिक्र नहीं है यह पूरी प्रक्रिया है जो कि सालों साल चलती है और अगर आप सालों साल सत्ता से बाहर रहते हैं तो फिर आप उस दिशा में समझौता कर
ने के लिए बढ़ी जाते हैं जहां पर आपको यह महसूस होता है कि कुछ पैसा तो आ जाएगा तो इसके भी दो तरीके इस दौर में उभरकर आते हैं वो पॉलिटिकल पार्टी जिनके पास ब्लैक मनी है
वह सत्ता के साथ नहीं जायेगी तो कल ईडी उनके दरवाजे पर है तो पॉलिटिकल तौर पर एक सौदेबाजी हो गई आप मत जाइए खिलाफ बताने की जरूरत नहीं है उसमें कौन पॉलिटिकल पार्टी आती है दूसरा हिस्सा होता है ठीक है जो हमारे पास है या नहीं लेकिन हमको पाइपलाइन में पैसा चाहिए क्योंकि हम पॉलिटिकल तौर पर अपने वोटरों को
आप शिफ्ट भी कर सकते हैं और अपने वोटरों के जरिए आपके विरोधी जो खड़े हैं उनको हम काउंटर भी कर सकते हैं यानी उस वोट में सेंध भी लगा सकते हैं तो जब राष्ट्र तौर पर लड़ाई होती है या रिजनल फोर्स के तौर पर लड़ाई होती है राज्यों के चुनाव के तौर पर तो बहुत छोटे छोटे दल ने इसलिए रखते हैं क्योंकि उनकी
पॉलिटिकल सौदेबाजी उस इकोनॉमी को अपने अनुकूल कर लेती है जहां पर उनको अपने ऑर्गनाइजेशन को बचाने के लिए या चलाने के लिए पैसा कुछ आ जाए
इसका एक दूसरा हिस्सा भी हमको लगता समझना चाहिए तमाम रिजनल फोर्सेज में एक परिवार का ही पूरा योगदान होता है एक व्यक्ति और एक परिवार गिर्द पूरी राजनीति सिमटी होती है जो भी क्षत्रपों को आप देखिएगा और डीएमके से शुरू कीजिए या तमाम राज्यों में महाराष्ट्र में चले जाइए बिहार में आई
देश में आइए झारखंड में कहीं भी जायेगा तो आपको नजर आने लगेगा कि हां बात तो सही है एक ही परिवार के इर्द गिर्द उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि जो पैसा कंसंट्रेट होता है वह एक ही जगह होना चाहिए और यह सारी बात बोल घूमकर आपको जब वापस बीजेपी में आती है तब आप एक सवाल कर
सकते हैं अच्छा है इसीलिए बीजेपी ने कोई नेता नहीं खा पाता है अपने आप को खड़ा नहीं कर पाता है क्योंकि वह ऑर्गेनाइजेशन को नहीं खड़ा कर सकता है पार्टी दफ्तर को नहीं चला सकता उसके पास पैसा कहां है और वह कैसे चला पाएगा और जैसे ही चलाने बढ़ेगा तो वही ही वह पैसा कहां से आया है
इसकी जांच शुरू हो जाएगी कोई ना कोई फाइल तो पड़ी होगी सबकी और यह फैक्ट है कि हर नेता की फाइल तो बनी हुई है पड़ी हुई है तो वह खड़ा कैसे हो तो जिसको कहा जायेगा आपको अब इस भूमिका में रहना बहुत सी भूमिका में चला जाएगा यह एक परिस्थिति बीजेपी के भीतर ही नहीं बनी ये तमाम पॉलिटिकल पार्टी के भीतर है लेकिन
ये तो तमाम पॉलिटिकल पार्टी दो हज़ार चौदह से पहले मायने रखती थी
आज की स्थिति में कोई भी एक राजनीतिक दल को अगर खड़ा करना चाहेगा या खडे हुए राजनीतिक दल को चुनाव मैदान में ले जाना चाहेगा तो लड़ेगा कैसे और यह जो पॉलिटिकल फंडिंग का जो पूरा आंकड़ा है कि डराने वाला इसलिए है क्योंकि हमने तो यह कहा कि भाई नौ साल में पच्चीस लाख करोड लेकिन जिक्र यह है कि
अगर कॉरपोरेट फंडिंग देखें इस दौर के भीतर में तो यह तकरीबन आपको एक लाख करोड़ के ऊपर चला जाता है जो अलग अलग माध्यमों से बीते नौ बरस में निकलकर आया वह इलेक्टोरल ट्रस्ट के जरिए पैसा आया कुछ डोनेशन के जरिए आया को दूसरे माध्यमों के जरिये आया और जो इलेक्टोरल बॉन्ड है वह लगभग तेरह हजार करोड़ का है
उसकी रकम जो है तेरह हजार सात सौ इक्यानवे करोड़ है
अगर इस स्थिति के भीतर में तमाम रकम को आप जोड़ते चले जाइएगा और इसको मान कर चलिए कि एक तीन पर्सेंट पैसा अगर मौजूदा केंद्र की सत्ता में बैठी हुई पॉलिटिकल पार्टी के हिस्से में जा रहा है जिसका खाखा वह अपने तौर पर इलेक्शन कमीशन को बताते हैं जो बड़ा ही कम होता है क्योंकि
अकाउंटेंट मनी ही तो विधायकों को खरीदेगी अन्य अकाउंटेंट बनी तो सरकार को इधर से उधर करेगी अन्य अकाउंटेंट मनी तो सफर को कराएगी जो एक जहाज में बैठकर सारे विधायक कहीं उड़ जाते हैं किसी होटल में ठहरते हैं ये क्या मैं मसला है और उनकी भरपाई कैसे होती है तो रिटर्न ऑफ का मतलब एक
और आखिर में समझ लीजिए
बैंकों का रिटर्न ऑफ़ तो वहां की बुक को ठीक करने के लिए होता है लेकिन जो एयर लाइन्स है
जो पोर्टल है जहां से पैसे का पेमेंट होना है जिस कॉर्पोरेट को आदेश दिया गया जिस दस को कहा गया वो सारी परिस्थितियों में व चुटका चलता है और उसको इनफार्मेशन होती है कि इस पैसे को इतना यहां दे देना उसकी भरपाई दूसरे माध्यमों से रिटर्न ऑफ की जाती है
तो इस देश की इकोनॉमी का पूरा का पूरा खर्चा अगर इस देश के पॉलिटिकल इलैक्शन की चुनावी फंडिंग और सत्ता को बनाने और दूसरे की सत्ता को बिगाड़ने से जाकर जुड़ चुकी है तो आप रकम कितनी भी गिरते चले जाइए कोई मायने नहीं रखेगा सवाल तो यह है कि हम एक दम
सेटअप में है
लोकतंत्र में हैं जहां चुनाव उस लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान है और उसी लोकतंत्र के तौर तरीके बदल गए और कल तक कि यह बात भी कि एक सामान्य व्यक्ति के लिए या ईमानदार व्यक्ति के लिए राजनीति नहीं है अब सवाल दिया है एक सामान्य पॉलिटिकल पार्टी एक छोटी पॉलिटिकल पार्टी
जिसके पास फंडिंग की व्यवस्था नहीं हो उसके लिए भी यह राजनीति और यह चुनाव नहीं समझ गए तो ठीक है
बहुत बहुत बहुत शुक्रिया

Wednesday, 18 October 2023

falastini મુસ્લિમ માટે WhatsApp Massage

 *આપણે ફકત મોબાઈલ સ્કિન સુધી થોડા સમય માટે મુસ્લિમ રહી ગયા છે.*

  18oct23
Huzaifa Dedicated

  બાદ સલામ આજના ટેકનોલોજી ના સમયમાં ફકત થોડા સમય માટે મોબાઈલ સ્કિન ઉપર જોવામાં આવતી ખબરો સમયે મુસ્લિમ હોય છે, *બાકી આપણાં અંદરથી ૯૫% લોકો પોતાની ઓળખ મુસ્લિમ નહિ પણ પોતાના ફિરકા સાથે બનાવેલ છે.*

   આ વિચારધારા ના મુસ્લિમ સમાજના લોકો ભારતમાં હોય કે દુનિયાના અન્ય દેશોમાં મુસ્લિમ ઉપર અત્યાચાર અને જુલ્મના લઈને વીડિયો જોવે છે,તે થોડા સમય માટે પોતાને મુસ્લિમ બનાવે છે, જોવા જઈએ તો આ એક સારી પહેલ છે, *પણ થોડા સમય માટે મુસ્લિમ બનવું ઇસ્લામના દુશ્મનોથી વધુ ઘાતક છે,* આજ લોકો પછી પોતાના સમાજમાં  અન્ય મુસ્લિમ સાથે વાર્તાલાપ કરવા સમયે પોતાની ઓળખ ફિરકા પરસ્ત બતાવી જાહિર કરે છે, હું મુસ્લિમ પછી પેહલા હું, દેવબંદી,બરેલવી, અહલેહદિશ છું, એવા ફિરકા ના નામ સાથે જોડે છે.


   આજ વ્યકિત (મુસ્લિમ) અલ્લાહના રસૂલ ની તે હદીસ ઉપર ખરા ઉતરતાજ નથી, જેમાં *અલ્લાહના રસૂલ સ. અ. એ મુસ્લિમ ની ઓળખ એક જીસ્મ એક જાન સાથે સરખાવે છે.*  આજનો મોબાઈલ સ્કિન નો મુસ્લિમ કદી અલ્લાહની મદદ હસિલ નથી કરી શકતો.

આવા કઠિન વિષયને સમજાવવા માટે હમારા તરફથી મજબૂત પ્રયાસો કરવામાં આવે છે જેનો ફકત ઉદ્દેશ્ય છે, આપણે મુસ્લિમ છે તો આપણી કોઈપણ ઓળખ બીજી કેવી રીતે હોવી જોઈએ???

  *ફલસ્તીની મુસલમાનો ઉપર થતા અત્યાચાર જુલ્મ સમયે આપણી મહજબી લીડર શિપ દુવાની વાત કરે છે,*  થોડા સમય પેહલા યુપી સરકાર તરફથી મદ્રસાઓ ઉપર કાનૂન બનાવવાનો પ્રયાસ થયો અને તેનો દલાલ મીડિયામાં મોટો હંગામો પન કરવામાં આવેલ, જેતે સમયે મજહબી લીડર ૨૦૦ થી વધુ મદ્રસાઓના સંચાલકો દિલ્લીમાં એકજૂથ થયને ગૃહમંત્રી અને પ્રધામંત્રી સુધી મોખીકમાં પોતાની રજૂઆત કરે છે, આ દર્શાવે છે જ્યારે તેમના ઉપર કોઈ સમસ્યા આવે છે તો આ તમામ લોકો એકજૂથ થાય છે..

  આજે જ્યારે યહુદી શેતાની કોમ ફલસ્તીન ના મુસ્લિમ ઉપર જુલ્મ કરે છે, ત્યારે દુવા કરીને ઉમમત સામે પોતાને કોમના હમદર્દ બતાવે છે, આવી મજહબી લિદ્રશિપ ઉપર એક નહિ હજારો સવાલ કરવા જરૂરી બની જાય છે.


 *ઉસ કોમ કે બદલતે હે હાલાત જબ ઉસકી લીડર શિપ સાહસિક હો.*

 *બૂજદિલ લીડર શિપ હમેશા અપની અવામ કો ગુલામ બનાતી હે,ગુમરાહ કરતી હે.*

  *હમારી સાથે જોડાવવા માટે ગૂગલ ફોર્મ ફિલ્ડ કરો.*

    *Eman Movement*
_Effective Muslim Active Natwork_

https://surveyheart.com/form/64e0bd876da27a6624e28018

Tuesday, 17 October 2023

हमास के बानी शेख यासिर

 
In 1987, he founded Hamas. “He was at the time the Gaza-based leader of the Muslim Brotherhood,” says the movement’s official website, hamasonline.com.

फलस्तीन Whtasapp मेसेज।

*फलस्तीन के मुसलमानो के हालात को देखकर दिल में बैचेनी और अपने आप पर बेइंतिहा गुस्सा भी आता है.*
        Date:17oct23
✒️ Huzaifa Dedicated
       Bharuch - Gujarat

    *सोशियल मीडिया में फलस्तीन के मुसलामानों की तस्वीरे देखकर मेरे और हर जिंदादिल मुसलमान के दिल में हलचल होती है।*

 हम मजलूम के लिए कुछ नहीं कर सकते हे, 🥲 *अफसोस हमारे इंसान होने पर* और मुस्लमान होने पर, *हम भारतीय मुसलमानो में बहुत से नाम निहात मुसलमान* जब कभी इंशानो पर कुदरती और मानव सरजीत आफत आती हे, इंशानियत की दुहाई देते हे, मानव सेवा की बात करते हे, ये सारे लोग बिलो में चले गए हे, *फलस्तीन के मजलूम मुसलमानो के लिए एक आवाज नहीं दिखाए देती हे...*

  आज यहूदी कोम (इजराइल) *फलस्तीन के मूलनिवासी मुसलमानो पर* बेतहासा बमबारी करके बच्चे,बूढ़े महिलाओं को शिकार बना रहे हे, दुनिया भरमे मानव अधिकार और मानव समाज की बात करने वाले कहां गए ❓सब को साप सुंग गया हे क्या ? यूनाइटेड नेशन सारी दुनिया की महासत्ता होनेका दावा करती हे, लेकिन उसके विदेश मंत्री इजराइल में जाकर आतंकवादी यहूदियों को स्पोर्ट करता हे, *में खुद यहूदी हूं इस लिए में इजराइल के साथ खड़ा हु,* "ये बयान देता हे" Uno इजराइल को पीछे से पुष्ट पनाही करती हे, अफसोस मुस्लिम OIC अपनी कयादत में खामोश नजर आता हे।
  
 *कार्लमार्श की लोकतंत्र और प्रजातंत्र की व्यस्था का असली चेहरा अब खुकर बाहर आ चुका हे,* अब दुनिया भरके मुसलमानो को आगे सोचने की जरूरत हे।

  हम भारत के मुसलमानो से पूछना चाहते हे हमारी मुस्लिम समाज की मजहबी तंजीमें और लीडरशिप कहां चली गई ❓आप देखो कैसे खामोश बैठे हे, ये नकारा और डरपोक कयादत हमारे फलस्तीनी मुसलमानो के लिए आवाज तक नहीं उठा रही हे, *"आप देख रहे हे"* अब आपको सोचना पड़ेगा इन्ही मजहबी लीडरशिप ने हमे फिरको और शख्सियत के नाम पर आपस में एक दूसरे का दुश्मन बनाया हे, भारतीय मुस्लिम नौजवानों को ये घटना से अपने जमीर को जगाने की जरूरत हे..

    *बड़े अफसोस से केहना पड़ता हे,हम तो चाहते हम अपनी तरफ से फलस्तिनी मुसलमानो के लिए आवाज उठाए, लेकिन हमारे आसपास दुनिया की मोज में मगन मुसलमान को देखकर फिर हम सड़को पर उतरकर फलस्तीनी मुसलमानो के लिए आवाज उठाने का सोचना बंध कर देते हे।*


   *हम उम्मीद कभी नहीं हारेंगे, हमे हालात के चलते मजबूत नेटवर्क बनाने के लिए आगे कामज्द होने की जरूरत हे.*

  _मेसेज अगर आपके दिल की बात करता हे तो , आप इसको आगे शेर करे।_

Monday, 9 October 2023

संयुक्त राष्ट्र की "सशस्त्र संघर्ष" पस्तावना इंगलिश टू हिंदू लेखक टेनली एल कोहेन

  *"फिलिस्तीनियों को सशस्त्र संघर्ष का कानूनी अधिकार है"*
इजराइल के लिए यह स्वीकार करने का समय आ गया है कि कब्जे वाले लोगों के रूप में, फिलिस्तीनियों को हर संभव तरीके से विरोध करने का अधिकार है।

कोहेन लिखते हैं, फ़िलिस्तीन में, अंतर्राष्ट्रीय कानून कब्जे वाले लोगों के लिए आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को मान्यता देता है।

बहुत पहले, यह तय हो गया था कि औपनिवेशिक कब्जे वाली सेना के खिलाफ प्रतिरोध और यहां तक कि सशस्त्र संघर्ष को न केवल अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत मान्यता दी गई है बल्कि विशेष रूप से इसका समर्थन किया गया है।

अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानून के अनुसार, 1949 के जिनेवा कन्वेंशन ( पीडीएफ ) में अतिरिक्त प्रोटोकॉल I को अपनाने के माध्यम से , हर जगह कब्जे वाले लोगों के एक संरक्षित और आवश्यक अधिकार के रूप में, राष्ट्रीय मुक्ति के युद्धों को स्पष्ट रूप से अपनाया गया है।

मानवीय कानून में बढ़ती जीवन शक्ति को देखते हुए, दशकों से संयुक्त राष्ट्र (यूएनजीए) की महासभा - जिसे कभी दुनिया की सामूहिक चेतना के रूप में वर्णित किया गया था - ने लोगों के आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के अधिकार पर ध्यान दिया है।  

दरअसल, 1974 की शुरुआत में, यूएनजीए के प्रस्ताव 3314 ने राज्यों को "किसी भी सैन्य कब्जे, चाहे वह अस्थायी ही क्यों न हो" से प्रतिबंधित कर दिया था ।

प्रासंगिक भाग में, संकल्प न केवल उस अधिकार से जबरन वंचित किए गए लोगों के आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के अधिकार की पुष्टि करता है, विशेष रूप से औपनिवेशिक और नस्लवादी शासन या विदेशी वर्चस्व के अन्य रूपों के तहत लोगों के अधिकार की पुष्टि करता है। ” लेकिन उस प्रयास में “संघर्ष करने और समर्थन प्राप्त करने” के कब्जे वाले के अधिकार पर ध्यान दिया। 

शब्द "सशस्त्र संघर्ष" उस प्रस्ताव और कई अन्य शुरुआती प्रस्तावों में सटीक परिभाषा के बिना निहित था, जो किसी कब्जेदार को बेदखल करने के स्वदेशी व्यक्तियों के अधिकार को बरकरार रखता था।

इस अशुद्धि को 3 दिसंबर, 1982 को बदलना था। उस समय यूएनजीए के प्रस्ताव 37/43 ने कब्जे वाले लोगों के किसी भी और सभी वैध तरीकों से कब्जे वाली ताकतों का विरोध करने के वैध अधिकार पर किसी भी संदेह या बहस को हटा दिया था। प्रस्ताव में "सशस्त्र संघर्ष सहित सभी उपलब्ध तरीकों से स्वतंत्रता, क्षेत्रीय अखंडता, राष्ट्रीय एकता और औपनिवेशिक और विदेशी प्रभुत्व और विदेशी कब्जे से मुक्ति के लिए लोगों के संघर्ष की वैधता" की पुष्टि की गई।

एक स्पष्ट भ्रम
हालाँकि इज़राइल ने बार-बार इस सटीक समाधान के स्पष्ट इरादे को फिर से बनाने की कोशिश की है - और इस प्रकार वेस्ट बैंक और गाजा में अपने अब तक के आधी सदी लंबे कब्जे को इसके आवेदन से परे रखा है - यह एक प्रयास है जो कमजोर हो गया है। घोषणा की सटीक भाषा से ही स्पष्ट भ्रम पैदा हो गया। प्रासंगिक भाग में, प्रस्ताव की धारा 21 में "मध्य पूर्व में इज़राइल की विस्तारवादी गतिविधियों और फ़िलिस्तीनी नागरिकों पर लगातार बमबारी की कड़ी निंदा की गई, जो फ़िलिस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता की प्राप्ति में एक गंभीर बाधा है"।

पर स्वैच्छिक पारगमन से होकर गुजरता था। .

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वदेशी मुक्ति के वाहन के रूप में सशस्त्र संघर्ष के अधिकार की बात करने से पूरे 50 साल पहले, यूरोपीय ज़ायोनीवादियों ने अवैध रूप से इस अवधारणा को इरगुन , लेही और अन्य आतंकवादी समूहों के रूप में अपना लिया था, जिन्होंने एक दशक तक घातक तबाही मचाई थी । 

इस दौरान, उन्होंने न केवल हजारों स्वदेशी फ़िलिस्तीनियों की हत्या की, बल्कि ब्रिटिश पुलिस और सैन्य कर्मियों को भी निशाना बनाया, जिन्होंने लंबे समय से वहां औपनिवेशिक उपस्थिति बनाए रखी थी। 

ज़ायोनी हमलों का इतिहास
शायद, जब इजरायली अपने दो सैनिकों के निधन पर शोक मनाने के लिए बैठे हैं , जिनकी पिछले सप्ताह यरूशलेम में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी - जिसे कई लोग प्रतिरोध का एक वैध कार्य मानते हैं - स्मृति लेन पर जाकर देखने से घटनाओं को उनके उचित स्थान पर रखा जा सकता है ऐतिहासिक संदर्भ।

कब्जेदारों के लिए आत्मनिर्णय एक कठिन, महँगा मार्च है। फ़िलिस्तीन में, चाहे कोई भी पसंदीदा हथियार हो - चाहे आवाज़ हो, कलम हो या बंदूक - उसके इस्तेमाल के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है।


बहुत पहले, ब्रिटिशों को "अपनी मातृभूमि" पर कब्ज़ा करने वाली शक्ति के रूप में वर्णित करते हुए, ज़ायोनीवादियों ने पूरे फिलिस्तीन और अन्य जगहों पर ब्रिटिश पुलिस और सैन्य इकाइयों को बेरहमी से निशाना बनाया।

12 अप्रैल, 1938 को इरगुन ने हाइफ़ा में एक ट्रेन बम विस्फोट में दो ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों की हत्या कर दी। 26 अगस्त, 1939 को यरूशलेम में इरगुन बारूदी सुरंग से दो ब्रिटिश अधिकारी मारे गये । 14 फरवरी, 1944 को , दो ब्रिटिश कांस्टेबलों की गोली मारकर हत्या कर दी गई जब उन्होंने हाइफ़ा में दीवार पर पोस्टर चिपकाने के आरोप में लोगों को गिरफ्तार करने का प्रयास किया। 27 सितंबर, 1944 को इरगुन के 100 से अधिक सदस्यों ने चार ब्रिटिश पुलिस स्टेशनों पर हमला किया, जिसमें सैकड़ों अधिकारी घायल हो गए। दो दिन बाद यरूशलेम में आपराधिक खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ ब्रिटिश पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी गई।

1 नवंबर, 1945 को पांच ट्रेनों पर हुए बम विस्फोट में एक और पुलिस अधिकारी की मौत हो गई। 27 दिसंबर, 1945 को यरूशलेम में पुलिस मुख्यालय पर हुए बम विस्फोट में सात ब्रिटिश अधिकारियों की जान चली गई। 9 और 13 नवंबर, 1946 के बीच , यहूदी "भूमिगत" सदस्यों ने रेलवे स्टेशनों, ट्रेनों और स्ट्रीटकार्स में बारूदी सुरंग और सूटकेस बम हमलों की एक श्रृंखला शुरू की, जिसमें 11 ब्रिटिश सैनिक और पुलिसकर्मी और आठ अरब कांस्टेबल मारे गए।

12 जनवरी, 1947 को पुलिस मुख्यालय पर एक अन्य हमले में चार और अधिकारियों की हत्या कर दी गई । नौ महीने बाद, इरगुन बैंक डकैती में चार ब्रिटिश पुलिस की हत्या कर दी गई और, लेकिन तीन दिन बाद, 26 सितंबर, 1947 को , ब्रिटिश पुलिस स्टेशन पर एक और आतंकवादी हमले में अतिरिक्त 13 अधिकारी मारे गए।  

ये ब्रिटिश पुलिस पर ज़ायोनी आतंकवादियों द्वारा निर्देशित कई हमलों में से कुछ हैं, जिन्हें ज्यादातर यूरोपीय यहूदियों द्वारा एक अभियान के वैध लक्ष्य के रूप में देखा गया था, जिसे उन्होंने एक कब्जे वाली सेना के खिलाफ मुक्ति के रूप में वर्णित किया था।

इस पूरी अवधि में, यहूदी आतंकवादियों ने अनगिनत हमले भी किये जिनमें ब्रिटिश और फ़िलिस्तीनी बुनियादी ढाँचे का कोई भी हिस्सा नहीं बचा। उन्होंने ब्रिटिश सैन्य और पुलिस प्रतिष्ठानों, सरकारी कार्यालयों और जहाजों पर अक्सर बमों से हमला किया। उन्होंने रेलवे, पुलों और तेल प्रतिष्ठानों में भी तोड़फोड़ की। दर्जनों आर्थिक ठिकानों पर हमले किए गए, जिनमें 20 ट्रेनें क्षतिग्रस्त या पटरी से उतर गईं और पांच रेलवे स्टेशन शामिल थे। तेल उद्योग के खिलाफ कई हमले किए गए, जिनमें मार्च 1947 में हाइफ़ा में शेल तेल रिफाइनरी पर हमला भी शामिल था, जिसमें लगभग 16,000 टन पेट्रोलियम नष्ट हो गया था। 

इस पूरी अवधि में, यहूदी आतंकवादियों ने अनगिनत हमले भी किये जिनमें ब्रिटिश और फ़िलिस्तीनी बुनियादी ढाँचे का कोई भी हिस्सा नहीं बचा। उन्होंने ब्रिटिश सैन्य और पुलिस प्रतिष्ठानों, सरकारी कार्यालयों और जहाजों पर अक्सर बमों से हमला किया। उन्होंने रेलवे, पुलों और तेल प्रतिष्ठानों में भी तोड़फोड़ की। दर्जनों आर्थिक ठिकानों पर हमले किए गए, जिनमें 20 ट्रेनें क्षतिग्रस्त या पटरी से उतर गईं और पांच रेलवे स्टेशन शामिल थे। तेल उद्योग के खिलाफ कई हमले किए गए, जिनमें मार्च 1947 में हाइफ़ा में शेल तेल रिफाइनरी पर हमला भी शामिल था, जिसमें लगभग 16,000 टन पेट्रोलियम नष्ट हो गया था। 
1947 में, इरगुन ने दो ब्रिटिश आर्मी इंटेलिजेंस कोर के गैर-कमीशन अधिकारियों का अपहरण कर लिया और धमकी दी कि अगर उनके अपने तीन सदस्यों की मौत की सजा दी गई तो उन्हें फांसी पर लटका दिया जाएगा। जब इन तीन इरगुन सदस्यों को फाँसी पर लटका दिया गया, तो प्रतिशोध में दो ब्रिटिश सार्जेंटों को फाँसी पर लटका दिया गया और उनके फँसे हुए शवों को नीलगिरी के बाग में छोड़ दिया गया। 


रहना

रायराय,
राय
|
टकराव
फिलिस्तीनियों को सशस्त्र संघर्ष का कानूनी अधिकार है
इजराइल के लिए यह स्वीकार करने का समय आ गया है कि कब्जे वाले लोगों के रूप में, फिलिस्तीनियों को हर संभव तरीके से विरोध करने का अधिकार है।

स्टेनली एल कोहेन
स्टेनली एल कोहेन
स्टेनली एल कोहेन एक वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं जिन्होंने मध्य पूर्व और अफ्रीका में व्यापक काम किया है।
20 जुलाई 2017 को प्रकाशित
20 जुलाई 2017
फ़िलिस्तीनी ने रॉयटर्स पर हमला किया
कोहेन लिखते हैं, फ़िलिस्तीन में, अंतर्राष्ट्रीय कानून कब्जे वाले लोगों के लिए आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को मान्यता देता है।
बहुत पहले, यह तय हो गया था कि औपनिवेशिक कब्जे वाली सेना के खिलाफ प्रतिरोध और यहां तक कि सशस्त्र संघर्ष को न केवल अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत मान्यता दी गई है बल्कि विशेष रूप से इसका समर्थन किया गया है।

अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानून के अनुसार, 1949 के जिनेवा कन्वेंशन ( पीडीएफ ) में अतिरिक्त प्रोटोकॉल I को अपनाने के माध्यम से , हर जगह कब्जे वाले लोगों के एक संरक्षित और आवश्यक अधिकार के रूप में, राष्ट्रीय मुक्ति के युद्धों को स्पष्ट रूप से अपनाया गया है।


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अरब देशों के साथ युद्ध के 50 साल बाद इज़रायली कब्ज़ा 'तेज' हो रहा है
देखें: अरब देशों के साथ युद्ध के 50 साल बाद इज़रायली कब्ज़ा 'तीव्र' हो रहा है (2:59)

पढ़ते रहते हैं
4 वस्तुओं की सूची
4 में से 1 सूची
संयुक्त राष्ट्र दूत का कहना है कि इजरायलियों, फिलिस्तीनियों दोनों के साथ खड़ा होना 'आवश्यक' है
4 में से 2 की सूची
गाजा-इजरायल पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक, लेकिन बयान पर नहीं बनी सहमति
4 में से 3 की सूची
रूस-यूक्रेन युद्ध: प्रमुख घटनाओं की सूची, दिन 593
4 में से 4 की सूची
तस्वीरें: इजरायली सेना ने गाजा पर किया हवाई हमला
सूची का अंत
मानवीय कानून में बढ़ती जीवन शक्ति को देखते हुए, दशकों से संयुक्त राष्ट्र (यूएनजीए) की महासभा - जिसे कभी दुनिया की सामूहिक चेतना के रूप में वर्णित किया गया था - ने लोगों के आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के अधिकार पर ध्यान दिया है।  

दरअसल, 1974 की शुरुआत में, यूएनजीए के प्रस्ताव 3314 ने राज्यों को "किसी भी सैन्य कब्जे, चाहे वह अस्थायी ही क्यों न हो" से प्रतिबंधित कर दिया था ।

प्रासंगिक भाग में, संकल्प न केवल उस अधिकार से जबरन वंचित किए गए लोगों के आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के अधिकार की पुष्टि करता है, विशेष रूप से औपनिवेशिक और नस्लवादी शासन या विदेशी वर्चस्व के अन्य रूपों के तहत लोगों के अधिकार की पुष्टि करता है। ” लेकिन उस प्रयास में “संघर्ष करने और समर्थन प्राप्त करने” के कब्जे वाले के अधिकार पर ध्यान दिया। 

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शब्द "सशस्त्र संघर्ष" उस प्रस्ताव और कई अन्य शुरुआती प्रस्तावों में सटीक परिभाषा के बिना निहित था, जो किसी कब्जेदार को बेदखल करने के स्वदेशी व्यक्तियों के अधिकार को बरकरार रखता था।

इस अशुद्धि को 3 दिसंबर, 1982 को बदलना था। उस समय यूएनजीए के प्रस्ताव 37/43 ने कब्जे वाले लोगों के किसी भी और सभी वैध तरीकों से कब्जे वाली ताकतों का विरोध करने के वैध अधिकार पर किसी भी संदेह या बहस को हटा दिया था। प्रस्ताव में "सशस्त्र संघर्ष सहित सभी उपलब्ध तरीकों से स्वतंत्रता, क्षेत्रीय अखंडता, राष्ट्रीय एकता और औपनिवेशिक और विदेशी प्रभुत्व और विदेशी कब्जे से मुक्ति के लिए लोगों के संघर्ष की वैधता" की पुष्टि की गई।

एक स्पष्ट भ्रम
हालाँकि इज़राइल ने बार-बार इस सटीक समाधान के स्पष्ट इरादे को फिर से बनाने की कोशिश की है - और इस प्रकार वेस्ट बैंक और गाजा में अपने अब तक के आधी सदी लंबे कब्जे को इसके आवेदन से परे रखा है - यह एक प्रयास है जो कमजोर हो गया है। घोषणा की सटीक भाषा से ही स्पष्ट भ्रम पैदा हो गया। प्रासंगिक भाग में, प्रस्ताव की धारा 21 में "मध्य पूर्व में इज़राइल की विस्तारवादी गतिविधियों और फ़िलिस्तीनी नागरिकों पर लगातार बमबारी की कड़ी निंदा की गई, जो फ़िलिस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता की प्राप्ति में एक गंभीर बाधा है"।


और पढ़ें: गाजा में फ़िलिस्तीनियों ने 10 वर्षों की घेराबंदी पर विचार किया

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से बहुत पहले, यूरोपीय ज़ायोनीवादियों ने इतिहास को फिर से लिखने में कभी संकोच नहीं किया, क्योंकि वे फ़िलिस्तीन में प्रवास करते समय खुद को एक कब्ज़ा किए हुए लोग मानते थे - एक ऐसी भूमि जिसके साथ उनका लंबे समय से कोई भी ऐतिहासिक संबंध बड़े पैमाने पर स्वैच्छिक पारगमन से होकर गुजरता था। .

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वदेशी मुक्ति के वाहन के रूप में सशस्त्र संघर्ष के अधिकार की बात करने से पूरे 50 साल पहले, यूरोपीय ज़ायोनीवादियों ने अवैध रूप से इस अवधारणा को इरगुन , लेही और अन्य आतंकवादी समूहों के रूप में अपना लिया था, जिन्होंने एक दशक तक घातक तबाही मचाई थी । 

इस दौरान, उन्होंने न केवल हजारों स्वदेशी फ़िलिस्तीनियों की हत्या की, बल्कि ब्रिटिश पुलिस और सैन्य कर्मियों को भी निशाना बनाया, जिन्होंने लंबे समय से वहां औपनिवेशिक उपस्थिति बनाए रखी थी। 

ज़ायोनी हमलों का इतिहास
शायद, जब इजरायली अपने दो सैनिकों के निधन पर शोक मनाने के लिए बैठे हैं , जिनकी पिछले सप्ताह यरूशलेम में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी - जिसे कई लोग प्रतिरोध का एक वैध कार्य मानते हैं - स्मृति लेन पर जाकर देखने से घटनाओं को उनके उचित स्थान पर रखा जा सकता है ऐतिहासिक संदर्भ।



कब्जेदारों के लिए आत्मनिर्णय एक कठिन, महँगा मार्च है। फ़िलिस्तीन में, चाहे कोई भी पसंदीदा हथियार हो - चाहे आवाज़ हो, कलम हो या बंदूक - उसके इस्तेमाल के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है।

द्वारा 

बहुत पहले, ब्रिटिशों को "अपनी मातृभूमि" पर कब्ज़ा करने वाली शक्ति के रूप में वर्णित करते हुए, ज़ायोनीवादियों ने पूरे फिलिस्तीन और अन्य जगहों पर ब्रिटिश पुलिस और सैन्य इकाइयों को बेरहमी से निशाना बनाया।

12 अप्रैल, 1938 को इरगुन ने हाइफ़ा में एक ट्रेन बम विस्फोट में दो ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों की हत्या कर दी। 26 अगस्त, 1939 को यरूशलेम में इरगुन बारूदी सुरंग से दो ब्रिटिश अधिकारी मारे गये । 14 फरवरी, 1944 को , दो ब्रिटिश कांस्टेबलों की गोली मारकर हत्या कर दी गई जब उन्होंने हाइफ़ा में दीवार पर पोस्टर चिपकाने के आरोप में लोगों को गिरफ्तार करने का प्रयास किया। 27 सितंबर, 1944 को इरगुन के 100 से अधिक सदस्यों ने चार ब्रिटिश पुलिस स्टेशनों पर हमला किया, जिसमें सैकड़ों अधिकारी घायल हो गए। दो दिन बाद यरूशलेम में आपराधिक खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ ब्रिटिश पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी गई।

1 नवंबर, 1945 को पांच ट्रेनों पर हुए बम विस्फोट में एक और पुलिस अधिकारी की मौत हो गई। 27 दिसंबर, 1945 को यरूशलेम में पुलिस मुख्यालय पर हुए बम विस्फोट में सात ब्रिटिश अधिकारियों की जान चली गई। 9 और 13 नवंबर, 1946 के बीच , यहूदी "भूमिगत" सदस्यों ने रेलवे स्टेशनों, ट्रेनों और स्ट्रीटकार्स में बारूदी सुरंग और सूटकेस बम हमलों की एक श्रृंखला शुरू की, जिसमें 11 ब्रिटिश सैनिक और पुलिसकर्मी और आठ अरब कांस्टेबल मारे गए।

12 जनवरी, 1947 को पुलिस मुख्यालय पर एक अन्य हमले में चार और अधिकारियों की हत्या कर दी गई । नौ महीने बाद, इरगुन बैंक डकैती में चार ब्रिटिश पुलिस की हत्या कर दी गई और, लेकिन तीन दिन बाद, 26 सितंबर, 1947 को , ब्रिटिश पुलिस स्टेशन पर एक और आतंकवादी हमले में अतिरिक्त 13 अधिकारी मारे गए।  

ये ब्रिटिश पुलिस पर ज़ायोनी आतंकवादियों द्वारा निर्देशित कई हमलों में से कुछ हैं, जिन्हें ज्यादातर यूरोपीय यहूदियों द्वारा एक अभियान के वैध लक्ष्य के रूप में देखा गया था, जिसे उन्होंने एक कब्जे वाली सेना के खिलाफ मुक्ति के रूप में वर्णित किया था।

What military aid the US is sending to Israel after Hamas attack?
इस पूरी अवधि में, यहूदी आतंकवादियों ने अनगिनत हमले भी किये जिनमें ब्रिटिश और फ़िलिस्तीनी बुनियादी ढाँचे का कोई भी हिस्सा नहीं बचा। उन्होंने ब्रिटिश सैन्य और पुलिस प्रतिष्ठानों, सरकारी कार्यालयों और जहाजों पर अक्सर बमों से हमला किया। उन्होंने रेलवे, पुलों और तेल प्रतिष्ठानों में भी तोड़फोड़ की। दर्जनों आर्थिक ठिकानों पर हमले किए गए, जिनमें 20 ट्रेनें क्षतिग्रस्त या पटरी से उतर गईं और पांच रेलवे स्टेशन शामिल थे। तेल उद्योग के खिलाफ कई हमले किए गए, जिनमें मार्च 1947 में हाइफ़ा में शेल तेल रिफाइनरी पर हमला भी शामिल था, जिसमें लगभग 16,000 टन पेट्रोलियम नष्ट हो गया था। 

और पढ़ें: कैसे इजराइल ने पूरे फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया?

ज़ायोनी आतंकवादियों ने बूबी ट्रैप, घात लगाकर, स्नाइपर्स और वाहन विस्फोटों का उपयोग करके पूरे फिलिस्तीन में ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला। 

एक हमला, विशेष रूप से, उन लोगों के आतंकवाद का सार प्रस्तुत करता है, जिन्होंने उस समय अंतरराष्ट्रीय कानून के किसी भी बल के बिना, उस भूमि को "मुक्त" करने के अपने प्रयासों में कोई सीमा नहीं देखी, जो उनके पास थी, जो कि बड़े पैमाने पर हाल ही में प्रवासित हुई थी। 

1947 में, इरगुन ने दो ब्रिटिश आर्मी इंटेलिजेंस कोर के गैर-कमीशन अधिकारियों का अपहरण कर लिया और धमकी दी कि अगर उनके अपने तीन सदस्यों की मौत की सजा दी गई तो उन्हें फांसी पर लटका दिया जाएगा। जब इन तीन इरगुन सदस्यों को फाँसी पर लटका दिया गया, तो प्रतिशोध में दो ब्रिटिश सार्जेंटों को फाँसी पर लटका दिया गया और उनके फँसे हुए शवों को नीलगिरी के बाग में छोड़ दिया गया। 

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25:14
फ़िलिस्तीन और इज़राइल: एक राज्य, या दो? - अग्रिम
देखें: अग्रिम-फ़िलिस्तीन और इज़राइल: एक राज्य, या दो? (25:15)

उनकी फांसी की घोषणा करते हुए, इरगुन ने कहा कि दो ब्रिटिश सैनिकों को "आपराधिक हिब्रू विरोधी गतिविधियों" के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद फांसी दी गई थी, जिसमें शामिल थे: हिब्रू मातृभूमि में अवैध प्रवेश और एक ब्रिटिश आपराधिक आतंकवादी संगठन में सदस्यता - जिसे सेना की सेना के रूप में जाना जाता है। - जो "यातना, हत्या, निर्वासन और हिब्रू लोगों को जीने के अधिकार से वंचित करने के लिए जिम्मेदार था"। सैनिकों पर अवैध हथियार रखने, नागरिक कपड़ों में यहूदी-विरोधी जासूसी करने और भूमिगत ( पीडीएफ ) के खिलाफ पूर्व-निर्धारित शत्रुतापूर्ण डिजाइन का भी आरोप लगाया गया था। 

रहना

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फिलिस्तीनियों को सशस्त्र संघर्ष का कानूनी अधिकार है
इजराइल के लिए यह स्वीकार करने का समय आ गया है कि कब्जे वाले लोगों के रूप में, फिलिस्तीनियों को हर संभव तरीके से विरोध करने का अधिकार है।

स्टेनली एल कोहेन
स्टेनली एल कोहेन
स्टेनली एल कोहेन एक वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं जिन्होंने मध्य पूर्व और अफ्रीका में व्यापक काम किया है।
20 जुलाई 2017 को प्रकाशित
20 जुलाई 2017
फ़िलिस्तीनी ने रॉयटर्स पर हमला किया
कोहेन लिखते हैं, फ़िलिस्तीन में, अंतर्राष्ट्रीय कानून कब्जे वाले लोगों के लिए आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को मान्यता देता है।
बहुत पहले, यह तय हो गया था कि औपनिवेशिक कब्जे वाली सेना के खिलाफ प्रतिरोध और यहां तक कि सशस्त्र संघर्ष को न केवल अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत मान्यता दी गई है बल्कि विशेष रूप से इसका समर्थन किया गया है।

अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी कानून के अनुसार, 1949 के जिनेवा कन्वेंशन ( पीडीएफ ) में अतिरिक्त प्रोटोकॉल I को अपनाने के माध्यम से , हर जगह कब्जे वाले लोगों के एक संरक्षित और आवश्यक अधिकार के रूप में, राष्ट्रीय मुक्ति के युद्धों को स्पष्ट रूप से अपनाया गया है।


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अरब देशों के साथ युद्ध के 50 साल बाद इज़रायली कब्ज़ा 'तेज' हो रहा है
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संयुक्त राष्ट्र दूत का कहना है कि इजरायलियों, फिलिस्तीनियों दोनों के साथ खड़ा होना 'आवश्यक' है
4 में से 2 की सूची
गाजा-इजरायल पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक, लेकिन बयान पर नहीं बनी सहमति
4 में से 3 की सूची
रूस-यूक्रेन युद्ध: प्रमुख घटनाओं की सूची, दिन 593
4 में से 4 की सूची
तस्वीरें: इजरायली सेना ने गाजा पर किया हवाई हमला
सूची का अंत
मानवीय कानून में बढ़ती जीवन शक्ति को देखते हुए, दशकों से संयुक्त राष्ट्र (यूएनजीए) की महासभा - जिसे कभी दुनिया की सामूहिक चेतना के रूप में वर्णित किया गया था - ने लोगों के आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के अधिकार पर ध्यान दिया है।  

दरअसल, 1974 की शुरुआत में, यूएनजीए के प्रस्ताव 3314 ने राज्यों को "किसी भी सैन्य कब्जे, चाहे वह अस्थायी ही क्यों न हो" से प्रतिबंधित कर दिया था ।

प्रासंगिक भाग में, संकल्प न केवल उस अधिकार से जबरन वंचित किए गए लोगों के आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के अधिकार की पुष्टि करता है, विशेष रूप से औपनिवेशिक और नस्लवादी शासन या विदेशी वर्चस्व के अन्य रूपों के तहत लोगों के अधिकार की पुष्टि करता है। ” लेकिन उस प्रयास में “संघर्ष करने और समर्थन प्राप्त करने” के कब्जे वाले के अधिकार पर ध्यान दिया। 

अल जज़ीरा के लिए साइन अप करें
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शब्द "सशस्त्र संघर्ष" उस प्रस्ताव और कई अन्य शुरुआती प्रस्तावों में सटीक परिभाषा के बिना निहित था, जो किसी कब्जेदार को बेदखल करने के स्वदेशी व्यक्तियों के अधिकार को बरकरार रखता था।

इस अशुद्धि को 3 दिसंबर, 1982 को बदलना था। उस समय यूएनजीए के प्रस्ताव 37/43 ने कब्जे वाले लोगों के किसी भी और सभी वैध तरीकों से कब्जे वाली ताकतों का विरोध करने के वैध अधिकार पर किसी भी संदेह या बहस को हटा दिया था। प्रस्ताव में "सशस्त्र संघर्ष सहित सभी उपलब्ध तरीकों से स्वतंत्रता, क्षेत्रीय अखंडता, राष्ट्रीय एकता और औपनिवेशिक और विदेशी प्रभुत्व और विदेशी कब्जे से मुक्ति के लिए लोगों के संघर्ष की वैधता" की पुष्टि की गई।

एक स्पष्ट भ्रम
हालाँकि इज़राइल ने बार-बार इस सटीक समाधान के स्पष्ट इरादे को फिर से बनाने की कोशिश की है - और इस प्रकार वेस्ट बैंक और गाजा में अपने अब तक के आधी सदी लंबे कब्जे को इसके आवेदन से परे रखा है - यह एक प्रयास है जो कमजोर हो गया है। घोषणा की सटीक भाषा से ही स्पष्ट भ्रम पैदा हो गया। प्रासंगिक भाग में, प्रस्ताव की धारा 21 में "मध्य पूर्व में इज़राइल की विस्तारवादी गतिविधियों और फ़िलिस्तीनी नागरिकों पर लगातार बमबारी की कड़ी निंदा की गई, जो फ़िलिस्तीनी लोगों के आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता की प्राप्ति में एक गंभीर बाधा है"।


और पढ़ें: गाजा में फ़िलिस्तीनियों ने 10 वर्षों की घेराबंदी पर विचार किया

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से बहुत पहले, यूरोपीय ज़ायोनीवादियों ने इतिहास को फिर से लिखने में कभी संकोच नहीं किया, क्योंकि वे फ़िलिस्तीन में प्रवास करते समय खुद को एक कब्ज़ा किए हुए लोग मानते थे - एक ऐसी भूमि जिसके साथ उनका लंबे समय से कोई भी ऐतिहासिक संबंध बड़े पैमाने पर स्वैच्छिक पारगमन से होकर गुजरता था। .

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वदेशी मुक्ति के वाहन के रूप में सशस्त्र संघर्ष के अधिकार की बात करने से पूरे 50 साल पहले, यूरोपीय ज़ायोनीवादियों ने अवैध रूप से इस अवधारणा को इरगुन , लेही और अन्य आतंकवादी समूहों के रूप में अपना लिया था, जिन्होंने एक दशक तक घातक तबाही मचाई थी । 

इस दौरान, उन्होंने न केवल हजारों स्वदेशी फ़िलिस्तीनियों की हत्या की, बल्कि ब्रिटिश पुलिस और सैन्य कर्मियों को भी निशाना बनाया, जिन्होंने लंबे समय से वहां औपनिवेशिक उपस्थिति बनाए रखी थी। 

ज़ायोनी हमलों का इतिहास
शायद, जब इजरायली अपने दो सैनिकों के निधन पर शोक मनाने के लिए बैठे हैं , जिनकी पिछले सप्ताह यरूशलेम में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी - जिसे कई लोग प्रतिरोध का एक वैध कार्य मानते हैं - स्मृति लेन पर जाकर देखने से घटनाओं को उनके उचित स्थान पर रखा जा सकता है ऐतिहासिक संदर्भ।



कब्जेदारों के लिए आत्मनिर्णय एक कठिन, महँगा मार्च है। फ़िलिस्तीन में, चाहे कोई भी पसंदीदा हथियार हो - चाहे आवाज़ हो, कलम हो या बंदूक - उसके इस्तेमाल के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है।

द्वारा 

बहुत पहले, ब्रिटिशों को "अपनी मातृभूमि" पर कब्ज़ा करने वाली शक्ति के रूप में वर्णित करते हुए, ज़ायोनीवादियों ने पूरे फिलिस्तीन और अन्य जगहों पर ब्रिटिश पुलिस और सैन्य इकाइयों को बेरहमी से निशाना बनाया।

12 अप्रैल, 1938 को इरगुन ने हाइफ़ा में एक ट्रेन बम विस्फोट में दो ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों की हत्या कर दी। 26 अगस्त, 1939 को यरूशलेम में इरगुन बारूदी सुरंग से दो ब्रिटिश अधिकारी मारे गये । 14 फरवरी, 1944 को , दो ब्रिटिश कांस्टेबलों की गोली मारकर हत्या कर दी गई जब उन्होंने हाइफ़ा में दीवार पर पोस्टर चिपकाने के आरोप में लोगों को गिरफ्तार करने का प्रयास किया। 27 सितंबर, 1944 को इरगुन के 100 से अधिक सदस्यों ने चार ब्रिटिश पुलिस स्टेशनों पर हमला किया, जिसमें सैकड़ों अधिकारी घायल हो गए। दो दिन बाद यरूशलेम में आपराधिक खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ ब्रिटिश पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी गई।

1 नवंबर, 1945 को पांच ट्रेनों पर हुए बम विस्फोट में एक और पुलिस अधिकारी की मौत हो गई। 27 दिसंबर, 1945 को यरूशलेम में पुलिस मुख्यालय पर हुए बम विस्फोट में सात ब्रिटिश अधिकारियों की जान चली गई। 9 और 13 नवंबर, 1946 के बीच , यहूदी "भूमिगत" सदस्यों ने रेलवे स्टेशनों, ट्रेनों और स्ट्रीटकार्स में बारूदी सुरंग और सूटकेस बम हमलों की एक श्रृंखला शुरू की, जिसमें 11 ब्रिटिश सैनिक और पुलिसकर्मी और आठ अरब कांस्टेबल मारे गए।

12 जनवरी, 1947 को पुलिस मुख्यालय पर एक अन्य हमले में चार और अधिकारियों की हत्या कर दी गई । नौ महीने बाद, इरगुन बैंक डकैती में चार ब्रिटिश पुलिस की हत्या कर दी गई और, लेकिन तीन दिन बाद, 26 सितंबर, 1947 को , ब्रिटिश पुलिस स्टेशन पर एक और आतंकवादी हमले में अतिरिक्त 13 अधिकारी मारे गए।  

ये ब्रिटिश पुलिस पर ज़ायोनी आतंकवादियों द्वारा निर्देशित कई हमलों में से कुछ हैं, जिन्हें ज्यादातर यूरोपीय यहूदियों द्वारा एक अभियान के वैध लक्ष्य के रूप में देखा गया था, जिसे उन्होंने एक कब्जे वाली सेना के खिलाफ मुक्ति के रूप में वर्णित किया था।

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इस पूरी अवधि में, यहूदी आतंकवादियों ने अनगिनत हमले भी किये जिनमें ब्रिटिश और फ़िलिस्तीनी बुनियादी ढाँचे का कोई भी हिस्सा नहीं बचा। उन्होंने ब्रिटिश सैन्य और पुलिस प्रतिष्ठानों, सरकारी कार्यालयों और जहाजों पर अक्सर बमों से हमला किया। उन्होंने रेलवे, पुलों और तेल प्रतिष्ठानों में भी तोड़फोड़ की। दर्जनों आर्थिक ठिकानों पर हमले किए गए, जिनमें 20 ट्रेनें क्षतिग्रस्त या पटरी से उतर गईं और पांच रेलवे स्टेशन शामिल थे। तेल उद्योग के खिलाफ कई हमले किए गए, जिनमें मार्च 1947 में हाइफ़ा में शेल तेल रिफाइनरी पर हमला भी शामिल था, जिसमें लगभग 16,000 टन पेट्रोलियम नष्ट हो गया था। 

और पढ़ें: कैसे इजराइल ने पूरे फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया?

ज़ायोनी आतंकवादियों ने बूबी ट्रैप, घात लगाकर, स्नाइपर्स और वाहन विस्फोटों का उपयोग करके पूरे फिलिस्तीन में ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला। 

एक हमला, विशेष रूप से, उन लोगों के आतंकवाद का सार प्रस्तुत करता है, जिन्होंने उस समय अंतरराष्ट्रीय कानून के किसी भी बल के बिना, उस भूमि को "मुक्त" करने के अपने प्रयासों में कोई सीमा नहीं देखी, जो उनके पास थी, जो कि बड़े पैमाने पर हाल ही में प्रवासित हुई थी। 

1947 में, इरगुन ने दो ब्रिटिश आर्मी इंटेलिजेंस कोर के गैर-कमीशन अधिकारियों का अपहरण कर लिया और धमकी दी कि अगर उनके अपने तीन सदस्यों की मौत की सजा दी गई तो उन्हें फांसी पर लटका दिया जाएगा। जब इन तीन इरगुन सदस्यों को फाँसी पर लटका दिया गया, तो प्रतिशोध में दो ब्रिटिश सार्जेंटों को फाँसी पर लटका दिया गया और उनके फँसे हुए शवों को नीलगिरी के बाग में छोड़ दिया गया। 

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फ़िलिस्तीन और इज़राइल: एक राज्य, या दो? - अग्रिम
देखें: अग्रिम-फ़िलिस्तीन और इज़राइल: एक राज्य, या दो? (25:15)

उनकी फांसी की घोषणा करते हुए, इरगुन ने कहा कि दो ब्रिटिश सैनिकों को "आपराधिक हिब्रू विरोधी गतिविधियों" के लिए दोषी ठहराए जाने के बाद फांसी दी गई थी, जिसमें शामिल थे: हिब्रू मातृभूमि में अवैध प्रवेश और एक ब्रिटिश आपराधिक आतंकवादी संगठन में सदस्यता - जिसे सेना की सेना के रूप में जाना जाता है। - जो "यातना, हत्या, निर्वासन और हिब्रू लोगों को जीने के अधिकार से वंचित करने के लिए जिम्मेदार था"। सैनिकों पर अवैध हथियार रखने, नागरिक कपड़ों में यहूदी-विरोधी जासूसी करने और भूमिगत ( पीडीएफ ) के खिलाफ पूर्व-निर्धारित शत्रुतापूर्ण डिजाइन का भी आरोप लगाया गया था। 


उन लोगों के लिए जिन्होंने कभी भी उत्पीड़न के निरंतर जुए को महसूस नहीं किया है, या इसे करीब से नहीं देखा है, यह समझ से परे एक दृश्य है। व्यवसाय, हर दिन हर तरह से व्यस्त लोगों पर भारी पड़ता है, यह सीमित कर देता है कि आप कौन हैं और आप क्या बनने का साहस कर सकते हैं। 

बैरिकेड्स, बंदूकों, आदेशों, जेल और मौत की लगातार मार कब्जे में लिए गए लोगों के लिए साथी यात्री हैं, चाहे वे शिशु हों, जीवन के वसंत में किशोर हों, बुजुर्ग हों, या सीमाओं की कृत्रिम सीमाओं में फंसे लोग हों, जिन पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है।
तीन युवा, चचेरे भाई, जिन्होंने यरूशलेम में दो इजरायली अधिकारियों पर हमले में स्वेच्छा से अपने प्राणों की आहुति दे दी, उन्होंने हताशा से पैदा हुए एक खाली संकेत के रूप में ऐसा नहीं किया, बल्कि राष्ट्रीय गौरव का एक व्यक्तिगत बयान दिया जो दूसरों की एक लंबी कतार का अनुसरण करता है यह भली-भांति समझते हैं कि स्वतंत्रता की कीमत, कभी-कभी, सब कुछ हो सकती है।

उन दो इज़रायली ड्रुज़ पुलिसकर्मियों के परिवारों के प्रति, जिन्होंने एक ऐसी जगह पर नियंत्रण करने की कोशिश में अपनी जान गंवा दी, जिस पर उनका नियंत्रण नहीं था, मैं अपनी संवेदना व्यक्त करता हूं। हालाँकि, ये नवयुवक प्रतिरोध के घेरे में नहीं हारे थे, बल्कि स्वेच्छा से एक ऐसे बुरे व्यवसाय के कारण बलिदान हुए थे जिसकी कोई भी वैधता नहीं है।

अंततः, अगर शोक करना है, तो यह 11 मिलियन कब्जे वाले लोगों के लिए होना चाहिए, चाहे वे फिलिस्तीन में हों या बाहर, इतने सारे राज्यविहीन शरणार्थी, एक सार्थक आवाज और अवसर से वंचित, क्योंकि दुनिया बड़े पैमाने पर राजनीतिक और राजनीतिक बहाने बनाती है। आर्थिक उपहार बॉक्स जिस पर डेविड का सितारा अंकित है।

अब एक दिन भी ऐसा नहीं बीतता जब किसी देश की ओर से कफ़न में लिपटे फिलिस्तीनी नवजात शिशु को जीवन से छीनते हुए नहीं देखा जाता क्योंकि बिजली या पारगमन एक विकृत विशेषाधिकार बन गया है जो लाखों लोगों को कुछ लोगों की राजनीतिक सनक का बंधक बना देता है। चाहे वे इज़रायली हों, मिस्र के हों या वे जो फ़िलिस्तीनी राजनीतिक नेतृत्व की बागडोर संभालने का दावा करते हैं, गाजा में शिशुहत्या की ज़िम्मेदारी उनकी और अकेले उनकी है।

संघर्ष नहीं तो प्रगति नहीं'
तीन युवा, चचेरे भाई, जिन्होंने यरूशलेम में दो इजरायली अधिकारियों पर हमले में स्वेच्छा से अपने प्राणों की आहुति दे दी, उन्होंने हताशा से पैदा हुए एक खाली संकेत के रूप में ऐसा नहीं किया, बल्कि राष्ट्रीय गौरव का एक व्यक्तिगत बयान दिया जो दूसरों की एक लंबी कतार का अनुसरण करता है यह भली-भांति समझते हैं कि स्वतंत्रता की कीमत, कभी-कभी, सब कुछ हो सकती है।

70 वर्षों से, युवा फिलिस्तीनी महिलाओं और पुरुषों को खोए बिना एक दिन भी नहीं बीता है, जिन्होंने दुखद रूप से, अपने जीवन के मापदंडों को निर्धारित करने का साहस करने वालों द्वारा नियंत्रित आज्ञाकारी, निष्क्रिय जीवन की तुलना में शहादत में अधिक सम्मान और स्वतंत्रता पाई।

दुनिया भर में हममें से लाखों लोग फ़िलिस्तीनियों के लिए एक बेहतर समय और स्थान का सपना देखते हैं... अपने पंख फैलाने, ऊंची उड़ान भरने, यह जानने के लिए कि वे कौन हैं और क्या बनना चाहते हैं, स्वतंत्र हैं। तब तक, मैं उन लोगों के नुकसान पर शोक नहीं मनाता जो अपनी उड़ान रोकते हैं। इसके बजाय, मैं उन लोगों की सराहना करता हूं जो संघर्ष करने का साहस करते हैं, जीतने का साहस करते हैं - किसी भी तरह से आवश्यक।

प्रतिरोध और संघर्ष का कोई जादू नहीं है। वे समय और स्थान से परे जाते हैं और प्राकृतिक झुकाव में अपना अर्थ और उत्साह प्राप्त करते हैं, वास्तव में, हम सभी को स्वतंत्र होने के लिए प्रेरित करते हैं - अपने स्वयं के जीवन की भूमिका निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र होने के लिए। 


फ़िलिस्तीन में ऐसी कोई आज़ादी मौजूद नहीं है। फिलिस्तीन में, अंतर्राष्ट्रीय कानून कब्जे वाले लोगों के लिए आत्मनिर्णय, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को मान्यता देता है। फ़िलिस्तीन में, यदि आवश्यक हो तो सशस्त्र संघर्ष का अधिकार भी शामिल है। 

बहुत पहले, प्रसिद्ध उन्मूलनवादी फ्रेडरिक डगलस , जो स्वयं एक पूर्व गुलाम थे, ने संघर्ष के बारे में लिखा था। ये शब्द फ़िलिस्तीन में आज भी उतने ही गूंजते हैं जितने 150 साल पहले संयुक्त राज्य अमेरिका के एंटेबेलम साउथ के मध्य में गूंजते थे :

“अगर कोई संघर्ष नहीं है, तो कोई प्रगति नहीं है। जो लोग स्वतंत्रता के पक्षधर होने का दावा करते हैं, और फिर भी आंदोलन को महत्व नहीं देते, वे ऐसे लोग हैं जो जमीन को जोते बिना फसल चाहते हैं। वे बिना गरज और बिजली के बारिश चाहते हैं। वे समुद्र को उसके अनेक जलों की भयानक गर्जना के बिना चाहते हैं। यह संघर्ष नैतिक हो सकता है; या यह भौतिक हो सकता है; या यह नैतिक और शारीरिक दोनों हो सकता है; लेकिन यह एक संघर्ष होना चाहिए. शक्ति मांग के बिना कुछ नहीं छोड़ती। यह कभी नहीं किया और कभी नहीं करेगा।"

कार कार्यकर्ता हैं जिन्होंने मध्य पूर्व और अफ्रीका में व्यापक काम किया है।

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे अल जज़ीरा की संपादकीय नीति को दर्शाते हों।


 लेखक  स्टेनली एल कोहेन की जुबानी 






Saturday, 7 October 2023

लोकतंत्र और गणतंत्र के बीच अंतर ।

यहां लोकतंत्र और गणतंत्र के बीच अंतर को विस्तार से बताया गया है। यह विषय भारतीय राजव्यवस्था पाठ्यक्रम के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। लोकतंत्र सरकार का एक रूप है जिसमें लोगों को अपना शासकीय कानून चुनने का अधिकार होता है। रिपब्लिक शब्द लैटिन शब्द रेस पब्लिका से लिया गया है, यह सरकार का एक रूप है जिसमें देश को सार्वजनिक मामला माना जाता है। यहां दिए गए लोकतंत्र और गणतंत्र के बीच अंतर यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के उम्मीदवारों को मूल बातें बेहतर ढंग से समझने और उनकी तुलनाओं को अच्छी तरह से जानने में मदद कर सकता है।

आईएएस परीक्षा की तैयारी के दौरान उम्मीदवारों को यह लेख बहुत उपयोगी लगेगा ।

लोकतंत्र और गणतंत्र के बीच ये मुख्य अंतर हैं। उपरोक्त तालिका में दिए गए अंतर यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के उम्मीदवारों को परीक्षा में किसी भी संबंधित प्रश्न का आसानी से उत्तर देने में मदद कर सकते हैं।

लोकतंत्र और गणतंत्र के अंतर के बारे में जानने के बाद, सरकार के राष्ट्रपति और संसदीय स्वरूप के बीच अंतर, भारतीय और अमेरिकी सरकार के बीच अंतर, भारत के संविधान का अवलोकन, भारतीय संसद में बहुमत के प्रकार, तालिका की जानकारी जानना बेहतर होगा। भारत गणराज्य में पूरी तरह से प्राथमिकता। साथ ही, लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका को समझें और प्रस्तावना का अवलोकन करें। भारत के संविधान, भारतीय और अमेरिकी सरकार के बीच अंतर, सरकार के राष्ट्रपति और संसदीय स्वरूप के बीच अंतर सहित अन्य जानकारी के बारे में विस्तार से जानने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं।

लोकतंत्र और गणतंत्र के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
Q1
लोकतंत्र और गणतंत्र के बीच अंतर के बिंदु क्या हैं?
लोकतंत्र और गणतंत्र के बीच अंतर के दो बड़े बिंदु हैं: पहला, सरकार का प्रतिनिधिमंडल, बाद में, बाकी लोगों द्वारा चुने गए नागरिकों की एक छोटी संख्या को; दूसरे, नागरिकों की अधिक संख्या और देश का बड़ा क्षेत्र, जिस पर उत्तरार्द्ध का विस्तार किया जा सकता है।
Q2
लोकतांत्रिक गणराज्य क्या है?
एक लोकतांत्रिक गणराज्य एक गणतंत्र और लोकतंत्र से अपनाए गए सिद्धांतों पर चलने वाली सरकार का एक रूप है।
Q3
लोकतंत्र के प्रकार क्या हैं?
लोकतंत्र के 3 प्रमुख प्रकार हैं - प्रत्यक्ष लोकतंत्र, प्रतिनिधि लोकतंत्र, संवैधानिक लोकतंत्र।
Q4
गणतंत्र कितने प्रकार के होते हैं?
गणतंत्र के 5 प्रकार हैं संवैधानिक गणराज्य, संसदीय गणराज्य, राष्ट्रपति गणराज्य, संघीय गणराज्य, ईश्वरीय गणराज्य।
Q5
लोकतांत्रिक और गणतंत्र के प्रारंभिक उदाहरण क्या हैं?
गणतंत्र का प्रारंभिक उदाहरण रोमन गणराज्य है जबकि ग्रीस में एथेनियन लोकतंत्र लोकतंत्र का प्रारंभिक उदाहरण है।

लोकतंत्र और गणतंत्र में क्या होता है डिफरेंस?

लोकतंत्र में जनता के पास स्वयं की शक्ति होती है, वहीं सरकार के गणतंत्र रूप में शक्ति व्यक्तिगत नागरिकों की होती है
लोकतंत्र के प्रमुख 3 प्रकार हैं, इसमें पहला- प्रत्यक्ष लोकतंत्र, दूसरा- प्रतिनिधि लोकतंत्र और तीसरा- संवैधानिक लोकतंत्र। वहीं, गणतंत्र मुख्यत: पांच प्रकार के होते हैं जैसे संवैधानिक गणतंत्र, संसदीय गणतंत्र, राष्ट्रपति गणराज्य, संघीय गणराज्य और थियोक्रेटिक गणराज्य।
सरकार की एक लोकतांत्रिक प्रणाली में सभी कानून बहुमत (प्रतिनिधियों / लोगों) द्वारा बनाए जाते हैं। वहीं सरकार के गणतंत्र रूप में, देश के लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा कानूनों को बनाया जाता है। 
एक देश में एक से ज्यादा प्रकार के लोकतंत्र हो सकते हैं। वहीं, एक देश में 1 से ज्यादा प्रकार के गणतंत्र भी हो सकते हैं।
लोकतंत्र में यह बहुमत की इच्छा है जिसे मौजूदा अधिकारों को ओवरराइड करने का अधिकार है। सरकार के गणतंत्र रुप में संविधान अधिकारों की रक्षा करता है, इसलिए लोगों की कोई भी इच्छा किसी भी अधिकार पर हावी नहीं हो सकती है।
लोकतंत्र प्रमुख रूप से लोगों की सामान्य इच्छा पर केंद्रित है। वहीं, गणतंत्र मुख्य रूप से संविधान पर केंद्रित है।
लोकतंत्र में सरकार पर कोई बंदिश नहीं होती। वहीं, एक गणराज्य में सरकार पर बाधाएं हैं (संविधान द्वारा बाध्य)।
 प्रजातंत्र गणतंत्र
ग्रीस में एथेनियन लोकतंत्र लोकतंत्र का एक प्रारंभिक उदाहरण है। गणतंत्र का प्रारंभिक उदाहरण रोमन गणराज्य (510 ईसा पूर्व -27 ईसा पूर्व) है।
लोकतंत्र के 3 प्रमुख प्रकार हैं - प्रत्यक्ष लोकतंत्र, प्रतिनिधि लोकतंत्र, संवैधानिक लोकतंत्र। गणतंत्र के 5 प्रकार हैं संवैधानिक गणराज्य, संसदीय गणराज्य, राष्ट्रपति गणराज्य, संघीय गणराज्य, ईश्वरीय गणराज्य।
लोकतंत्र में सत्ता जनता के हाथ में होती है। गणतंत्र में सत्ता व्यक्तिगत नागरिकों के हाथ में होती है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून बहुमत द्वारा बनाये जाते हैं। गणतंत्र प्रणाली में कानून जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा बनाये जाते हैं।
लोकतंत्र में बहुमत की इच्छा को मौजूदा अधिकारों पर हावी होने का अधिकार है। गणतंत्र प्रणाली में, बहुमत की इच्छा को ख़त्म नहीं किया जा सकता क्योंकि संविधान उन अधिकारों की रक्षा करेगा। 
एक देश में एक से अधिक प्रकार के लोकतंत्र हो सकते हैं। एक देश में एक से अधिक प्रकार के गणतंत्र हो सकते हैं।
लोकतंत्र में सरकार पर कोई रोक-टोक नहीं होती. गणतंत्र में सरकार पर बाध्यताएँ होती हैं।
लोकतंत्र में मुख्य फोकस लोगों की सामान्य इच्छा पर होता है। गणतंत्र में मुख्य ध्यान संविधान पर होता है।

7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓

सैयद नदीम द्वारा . 11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों ...