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Saturday, 15 February 2020

क्या हम मुसलमान हे? क्या हम इस्लाम की दूरदस्ती के इल्म से हालात को सोचने ओर समजने की सलाहियत खो चुके हे.

कया आप मुसलमान है ? ओर ये जानते है,
और क्या ऐसा हो नहीं रहा है...

SAFTEAMGUJ.
15 FEB 2020,11:30 Pm
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दि.मिडिया प्रोफाई,नई दिल्ली, एम हसनैन की कलम से WhatsApp  वायरल मेसेज___

मीडिया प्रोफ़ाइल के पिछले अंक ने पूरे देश में हलचल मचा दी है। मुस्लिम समाज के हर तबके़ पर इसका कुछ न कुछ असर पड़ा है। और इन तबक़ों से मुताल्लिक़ लोगों ने इस पर कुछ न कुछ तबसरा भी ज़रूर किया है। ज़्यादातर लोगों ने यह बात मानी है कि मुसलमान हर तरफ़ से घिर गए हैं। कुछ लोगों ने इसे ‘‘महज़ बकवास’’ भी क़रार दिया है। इसके साथ ही कुछ लोगों ने इसे ग़ैर-ज़रूरी दूरअंदेशी का नाम भी दिया है। ऐसे रीडर्स भी हैं जो चाहते हैं कि अगर वाक़ई यह हालात पेश आने हैं तो इनका हल भी बताया जाए।

मीडिया प्रोफ़ाइल उन तमाम लोगों का शुक्रगुज़ार है जिन्होंने पिछले अंक को पढ़ने के बाद अपनी अपनी समझ के मुताबिक़ सवालात और अंदेशे ज़ाहिर किये हैं। जो लोग इसे ‘‘महज़ बकवास’’ क़रार दे रहे हैं वह शायद हमारी नीयत पर सवाल उठा रहे हैं। उन्हें ऐसा करने का हक़ भी हासिल है क्योंकि पिछले 70 वर्षों के दौरान वो इतनी बार जल चुके हैं कि छाछ को भी फूंक कर पीना उनकी मजबूरी है। कोई हल पेश करने से पहले हम कुछ बातें साफ़ कर देना चाहते हैं। असल में कोई भी हल उस वक़्त तक कारगर नहीं हो सकता जब तक इस बात पर हम सब सहमत नहीं हो जाते कि जो कुछ लिखा है वो या तो कहीं न कहीं हो रहा है या कहीं न कहीं हो चुका है मगर जिसे याद करके हम अपना सुकून बर्बाद नहीं करना चाहते। किसी बहस में उलझे बग़ैर नीचे लिखी इबारतों को ध्यान से पढ़ें और फिर बताएं कि क्या यह सब हो नहीं रहा है?

(1) क्या यह सच नहीं है कि दादरी में पांच सौ से अधिक लोगों की भीड़ ने मरहूम इख़लाक़ के घर पर मंदिर के लाउडस्पीकर से यह एलान सुनकर चढ़ाई कर दी कि उसके घर में गाय का गोश्त पकाया जा रहा है और कुछ सुने बग़ैर बाप बेटे को इस बुरी तरह पीटा कि इख़लाक़ ने दम तोड़ दिया और बेटा हफ़्तों अस्पताल में भर्ती रहा।

  (2) क्या हरियाणा के अटाली गांव में मुसलमानों को स्थानीय हिन्दुओं से इन शर्तों पर समझौता नहीं करना पड़ा कि मस्जिद से अज़ान नहीं होगी, मीनार और गुंबद नहीं बनाए जाएंगे, बाहर से कोई इमाम नहीं लाया जाएगा, मस्जिद के बाहरी हिस्से में वुजूख़ाना नहीं बनेगा और जो लोग दंगों के दौरान ज़ख़्मी हुए हैं उनकी कोई एफ.आई.आर दर्ज नहीं होगी।

  (3) क्या महाराष्ट्र के स्कूलों में सूर्य नमस्कार और योगा को सभी के लिए अनिवार्य क़रार नहीं दे दिया गया है, और क्या दिल्ली तक के सरकारी स्कूलों में सरस्वती वंदना, वंदे मात्रम, भारत माता की जय, भोज मंत्र और गायत्री मंत्र का पाठ नहीं हो रहा है?

  (4) क्या हिन्दू संगठन एक ज़माने से यह मांग नहीं करते आ रहे हैं कि मुसलमानों से वोट डालने का अधिकार छीन लेना चाहिए। आखि़र जब वोट डालने का अधिकार ही छिन जाए तो कोई चुनाव कैसे लड़ सकता है और फिर हाउस में पहुंचकर कोई बात किस तरह की जा सकती है।

  (5) क्या आए दिन बजरंग दल, शिवसेना, आर.एस.एस, राम सेना और इन्हीं जैसे अन्य संगठनों से जुड़े लोग अपने अपने जुलूसों में यह नारा नहीं लगा रहे हैं ‘‘हिंदी हिंदू हिन्दुस्तान, मुल्ला भागें पाकिस्तान, जो न भागे पाकिस्तान उसको भेजो क़ब्रिस्तान’’।

  (6) क्या मशहूर इस्लामी स्कॉलर ज़ाकिर नाईक पर सिर्फ़ इसलिए शिकंजा नहीं कसा जा रहा है कि उन्होंने अपनी दलीलों से इस्लाम को दुनिया का सबसे अच्छा मज़हब साबित किया और दूसरे मज़हबों की किताबों का हवाला देकर उनकी कमी दुनिया वालों पर जा़हिर की?

  (7) क्या मुसलमान देश की पुलिस, पैरामिलिट्री और सेना में अपनी आबादी के दसवें हिस्से के बराबर भी हैं? क्या थानों में हमारे साथ बदसुलूकी नहीं होती, बेवजह आतंकवादी नहीं कहा जाता या पाकिस्तानी कह कर ज़लील नहीं किया जाता?

  (8) क्या बीफ़ की अफ़वाह फैलाकर राजस्थान के एक गांव को लूट नहीं लिया गया? क्या मेवात में इसी इल्ज़ाम के तहत दो माँ बेटियों के साथ बलात्कार नहीं हुआ? क्या मध्य प्रदेश में दो ग़रीब मुस्लिम औरतों को खुले आम पुलिस की मौजूदगी में यह कहकर नहीं पीटा गया कि वह अपने साथ गाय का गोशत ले जा रही थीं? क्या ख़ुद दिल्ली में दो लोगों को कार से बाहर खींच कर इतना नहीं पीटा गया कि उनमें से एक ने दम तोड़ दिया और दूसरा बुरी तरह घायल हुआ? क्या इसी दिल्ली में एक ड्राईवर को उसके हिंदू मालिक ने केवल इस आधार पर अपने एक साथी के साथ मिलकर पीट पीट कर मार नहीं डाला क्योंकि वह बक़रईद मनाने के लिए अपने घर जाना चाहता था?

  (9) क्या अस्पतालों में मुस्लिम औरतों को हर साल बच्चे पैदा करने का ताना देकर ज़लील नहीं किया जाता? क्या ख़्वामख़्वाह भी उनके आप्रेशन नहीं होते ताकि तीसरे बच्चे का ऑप्शन ही ख़़त्म हो जाए? क्या किसी जोड़े के दो बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर हों तब भी उन्हें तीसरा बच्चा पैदा करने की इजाज़त नहीं मिलनी चाहिए? क्या देश में ऐसा कोई क़ानून है कि आप तीसरा बच्चा पैदा ही
न करें भले पहला बच्चा हिजड़ा और दूसरा मानसिक रूप से कमज़ोर ही क्यों न हो?

  (10) क्या हज पर दी जाने वाली सब्सिडी को ख़त्म करने की मांग बार बार नहीं उठ रही है? क्या इस बार कई सरकारी संगठनों ने खु़द को मुस्लिम संगठन जा़हिर कर के सांकेतिक बकरे का केक नहीं काटा है ताकि आइंदा सांकेतिक कु़र्बानी की मिसाल देकर ईदुल अज़हा की कु़र्बानी पर पाबंदी लगवाई जा सके?

  (11) क्या यह सच नहीं है कि मुसलमान कम उम्र में ही ख़तरनाक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं और चालीस से पचास साल की उम्र के दौरान ही उनकी बड़ी तादाद अपने आखि़री सफ़र पर रवाना हो जाती है। क्या किसी सरकारी इदारे ने संजीदगी के साथ इसकी वजह जानने की कोशिश की है?

  (12) लाखों हिंदू मुस्लिम इलाक़ों में चल रहे होटलों में आकर बीफ़ (भैंस का गोश्त), मटन या चिकन का शौक़ पूरा करते हैं। मगर क्या कोई मुसलमान किसी हिंदू कालोनी में जाकर किरयाना की दुकान भी खोल सकता है? क्या नार्मल रेट पर किसी मुसलमान को शहर के अच्छे शापिंग सेंटर में आसानी से कोई दुकान किराए पर मिल सकती है? क्या हिन्दू सोसाइटी में किसी मुसलमान के लिए घर ख़रीदना आसान है? क्या मुस्लिम किरायेदार को बेजा बंदिशों का सामना नहीं करना पड़ता? क्या ऊंची सोसायटी के लिबरल हिंदू भी बुर्क़ापोश मुस्लिम औरतों को नफ़रत की निगाह से नहीं देखते? क्या दाढ़ी आतंकवादियों की पहचान नहीं बना दी गई है?

  (13) क्या राजधानी में मुसलमान नालों की सफ़ाई का काम नहीं कर रहे हैं? याद रखें यह स्थायी कर्मचारी नहीं होते। स्थायी कर्मचारी तो वो वाल्मीकि होते हैं जिन्हें दिल्ली नगर निगम से 35-40 हज़ार रुपये तंख़्वाह मिलती है। वो बिहार, झारखंड या बंगाल से आने वाले ग़रीब मुसलमान को पांच-छह हज़ार रुपये पर नौकर रख लेते हैं और सरकारी रजिस्टर में अपनी हाज़िरी लगाकर उन्हें काम से लगा देते हैं। क्या यह सरकारी पैसों की बर्बादी नहीं है? और कहीं सरकार जानबूझकर तो ऐसा नहीं कर रही है ताकि हिंदुओं का मोराल ऊंचा हो और मुसलमान ज़िल्लत की ज़िंदगी जियें?

  (14) क्या दूसरी सरकारी ज़बान होने के बावजूद स्कूलों में मुस्लिम बच्चों को उर्दू पढ़ने से रोका नहीं जा रहा है? क्या किसी सरकारी विभाग में आपने कोई उर्दू का ट्रांसलेटर देखा है? क्या आप बैंक को उर्दू में चेक दे सकते हैं? क्या उर्दू में किसी सरकारी विभाग से ख़त व किताबत की जा सकती है?

  (15) क्या क़ब्रिस्तानों पर क़ब्ज़े नहीं किए जा रहे हैं? क्या मस्जिदें शहीद नहीं की जा रही हैं? क्या पुलिस आप का नाम सुनते ही अपने तेवर नहीं बदल लेती? क्या हम ऐसी बस्तियों में रहने पर मजबूर नहीं हैं जहां बिजली, पानी या गैस अपनी मर्जी़ से आते जाते हों? आखि़र हमारा ऐरिया नेगेटिव ऐरिया क्यों कहा जाता है? क्यों सीलमपुर के मेट्रो स्टेशन पर पहुंचते ही यह ऐलान शुरू हो जाता है कि जेब कतरों से होशियार रहें? क्या दूसरी जगहों पर साधू बसते हैं या वहां जेब कटने की वारदातें नहीं होतीं?

  (16) क्या सरकार बार बार यह नहीं कह रही कि सबके लिए एक का़नून बनाया जाएगा? क्या अदालतें बार बार यह फ़ैसला नहीं सुना रही हैं कि मुल्क का क़ानून सबसे ऊपर है? क्या इससे यह मतलब नहीं निकलता कि हर वो का़नून जो हिन्दुत्व से टकराएगा उसे बदलना होगा? अगर वो अरबी को विदेशी भाषा बता कर उस पर पाबंदी लगा दें तो क्या आप उनका हाथ पकड़ लेंगे? क्या नमाज़ संस्कृत में पढ़ी जाएगी या अज़ान हिन्दी में होगी? क्या आगे चल कर जब शादी ब्याह और तलाक़ के का़नून हिन्दुआना रस्मों से जोड़ दिए जाएंगे तो आप उन्हें अपनी फूल जैसी मुस्कुराहटों से लुभा कर सीधे रास्ते पर ले आएंगे?

  (17) क्या मुज़फ़्फ़र नगर का रेप अलग है और दिल्ली कर निर्भया कांड अलग? क्या डेंगू और चिकुनगुनिया में मारे जाने वाले बीस मुसलमानों की जान (ओखला) इतनी सस्ती है कि उसका इंदराज भी सरकारी रजिस्टर में नहीं हो सकता? सरकार अगर गऊ मूत्र को किसी जान लेवा बीमारी का इलाज बता कर ज़बरदस्ती पिलाना शुरू कर दे तो उसे किस तरह रोका जाएगा?

  (18) क्या लव जिहाद की कहानी तैयार करके हर उस जोड़े को परेशान नहीं किया जा रहा है जहां लड़की हिन्दू और लड़का मुसलमान है और उन्होंने अदालत में अपनी पसंद से शादी की है?

  (19) क्या आप यह जानते हैं कि प्राइमरी सतह पर मुस्लिम बच्चों के नाम ख़ामोशी से बदल दिए जाते हैं? मुहीत को मोहित, सलीम को सलील, हसनैन को हंस नैन, हारिस को हरीश, आएशा को आशा, शमा को श्यामा, निसा को निशा, कुलसूम को कुसुम और कौसर को कौशल लिख देना उनके लिए बाएं हाथ का खेल है। टोकने पर कहा जाता है कि ‘‘हमसे तुम्हारे नाम नहीं लिए जाते, वैसे भी नाम में क्या रखा है, नाम ऐसा होना चाहिए जिसे सब आसानी से ले सकें’’।

  (20) क्या यह सच नहीं है कि तमाम मस्जिदों में जुमे के मौक़े पर कोई न कोई पुलिस का मुख़बर ज़रूर होता है जो सरकार को पल पल इस बात की इत्तेला देता है कि खु़तबे में इमाम ने क्या क्या बातें कही हैं। क्या यह सच नहीं कि बड़ी सड़कों पर मुसलमानों के मज़हबी जुलूस नहीं निकल सकते और न ही उन सड़कों के किनारे कोई आलीशान मस्जिद बनाई जा सकती है?

  (21)  क्या दाढ़ी रखने वालों और बुर्क़ा ओढ़ने वालियों की बस अड्डा, रेलवे स्टेशन, दिल्ली मेट्रो या हवाई अड्डों पर बहुत अच्छी तरह तलाशी नहीं ली जाती? क्या उन गाड़ियों को बेवजह नहीं रोका जाता जिन पर कोई इस्लामी लेबल लगा हो? क्या हमारे पासपोर्ट, आधार कार्ड, आई. कार्ड और ड्राईविंग लाईसेंस इतनी ही आसानी से बन जाते हैं जितनी आसानी से औरों के?

सोचिए और ख़ूब सोचिए कि अगर आप की गाड़ी रोक कर बीफ़ की तलाशी ली जाने लगे तो आप किस से फ़रियाद करेंगे? अगर आपकी बहन बेटियों का पर्दा इस बहाने से तार तार कर दिया जाए कि इस पर्दे में किसी दहशतगर्द के छिपे होने का अंदेशा है तो आप पर क्या बीतेगी? अगर कॉलिज या यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले किसी बच्चे से, ख़्वाह वो लड़का हो या लड़की, यह पूछा जाए कि उसने पिछली बार बीफ़ कब खाया था या यह कि पिछली रात उसने जो बीफ़ खया था उसकी मेडिकल जांच के लिए उसे फ़लां लैबारेट्री तक उनके साथ चलना होगा तो वो अपनी जान किस तरह छुड़ाएंगे? क्या ऐसी जांच से बचने के लिए बच्चे अपना सब कुछ पेश करने के लिए मजबूर नहीं हो जाएंगे? क्या यह ज़रूरी है कि वो लैबारेट्री के नाम पर कहीं और नहीं ले जाए जाएंगे? अगर किसी अंजान इलाक़े में आपको दो में से एक शर्त मानने को कहा जाए कि या तो अपनी जान बचा लो या अपनी इज़्ज़त तो आप किस से हाथ धोना पसंद करेंगे? यह कहना बहुत आसान है कि यह दूर की कौड़ी है मगर कहीं न कहीं ऐसा हो तो रहा है और सारी दुनिया उसे देख भी रही है। फ़र्क़ इतना है कि यह सब का़नूनी तौर पर नहीं हो रहा है। मगर क़ानून कुछ कर भी तो नहीं रहा है! हमारा कु़सूर निकले तो मुर्दे तक उखाड़ लाए जाएं और उनकी बारी हो तो बरसों तफ़तीश होगी फिर भी नतीजा शून्य।
जिन लोगों ने हमसे हल पूछा है क्या उन्होंने यह सवाल उन से भी किया है जिन्हें वो पिछले 70 बरसों से वोट देते आए हैं या जिनके कहने पर आज तक किसी न किसी  पार्टी को वोट देते आए हैं। हल पूछना आप का हक़ है और हल बताना हमारी ज़िम्मेदारी। मगर इससे पहले यह तय हो जाना चाहिए कि हम किस मसले का हल ढूंढ रहे हैं। यह भी तय हो जाना चाहिए कि हम वाक़ई हल ढूंढ भी रहे हैं या महज़ दिल लगी की ख़ातिर क़ौम का वक़्त ख़राब कर रहे हैं। याद रखें! पिछले 70 बरसों की लापरवाही के नतीजे में हम नालों के किनारे जा बसे हैं। अगले 70 बरसों तक हम किसी मज़ाक़ के मुतहम्मिल नहीं हो सकते वरना तारीख़ हमें कभी मुआफ़ नहीं करेगी।

आगे सेर करे ओर कोमेट भी करे

7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓

सैयद नदीम द्वारा . 11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों ...