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Sunday, 8 December 2019

कुरान को बेहतर तरीके से समझने के लिये मुसलमानो पर फर्ज है।

*📓क्या कुरआन को समझ कर पढना ज़रुरी है?*

कुरआन मजीद अल्लाह तआला की आखिरी वही (पैगाम) अपने आखिरी पैगम्बर मोहम्मद स अ  व पर नाज़िल की थी। कुरआन मजीद सारी दुनिया मे सबसे बेहतरीन किताब है, वो इन्सानियत के लिये हिदायत है, कुरआन मजीद हिकमत का झरना है और जो लोग नही मानते उन्के लिये चेतावनी है, उन्के लिये सख्ती है और जो लोग भटके हुए है उन्हे सिधी राह दिखाती है कुरआन मजीद। जिन लोगो को शक है कुरआन मजीद उन्के लिये यकीन है और जो मुश्किलात मे है उन्के लिये राहत है लेकिन ये कुरआन मजीद की सारी खुबियां कोई इन्सान तब तक हासिल नही कर सकता है जब की वो कुरआन मजीद को नही पढे, कुरआन मजीद को नही समझे, और कुरआन मजीद पर अमल न करे। कुरआन मजीद की ये सारी खुबियां हम तब ही हासिल कर सकते है जब कुरआन मजीद को पढे, उसकॊ समझें और उस पर अमल करें। कुरआन मजीद सारे जहां मे सबसे ज़्यादा पढी जाने वाली किताब है लेकिन अफ़्सोस की बात है की कुरआन मजीद वो ही किताब है जो सबसे ज़्यादा बिना समझे पढी जाती है, ये वो किताब है जो लोग बिना समझे पढते है यही वजह की हम मुस्लमानॊं और कुरआन के बीच जो रिश्ता है, जो बंधन है वो कमज़ोर होता जा रहा है।

कितने अफ़्सोस की बात है की एक शख्स कुरआन के करीब आता है, कुरआन पढता है, लेकिन उसके ज़िन्दगी जीने का तरीका बिल्कुल भी नही बदलता, उसका रहन-सहन ज़रा भी नही बदलता, उसका दिल ज़रा भी नही पिघलता, बहुत अफ़्सोस की बात है। अल्लाह तआला फ़र्माते है कुरआन मजीद में सुरह: अल इमरान सु. ३ : आ. ११० मे अल्लाह तआला सारे मुसलामानॊं से फ़र्माते है "की आप सारे जहां मे सबसे बेहतरीन उम्मा (उम्मत) है"। जब भी कोई तारिफ़ की जाती है या ओहदा दिया जाता है तो उसके साथ ज़िम्मेदारी होना ज़रुरी है कोई भी ओहदे के साथ ज़िम्मेदारी होना ज़रुरी है। जब अल्लाह तआला हमे सारे जहां मे सबसे बेहतरीन उम्मा कहते है तो क्या हमारे उपर कोई ज़िम्मेदारी नही है? इसी आयत मे अल्लाह तआला हमें हमारी ज़िम्मेदारी भी बताते है "अल्लाह तआला फ़र्माते है क्यौंकी हम लोगों को अच्छाई की तरफ़ बुलाते है और बुराई से रोकते है"। अगर हम लोगो को अच्छाई की तरफ़ बुलाना चाहते है और बुराई से बचाना चाहते है तो ज़रुरी है की हम कुरआन को समझ कर पढे। अगर हम कुरआन को समझ कर नही पढेंगें तो लोगो को अच्छाई की तरफ़ कैसे बुलायेंगें? और अगर हम लोगो को अच्छाई की तरफ़ नही बुलायेंगे तो हम "खैरा-उम्मा" (सबसे बेह्तरीन उम्मा) कहलाने के लायक नही है। हम मुसलमान कहलाने के लायक नही है।

आज हम गौर करते हैं की हम मुसलमान कुरआन को समझ कर क्यौं नही पढतें? हम मुस्लमान क्यौं बहाने बनाते है कुरआन मजीद को समझ कर नही पढने के?

सबसे पहला जो बहाना है वो है की हम अरबी ज़बान नही जानते। ये हकीकत है की सारी दुनिया मे बीस प्रतिशत से ज़्यादा मुसलमान है, सारी दुनिया मे १५० करोडं से ज़्यादा मुसलमान है लेकिन इसमे से लगभग २० प्रतिशत मुसलमान अरब है जिनकी मार्त भाषा अरबी है और इन्के अलावा चन्द मुस्लमान अरबी ज़बान जानते है इसका मतलब है की ८० प्रतिशत मुसलमान अरबी ज़बान नही जानते है। जब भी कोई बच्चा पैदा होता है और इस दुनिया मे आता है तो वो कोई ज़बान नही जानता है वो सबसे पहले अपनी मां की ज़बान सीखता है ताकि वो घरवालॊं से बात कर सके, उसके बाद वो अपने मुह्ल्ले की ज़बान सीखता है ताकि मुह्ल्लेवालों से बातचीत कर सके, फिर वो तालिम हासिल करता है जिस स्कुल या कांलेज मे जिस ज़बान मे तालिम हासिल करता है उस ज़बान को सीखता है। हर इन्सान कम से कम दो या तीन ज़बान समझ सकता है, कुछ लोग चार या पांच ज़बान समझ सकते है और लोगो को बहुत सी ज़बानॊ मे महारत हासिल होती है लेकिन आम तौर से एक इन्सान दो या तीन ज़बान समझ सकता है। क्या हमे ज़रुरी नही की हम वो ज़बान समझे जिस ज़बान मे अल्लाह तआला ने आखिरी पैगाम इंसानियत के लिये पेश किया? क्या हमे ज़रुरी नही की हम अरबी ज़बान को जानें और सीखें? और उम्र कभी भी, कोई भी अच्छे काम के लिये रुकावट नही है।

मैं आपकॊं मिसाल पेश करना चाहता हु डां. मौरिस बुकेल की, डां. मौरिस बुकेल एक ईसाई थे, उन्हे फ़्रैचं अक्डेमी अवार्ड मिला था मेडिसिन के श्रेत्र मे, और उनको चुना गया था की "फ़िरौन की लाश" जो बच गयी थी, जिसे लोगों ने ढुढां था १९वीं सदी में, उसे मिस्त्र के अजायबघर रखा गया है। उन्हे चुना गया था की आप इस लाश पर तह्कीक (रिसर्च) करने को और डां. मौरिस बुकेल क्यौंकी ईसाई थे इसलिये जानते थे की "बाईबिल" मे लिखा हुआ था "की जब फ़िरौन मुसा अलैह्स्सलाम का पिछा कर रहा था तो वो दरिया मे डुब जाता है, ये उन्हे पता था। लेकिन डां. मौरिस बुकेल जब अरब का दौरा कर रहे थे तो एक अरब के आदमी ने कहा की कोई नयी बात नही है की आपने "फ़िरौन" कि लाश को ढुढं निकाला क्यौंकी कुरआन मजीद मे सुरह: युनुस सु. १० : आ. ९२ :- "अल्लाह तआला फ़र्माते है की हम फ़िरौन की लाश को हिफ़ाज़त से रखेंगें, महफुज़ रखेंगें ताकि सारी दुनिया के लिये वो एक निशानी बनें"। डां. मौरिस बुकेल हैरान हुए की ये जो किताब आज से १४०० साल पुरानी है उसमे कैसे लिखा गया है की "फ़िरौन की लाश को हिफ़ाज़त से रखा जायेगा"। इसीलिये डां. मौरिस बुकेल ने कुरान मजीद का तर्जुमा पढां और तर्जुमा पढने के बाद इतने मुतासिर हुए की कुरान को और अच्छी तरह समझने के पचास साल की उम्र मे उन्होने अरबी ज़बान सीखी और कुरान का मुताला (समझ कर पढा) किया। और उसके बाद एक किताब लिखी " Bible. Quran And Science" और ये किताब काफ़ी मशहुर है और काफ़ी ज़बानॊ मे इसका तर्जुमा हो चुका है।

मैनें ये मिसाल आपकॊ दी ये समझाने के लिये की एक गैर-मुसलमान, एक ईसाई, कुरआन को अच्छी तरह समझने के लिये पचास साल की उम्र मे अरबी ज़बान सीखता है। मै जानता है की हम सब डां. मौरिस बुकेल की तरह जज़्बा नही रखते है लेकिन कम से कम हम कुरआन का तर्जुमा तो पढ सकते है। मौलाना अब्दुल मजीद दरियाबादी फ़र्माते है की सारी दुनिया मे सबसे मुश्किल किताब जिस्का तर्जुमा हो सकता है वो है कुरआन मजीद। क्यौंकी कुरआन मजीद की ज़बान अल्लाह तआला की तरह से है और एक बेहतरीन ज़बान है, एक करिश्मा है। कुरआन की एक आयत एक ज़हीन और पढे - लिखे आदमी को मुत्तासिर (Impress) करती है और वही आयत एक आम आदमी कॊ मुत्तासिर करती है यह खुबी है कुरआन मजीद की और कई अरबी अल्फ़ाज़ (शब्द) उसके पचास से ज़्यादा माईने (मतलब/अर्थ) होते हैं और कुरआन मजीद की एक आयत के कई माईने होते है इसीलिये ये अल्लाह तआला की आखिरी किताब सबसे मुश्किल किताब है जिस्का तर्जुमा (अनुवाद) हो सकता है लेकिन इसके बावजुद कई उलमा ने कुरआन मजीद का तर्जुमा दुनिया की कई ज़बानॊ मे किया, जितनी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़बानें (भाषायें) है उसके अंदर कुरआन मजीद का तर्जुमा (अनुवाद) हो चुका है तो अगर आपकॊ अरबी ज़बान मे महारत हासिल नही है तो आप कुरआन का तर्जुमा उस ज़बान (भाषा) मे पढे जिसमे आपको महारत हासिल है।

हम मुस्लमान अक्सर बहाने बनाते है की हमारे पास कुरआन मजीद का तर्जुमा पढने का टाइम नही है। हम अपने रोज़-मर्रा के कामों मे मसरुफ़ है, अपनी पढाई मे, अपने कारोबार मे, वगैरह वगैरह। हम सब ये जानते है की जो भी वक्त हम स्कुल-कालेज मे लगाते है और कई किताबें हिफ़्ज़ (मुहं ज़बानी याद) कर लेते है, क्या हमारे पास कुरआन मजीद पढने का टाइम नही हैं? अगर आप कुरआन मजीद का तर्जुमा पढेंगे, चन्द दिनॊं मे पढ सकते है। लेकिन मोहम्मद रसुल  स अ व फ़र्माते है :- "कि जो कोई तीन दिन से कम वक्त मे कुरआन मजीद को पुरा पढता है तो वो कुरआन मजीद को समझ कर नही पढता है" (२९४९, तिर्मिधी)। अगर आप सुकुन से पढेंगें तो इन्शाल्लाह आप सात दिन मे कुरआन मजीद के तर्जुमें को पुरा पढ लेंगे, अगर आप रोज़ कुरआन का एक पारा पढेगें तो एक महीने मे आप कुरआन को पुरा पढ लेंगें। जो डिगरी आप हासिल करते है स्कुल और कालेज जाकर वो आप को इस दुनिया मे फ़ायदा पहुचां सकती है और नही भी पहुचां सकती है क्यौंकी हम जानते है की कई डिग्री वाले बेकाम घुम रहे हैं लेकिन अल्लाह सुब्नाह व तआला वादा देते है की अगर आप इस कुरान मजीद को अच्छी तरह समझ कर पढेंगे तो आप को आखिरत मे ही नहीं इस दुनिया मे भी इन्शाल्लाह फ़ायदा होगा।

अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह बकरह सु. २ : आ. १-२ में "ये वो किताब है जिसमे कोई शक नही जो तकवा (अल्लाह से डरनें वाले) रखते है"। मिसाल के तौर पर आपका कोई करीबी दोस्त फ़्रांस से हिन्दुस्तान घुमने के लिये आता है वो हिन्दुस्तान घुमता है और आपके घर पर एक हफ़्ता रुकता है और फिर वापस चला जाता है, अपने घर पहुचने के बाद आपकॊ वो एक खत लिखता है लेकिन उसको हिन्दी या उर्दु नही आती है उसे फ़्रेंच मे महारत हासिल है तो वो आपको खत भी फ़्रेंच मे लिख्ता है। आपको फ़्रेंच आती नही है तो फिर आप क्या करेंगे? उस आदमी को ढुढंगे जिसे फ़्रेंच आती है और जो आपकॊ आपके करीबी दोस्त के खत का तर्जुमा करके बताये की आपके दोस्त ने आपको क्या लिख कर भेजा है। क्या आपका फ़र्ज़ नही होता की आप जानें की आपके रब, आपके खालिक, अल्लाह सुब्नाह व तआला ने अपने आखिरी पैगाम कुरआन मजीद मे आपके लिये क्या लिखा है? हमें कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा करने की ज़रुरत नही है अल्हम्दुलिल्लाह कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा हर अहम ज़ुबान मे हो चुका है आपको सिर्फ़ उसको मार्कट से जाकर खरीदने की ज़रुरत है। हमें कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा पढना चाहिये उस ज़बान मे जिसमें हमें महारत हासिल है।

अकसर मुस्लमान समझते है कि ये कुरआन शरीफ़ सिर्फ़ मुसलमानॊं के लिये है और इसे गैर-मुसलमानॊं को नही देना चाहिये ये हमारी गलतफ़हमी है हमारा वहम क्यौंकी अल्लाह सुब्नाह व तआला फ़र्माते है कुरआन शरीफ़ मे सुरह: इब्राहिम सु. १४ : आ. १ में "ये किताब नाज़िल कि गयी थी मोहम्मद रसुल स अ  व पर ताकि वो सारी इन्सानियत को अंधेरे से रोशनी मे ले आयें"। कुरआन मजीद मे ये कहीं नही लिखा हुआ है की कुरआन मजीद सिर्फ़ मुसलमान या अरबों के लिये है। यहां आपने पढा की अल्लाह तआला फ़रमाते है की कुरआन मजीद मोहम्मद रसुल  स अ व पर इसलिये नाज़िल कि गयी थी कि वो सारी इन्सानियत को अंधेरे से रोशनी मे लेकर आयें। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: इब्राहिम सु. १४ : आ. ५२ में " ये कुरआन मजीद सारी इन्सानियत के लिये पैगाम है और उनके लिये जो समझते है और उनसे कह दो कि अल्लाह एक है और समझने वाले अल्लाह के कलाम को समझेंगे"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: बकरह सु. २ : आ. १८५ में "रमज़ान वो महीना है जिसमें कुरआन शरीफ़ नाज़िल हो चुका था और ये सारी इन्सानियत के लिये हिदायत की किताब है ताकि लोग समझ सकें की गलत क्या और सही क्या है"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: अल ज़ुम्र सु. ३९ : आ. ४१ में "के हमनें ये किताब नाज़िल कि मोहम्मद रसुल स अ व पर ताकि वो हिदायत दे इंसानों को"। कुरआन मे ये कही नही लिखा है की ये कुरआन सिर्फ़ मुसलमानों या अरबों के लियें नाज़िल कि गयी है और कुरआन मे ये कहीं नहीं लिखा है की मुसलमानॊं को हिदायत दें और हमारे आखिरी पैगम्बर मोहम्मद स अ व सिर्फ़ अरबों या मुसलमानॊं के लिये नही भेजे गये थें अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: अम्बिया सु. २१ : आ. १०७ में "के हमने तुम्हे भेजा है एक रहमत सारी इन्सानियत, सारे जहां के लिये"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह: सबा सु. ३४ : आ. २८ मे "के हमने तुम्हें भेजा एक पैगम्बर सारी इन्सानियत के लिये ताकि आप लोगो को अच्छाई की तरफ़ बुलायें और बुराई से रोकें"। लेकिन अकसर लोग ये नही जानते है। कुरआन की इन आयतॊं से समझ मे आता है की कुरआन मजीद और मोहम्मद स अ व सारी इन्सानियत के लिये भेजे गये थे मुसलमानॊ के लिये भी और गैर-मुसलमानों के लिये भी।

हम मुसलमान लोग कुरआन मजीद को समझ के तो पढते नहीं लेकिन उसकी इतनी हिफ़ाज़त करते है की दूसरों को भी नही पढनें देते। कह्ते है कुरआन मजीद को जो लोग नजीज़ (नापाक/अपवित्र) है वो हाथ नही लगा सकते हैं और कुरआन मजीद की एक आयत का हवाला देते है सुरह: वाकिया सु. ५६ : आ. ७७-८२ "कि ये वो कुरआन अल्लाह तआला ने नाज़िल किया और इसको कोई भी हाथ नही लगायेंगा सिर्फ़ वो जो मुताहिरीन हैं"। अगर इस आयत के ये मायने होते की इस कुरआन शरीफ़ को जो मुसफ़ (कापी) है को कोई भी हाथ नही लगा सकता है सिर्फ़ उसके जो जो पाक है, वुज़ु मे हैं, तो कोई भी शख्स, कोई भी गैर-मुस्लिम बाज़ार से सौ या दो सौ रुपये में कुरआन खरीद कर उसे हाथ लगा सकता है और कुरआन मजीद गलत साबित हो जायेगा। कुरआन इस आयत के मायने इस कुरआन मजीद, इस किताब जो मुसह्फ़ है, के नही है बल्कि उस कुरआन मजीद जो लौहे-महफ़ुज़ (सातवें आसमान) में है जिसका ज़िक्र सुरह: बुरुज सु. ८५ : आ. २२ में है अगर आप देखेगें कि इस आयत के मुताबिक कि कुरआन क्यों नाज़िल हुआ कि कुछ लोग गैर-मुस्लिम वगैरह ये कहते थे कि मोहम्मद स अ व पर ये "वही" (पैगाम) शैतान के पास से आती थी तो अल्लाह तआला फ़र्माते है की "ये "लौह-महफ़ुज़" के नज़दीक कोई भी नही आ सकता है सिवाय उसके जो मुताहिरीन हैं।" मुताहिरीन के मायने है वो जिसने कोई भी गुनाह नही किया, वो बिल्कुल पाक है सिर्फ़ जिस्म से ही नही सारे तरीके से। अगर आप तबरिगी तफ़्सील के अन्दर वो कह्ते है की जिस कुरान का ज़िक्र हो रहा है उस कुरआन का जो सातवें आसमान मे लौहे-महफ़ुज़ के अन्दर जिसको कोई हाथ नही लगा सकता सिवाय फ़रिश्तों के"। तो शैतान के करीब आने का तो सवाल ही नही उठता इसके माईने ये नही कोई इन्सान जो पाक नही है वो हाथ नही लगा सकता है। पाक होना, वुज़ु मे होना अच्छी बात है लेकिन इसका मतलब ये नही है की ये फ़र्ज़ है।

कुछ लोग ये भी कह्ते है की हम गैर-मुस्लिम को कुरआन का सिर्फ़ तर्जुमा देंगे अरबी मतन नही देंगे, कुरआन शरीफ़ का तर्जुमा और अरबी मे साथ-साथ नही देंगे। लेकिन मै अगर किसी गैर-मुस्लिम को कुरआन देता हू तो मैं तर्जुमें के साथ अरबी का कुरआन भी देता हु क्यौंकी अगर तर्जुमें मे गलती हो तो वो इन्सान की तरफ़ है अल्लाह की तरफ़ से नही है, और तर्जुमें तो इन्सान करते है और गलती तो कहीं न कहीं करेंगे। मिसाल के तौर पे आप पढेंगे सुरह: लुकमान सु. ३१ : आ. ३४ उसमें अल्लाह तआला फ़र्माते है की "अल्लाह के अलावा कोई भी नही जानता के मां के पेट मे जो बच्चा है वो कैसा होगा"। लेकिन आप उर्दु का तर्जुमा पढेंगे तो उसमें अकसर ये लिखा मिलेगा कि "कोई भी नही जानता कि मां के पेट मे जो बच्चा है उसका जिन्स (लिंग) कैसा होगा"। और जो शख्स थोडा बहुत साइंस के बारे मे जानता होगा वो बता सकता की आज के दौर में ये जानना बहुत आसान काम है की मां के पेट मे बच्चा लडंका है या लडकी। जबकी अरबी मे जिन्स लफ़्ज़ है ही नही। कुरआन मजीद मे लिखा है कि "कोई भी नही जानता सिर्फ़ अल्लाह के सिवा की मां के पेट के अन्दर बच्चा कैसा होगां। कैसा होगा के माईने की पैदा होने के बाद वो अच्छा होगा या बुरा, दुनिया के फ़ायदेमन्द होगा या नुक्सानदायक, वो जन्नत जायेगा या जह्न्नम कोई भी नही जानता सिवाय अल्लाह के।

जो लोग कहते है कि आप अरबी कुरआन गैर-मुस्लमान को देगें और आपको सज़ा मिलेगीं तो मै कहता हुं की कोई हर्ज नही। अगर अल्लाह तआला मुझे ज़िम्मेदार ठहरायेगें अरबी कुरआन किसी गैर-मुस्लमान को देनें के लिये तो मैं हमारे आखिरी रसुल मोहम्मद स अ व के साथ हुं क्यौंकी मोहम्मद स अ व की सिरत से हमें ये मालुम होता है की मोहम्मद स. अ. व. ने गैर-मुस्लमान राजाओं को खत लिखवायें उन्होने सहाबा से कहा की खत लिखों और इन खतों मे कुरआन की आयत भी लिखवायीं। कई बादशाहों को लिखा यमन के बादशाह, मिस्र के बादशाह, बादशाह हरकुलिस। कई बादशाहॊं को लिखा सहाबाओं के ज़रियें की आप इस्लाम कुबुल कर करों और उन खतों के अन्दर कुरआन की आयत लिखवायी, कई बादशाहॊं ने इस्लाम कुबुल किया और कई बादशाहॊं ने खत को फ़ाडं दिया और पैर के नीचे मसला। ऎसा एक खत मौजुद है कोप्टा के अजायबघर मे जिसके अन्दर अल्लाह के रसुल सुरह अल इमरान सु. ३ : आ. ६४ लिखवातें हैं उस मे ज़िक्र है "कहों अहलेकिताब (ईसाई) से की आऒ उस बात की तरफ़ जो आप और हम मे समान है सबसे पहली बात है की अल्लाह सुब्नाह वतआला एक है, अल्लाह के साथ किसी को शरीक न करें, हम आप और हम में से अल्लाह के अलावा किसी को रब ना बनायें, अगर वो फिर भी न मानें तो आप शहादत दो की हम मुस्लिम है"। इस कुरआन मजीद की आयत मे अल्लाह हमें एक तरीका बताते है की कैसे गैर-मुस्लमानॊं से बात करनी चाहियें और उन्हें इस्लाम की दावत देनी चाहियें।

मैं आप लोगों से एक सवाल पूछ्ता हू की आज की तारिख मे लगभग डेढ करोड अरब है जो कोपटिक क्रिसशन (ईसाई) है, एक करोड पचास लाख अरब हैं जो जन्म से ईसाई है। मैं आपसे पूछ्ना चाहता हू की एक अरब ईसाई को आप कौन सा तर्जुमा देंगे? अरबी तो उसकी मार्तभाषा है तो क्या आप कुरआन का फिर से अरबी में तर्जुमा करेंगे। आप उसको अरबी का कुरआन देंगे।

हमारा फ़र्ज़ है की हम कुरआन को पढे, उसकों समझें, उस पर अमल करें और दुसरे लोगों तक कुरआन का पैगाम पहुचायें। अकसर कई मुस्लमान कहते है की कुरान मजीद को सिर्फ़ आलिम लोग ही समझ सकतें हैं, उन्हे ही पढना चाहिये, ये बहुत कठिन किताब है और इसको आलिम ही समझ सकते हैं। मैं आपको कुरआन मजीद की एक सुरह बताता हू जिसके अन्दर कम से कम चार बार दोहराते है, अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह कमर सु. ५४ : आ. १७, २२, ३२, ४०, में "हमनें कुरआन आपके लिये आसान बनाया ताकि आप इसें समझ सकें, आप इसे याद रख सकें, हमनें ये कुरआन मजीद आपकें समझनें के लिये आसान बनाया, आप में से कौन शख्स इसकी बात नही मानेगा"। जब अल्लाह तआला ने कुरआन मे कई आयतों मे फ़र्माया की हमनें कुरआन आपके लिये आसान बनाया तो आप किसकी बात मानेंगे अल्लाह की या उस मुस्लमान की जो कहतें हैं की सिर्फ़ उल्मा के लिये है। और अल्लाह तआला कई आयतों मे फ़र्मातें है सुरह बकरह सु. २ : आ. २४२ में "फ़िर आप नही समझोगें"। यानी अल्लाह तआला चाहतें है की आप कुरआन मजीद को समझ के पढॊं लेकिन अल्लाह तआला इसके साथ मे ये भी फ़र्माते है सुरह नहल सु. १६ : आ. ४३ और सुरह अम्बिया सु. २१ : आ. ७ में "अगर आप कुछ चीज़ को नही समझते है तो उनसे पूछिये जिसके पास इल्म है"। मान लिजिये कि आप कुरआन का तर्जुमा पढ रहे है और आपको कुछ आयतें समझ मे नही आती है तो कुरआन मजीद मे अल्लाह तआला ने बता दिया है की आप उनसे पूछिये जिनके पास इल्म है। अगर आप कुरआन मजीद की आयत पढते है जिसमें साइंस का ज़िक्र है तो आप किस से पूछेंगे? अपने पडोसी से जो हज्जाम है? नही आप साइंटिस्ट से पूछेंगे क्यौंकी साइंटिस्ट साइंस का आलिम है।

अगर कुरआन मे बीमारी का ज़िक्र है तो किस से पूछेंगे? आप डाक्टर से पूछेंगे क्यौंकि डाक्टर दवाई के मैदान मे माहिर और आलिम है। अगर आप ये जानना चाहते है की कुरआन की ये आयत कब नाज़िल हूई तो आप उस से पूछेंगे जिसने दारुल उलुम मे सात - आठ साल पढाई की है तो कुरआन मे ये ज़िक्र आता है कि उनसे पूछिये जिनके पास इल्म हैं।

मैं आपको एक मिसाल देना चाहूगां कुछ बीस साल पहले कुछ अरब कुरआन मजीद मे जितनी भी आयतें है जो एम्रोलोजी के बारे मे ज़िक्र कर रही है। एम्रोलोजी का मतलब है मां के पेट के अंदर कैसे बच्चा बडा होता है उसकी पुरी जानकारी। तो कुरआन मे जितनी आयतों में ज़िक्र होता है की कैसे मां के पेट मे बच्चा बडा होता है उन सब आयतों का तर्जुमा लेकर वो जाते है प्रों. कीथ मूर के पास और उस वक्त प्रों. कीथ मूर सारी दुनिया के सबसे माहिर एम्रोलोजिस्ट थें, हैड आफ़ दा डिपार्ट्मेट आफ़ एनोटोमी, यूनिव्रसिटी आफ़ टोरंटो. कनाडा। वो ईसाई थे लेकिन अल्लाह तआला फ़र्माता है की उनसे पूछिये जो माहिर है चाहे वो मुस्लमान हो या गैर-मुस्लमान। तो ये अरब उन्हे कुरआन मजीद का तर्जुमा पेश करते है कि जिसके अन्दर ज़िक्र आता है कि कैसे मां के पेट के अंदर बच्चा बडा होता है। वो जब कई आयतों का तर्जुमा पढते है तो प्रो. कीथ मूर कहते है कि "अकसर जो आयतॊं मे ज़िक्र है वो आज की माडर्न एम्रोलोजी से मिलती जुलती है लेकिन चंद आयते है जिनके बारे मे ये नही कह सकता की ये सही है। मैं ये भी नही कहता हू की ये गलत है क्यौंकी मैं खुद नही जानता"। उन आयतों मे दो आयतें ये थी जो सबसे पहले नाज़िल की गयी थी सुरह इकरा या सुरह अलक सु. ९६ : आ. १-२ जिसमें अल्लाह तआला फ़र्माते है "पढों अल्लाह के नाम से जिसने इन्सान को बनाया है खून के लोथडें से, लीच से, जोंक से"। प्रों. कीथ मूर ने कहा मैं नही जानता की बच्चा जब मां के पेट के अन्दर बडा होता है तो सबसे पहले लीच की तरह दिखता है, लीच का मतलब है जोंक जो खून चुसता है। तो प्रो. कीथ मूर अपनी लेबोरेट्री के अन्दर गये और एक बहुत पावरफ़ुल माइक्रोस्कोप के अन्दर देखा की जो मां के पेट के अन्दर बच्चा जब अपनी सबसे पहली स्टेज मे होता है एकदम पहली मंज़िल उसको माइक्रोस्कोप के अन्दर देखते है और उसे जोंक की तस्वीर से मिलाते है और हैरान हो जाते है की हुबहु दोनों बिल्कुल एक जैसे है।

जब उनसे embryology एम्रोलोजी के बारे लगभग अस्सी सवाल पुछे गये तो उन्होने कहा की अगर आपने ये सवाल मुझसे तीस साल पहले पुछे होते यानी आज से पचास साल पहले तो मैं पचास प्रतिशत से ज़्यादा सवालॊं के जवाब नहीं दे सकता था क्यौंकी एम्रोलोजी साइंस का वो हिस्सा है जो अभी चंद सालॊ मे ही कुछ तरक्की किया है। प्रो. कीथ मूर को जो भी नयी चीज़ मिली कुरआन और हदीस से उन्होने अपनी नई किताब "Developing Human" की तीसरी एडीशन मे शामिल किया और उस किताब को उस वक्त का नंबर वन किताब का अवार्ड मिला सबसे बहतरीन किताब जो एक डाक्टर ने लिखी है और इस किताब का अनुवाद कई ज़बानॊं मे किया जा चुका है।

इस किताब के ताल्लुक रखते कुछ लिन्क यहा मौजूद हैं......

http://www.geocities.com/aahem187/embryology.htm

http://www.islamic-awareness.org/Quran/Science/scientists.html

http://www.answering-islam.org/Responses/It-is-truth/chap03.htm

http://www.islamicvoice.com/january.97/scie.htm

http://www.thisistruth.org/truth.php?f=CreationOfMan

http://www.elsevier.com/wps/product/cws_home/712494

प्रो. कीथ मूर ने कहा "मुझे कोई एतराज़ नही ये मानने में की कुरआन मजीद खुदा की किताब है और मुझे कोई एतराज़ नही ये मानने मे की मोहम्मद स. अ. व. खुदा के आखिरी पैगम्बर हैं"।

इस मिसाल से हमें ये मालुम होता है की जब भी आपको कुछ नही पता तो उससे पुछिये जो उस मैदान का माहिर है। जब भी आप कोई मशीन खरीदते है तो उसके साथ Instruction Manual युज़र गाइड आती है की किस तरह से मशीन को इस्तेमाल करना चाहिये। और आप अगर इज़ाज़त देंगे इन्सान को मशीन कहने के लिये तो ये हमें मानना पडेंगा की सबसे मुश्किल मशीन इन्सान है, सबसे पेचिदा मशीन इन्सान है। क्या इस मशीन के लिये कोई Instruction Manual युज़र गाइड की ज़रूरत नही? कोई किताब की ज़रुरत नही? इस मशीन की Instruction Manual युज़र गाइड है अल्लाह का आखिरी कलाम कुरआन मजीद, इस कुरआन मजीद मे लिखा हुआ है की किस तरह इस मशीन की हिफ़ाज़त करनी चाहिये? किस तरह इस मशीन को चलाना चाहिये? इस मशीन के लिये क्या क्या फ़ायदे है.....हर मशीन के साथ एक किताब आती है और इस मशीन इन्सान की किताब है अल्लाह का आखिरी कलाम कुरआन।

अगर आप कोई जापानी मशीन खरीदते है और उसके साथ Instruction Manual युज़र गाइड जापानी मे आपको मिलती है और जापानी आप समझतें नही हैं तो आप क्या करते हैं? आप दुकानदार से उस ज़बान की Instruction Manual युज़र गाइड मागंते है जो जिस ज़बान मे आपको महारत हासिल है ताकि आप समझ सकें की इस मशीन को कैसे इस्तेमाल करना है। तो अगर आप अरबी कुरआन मजीद को नही समझते है तो कम से कम इस कुरआन मजीद का तर्जुमा पढॊं और समझॊं और इस मशीन को सही तरह से इस्तेमाल करो।

मान लीजिये आप की कार खराब हो जाती है और कोई आप से कहता है की इसकी टंकी मे देसी घी डाल दो तो ये चलने लगेगी तो आप क्या करेंगे? उसकी बात मानेंगे नही क्यौंकी भले आप गाडीं सही करना नही जानते पर इतना जानते है की गाडी घी से नही चलती है। तो इसी तरह अगर हर मुस्लमान कुरआन को थोडा बहुत भी समझ कर पडें तो कोई भी आलिम, कोई भी मौलवी आपको बहका नही सकता, कोई भी आपकॊ गुमराह नही कर सकता है। आज के माहौल मे आप देखते है की मुस्लमान फ़िरकों मे बंटे हुए है एक आलिम ये कहता है, एक आलिम वो कहता है, अगर हम मुस्लमान कुरआन मजीद को समझ कर पढें तो कोई भी मौलाना आपको गुमराह नही कर सकता, कोई भी आलिम आपकॊ घुमा नही सकता।

ये आज मुस्लमानों की हालत जो है की सब जगह मुस्लमान पीटे जा रहे है क्यौंकी हम कुरआन मजीद समझ के नही पढते। अगर हम कुरआन मजीद समझ के पढें और इकट्ठा हो जाये तो इन्शाल्लाह हम मुस्लमानॊं के बीच कोई फ़िरका नही होगा। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह अल इमरान सु. ३ : आ. १०३ में "आप अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकडीये और आपस मे फ़िरके मत बनाइये"। अल्लाह की रस्सी क्या है कुरआन मजीद और मोहम्मद स. अ. व. की सही हदीस अगर हम अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकड लेंगे और आपस मे फ़िरके नही बनायेंगे तो इन्शाल्लाह हम एक बार फिर से दुनिया की ऊचाई पर पहुचेंगें।

कुछ लोग है जो ये भी कहते है की कुरआन मजीद को अरबी मे पढना बिल्कुल ज़रुरी नही है सिर्फ़ तर्जुमा पढना ही काफ़ी है। एक मुस्लमान उस तरफ़ जा रहें है जो कह रहें है की कुरआन मजीद को समझ के पढों ही मत और दुसरी तरफ़ जो बहुत मॉडर्न मुस्लमान है वो कहते है की अरबी मे पढ कर फ़ायदा क्या है? अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह निसा सु. ४ : आ. १७१ में "आप दीन के अन्दर जास्ती मत कीजिये" जास्ती का मतलब है की दायरे के बाहर मत जाइये। अरबी पढने के भी फ़ायदे है अल्लाह तआला फ़र्माता है सुरह अनकबुत सु. २९ : आ. ४५ में "आप पढों उस आयत को जो अल्लाह ने नाज़िल की इस किताब मे"। यानि अरबी मे पढना आपकॊ फ़ायदा पहुचायेगा। अल्लाह के नबी स. अ. व. फ़र्माते है "जो कोई एक हुर्फ़ कुरआन मजीद का पढता है उसे दस सवाब है" (१००३ : तिर्मिधी)। अल्लाह एक हुर्फ़ नही है "अलीफ़" एक हुर्फ़ है, "लाम" एक हुर्फ़ है, "ह" एक हुर्फ़ है, अगर आप अल्लाह पढेंगे तो आपको १० + १० + १० = ३० सवाब या नेकी मिलेंगी। अरबी पढने का भी सवाब है लेकिन हम हर रोज़ इतने गुनाह करते है, इतनी गलतियां करते है, तो क्या ये ३० नेकी काफ़ी है हमें जन्नत ले जाने के लिये? हमें अल्लाह के अज़ाब से बचाने के लिये? अगर आप कुरआन मजीद को पढेंगे, और समझेंगे, और अमल करेंगे तो सैकडों गुना सवाब मिलेगा। हदीस मे आता है इब्ने माज़ा अध्धाय. १६ : ह. २१९ अल्लाह के रसुल कहते है "या अबुदर तुम अगर एक आयत को समझोगें तो वो सौ रकात नफ़ील से बेहतर है"। अल्लाह के रसुल फ़र्माते है की एक आयत को समझोगे तो वो सौ रकात नफ़ील से बेहतर है, आप अगर नमाज़ पढेंगे तो कम से कम सुरह: फ़ातिफ़ा तो पढेंगे, एक रकात मे कम से कम सात आयते है तो सौ रकात मे सात सौ आयते हुई.........इसका मतलब एक आयत को समझ कर पढना सात सौ आयत को पढने से बेहतर है। इसका मतलब की आयत को समझना, आयत को पढने से सात सौ गुना बेहतर है।

जब लोगो से पुछते है की कुरआन शरीफ़ क्यौं नाज़िल हुआ? तो लोग कहते है कि जब दुकान या आफ़िस की ओपनिंग हो तब कुरआन शरीफ़ पढना चाहिये, जब नये घर मे बसें तो कुरआन शरीफ़ पढना चाहिये, जब कोई मर जाये तो कुरआन शरीफ़ पढना चाहिये, कुरआन खानी करनी चाहिये, कुरआन शरीफ़ को नाज़िल कुरआन खानी के लिये नाज़िल किया गया था। बहुत से लोग खतमें कुरआन करते है दो बार, तीन बार, चार बार, रमज़ान मे खतमें कुरआन का मुकाबला सा हो जाता है अच्छी बात है आपकॊ सवाब मिलेगा। लेकिन मेरी राय ये रहेगीं की आप इतनी बार खतमें कुरआन करते हैं तो एक बार अरबी मे पढों और एक बार तर्जुमा पढों वो बेहतर है कम से कम समझ मे तो आयेगा।

और आप लोग चाहते है की जब दुकान और आफ़िस की ओपनिंग हो तो कुरआन खानी हो, जब नये घर में जायें तो कुरआन खानी हो, जब कोई मर जाये तो कुरआन खानी हो, तो मैं कुरआन की ऐसी कोई आयत या सही हदीस मैं नही जानता हूं की मोहम्मद स.अ.व. या सहाबा किसी की मौत पर कुरआन मजीद पढते थें, या जब दुकान या नये घर की ओपनिंग पर कुरआन मजीद पढतें थे, इसका कोई सबुत नही हैं। लेकिन अगर आपको कुरआन पढने ही है और आप १०० मील की रफ़्तार से कुरआन पढते है तो मैं कहता हु की साथ मे तर्जुमा भी पढों, आप तीस लोगो को बुलाते हो तो साठ को बुलाओ एक आदमी आधा पारा अरबी मे पढें और आधा फ़िर तर्जुमा पढें।
इस मौके पर कुरआन पढना कही हदीस मे लिखा नही लेकिन कम से कम आपकी कुछ समझ मे तो आयेगा और हो सकता है आप समझने के बाद उस पर अमल करें इसीलिये क्यौंकी कुरआन मजीद को समझ के पढना बहुत ज़रुरी है। सिर्फ़ पढना काफ़ी नही है उसकॊ पढों, समझों और अमल करों तो इन्शाल्लाह आप जन्नत मे जायेंगें।
हम लोग कुरआन को बहुत इज़्ज़त देतें है, उसको इतनी इज़्ज़त देतें है की उसकॊ अलमारी के सबसे उपर के खाने मे रखते है उसे इतना उपर रखते की अगर पढने की चाहत हो चढना, निकालना, बहुत भारी लगता है और वहां ऊचाई पर उसके उपर धूल आती है। जो किताब हम रोज़ इस्तेमाल करना चाहते है तो वो किताब ऐसी ऊचाई पर रखनी चाहिये की आसानी से उसे निकाल सकें। कुरआन मजीद हमारे लिये एक हिदायत की किताब है, रोज़ की ज़िन्दगी के लिये हिदायत की किताब है तो उसे ऎसी जगह रखिये ताकि फ़ौरन उसे हासिल कर सकें और पढ सकें।
कुछ लोग कुरआन मजीद को मखमल के कपडें मे कस कर लपेट का रखते है, वो उसको इतना कसकर बाधं देते है की अगर पढने का दिल हुआ तो उसे खोलने के लिये पांच मिनट, उसे बाधंने के लिये पांच मिनट और मेरे पास तो सिर्फ़ दस मिनट है जाओ रहने दो नही पढते। इज़्ज़त देना चाहिये अच्छी बात है लेकिन सिर्फ़ ऊपर की और दिल मे इज़्ज़त नही तो ऐसी इज़्ज़त बेकार है, हम कुरआन मजीद को हाथ लगाने से पहले हज़ार चीज़े सोचते है जैसे वो आरडीएक्स बम है जो हाथ लगाने से फ़ट जायेगा, मैनें जुता पहना है मैं हाथ लगा सकता हुं की नही? मेरा वुज़ु नही है हाथ लगा सकता हुं की नही? मैं खडा हूं तो पढ सकता हूं की नही? मैं गाडी मे सफ़र कर रहा हूं कुरआन पढ सकता हूं की नही? मैं आफ़िस में हू पढ सकता हूं की नहीं?
कुरआन मे कहां लिखा है की सफ़र मे मत पढों, आफ़िस मे मत पढों, खडें हो कर मत पढों, जुते पहन के मत पढो, बगैर वुजु के मत पढो, ये सब हमारी गलतफ़हमियां है कुरआन मजीद रोज़ पढने वाली किताब है उसे रोज़ पढना चाहिये। इज़्ज़त दीजिये अच्छी बात है मैं ये नही कहता की इज़्ज़त मत दीजिये लेकिन इतनी मत दीजिये के उसका मकसद खत्म हो जायें। मै पढना चाहता हूं लेकिन मैं आफ़िस मे हूं इसलिये मैं नही पढूगां, मैं पढना चाहता हूं लेकिन मेरा वुज़ु नही है तो नही पढूगां। वुज़ु होना अफ़ज़ल है लेकिन फ़र्ज़ नही है कुछ लोग कहते है लेकिन कोई दलील नही हैं।
इब्ने हज़र जिन्होने तफ़सील लिखी "सही बुखारी" की वो कहते है की कुरआन मजीद को हाथ लगाने की कोई शर्त नही है लेकिन आप वुज़ु मे है तो अफ़ज़ल है। अफ़ज़ल तो यह है की कम से कम आप इसे पढ कर अमल तो करो आप कह रहे हैं उर्दु मे है तो मैं पढुगां नही। हमारे बीच मे बहुत सारी गलतफ़हमियां है कुरआन मजीद को लेकर।
आप अरब मे जायेंगे तो वहां देखेगे की नमाज़ मे दस मिनट बाकी है तो वो लोग कुरआन मजीद निकालेगें और पढेगें वो लोग अरबी ज़बान जानते है तो उन्हे तर्जुमा की ज़रुरत नही है हमारे यहां भी चन्द मस्जिदों मे कुछ लोग है जो पढते हैं लेकिन सिर्फ़ पहली सफ़ मे पढते है अगर कोई दुसरी सफ़ मे पढता होगा तो लोग उसका कान पकडते है की आप कुरआन मजीद दुसरी सफ़ मे कैसे पढ रहे हों? पहली सफ़ वाले की पीठ है कुरआन मजीद की तरफ़ आप बेउम्मती कर रहे है कुरआन की। आप अरब जाईये वहां जो बच्चे कुरआन पढना सीखते है उन सब मे से आधे छात्रों की पीठ दुसरों के कुरआन की तरफ़ रहती है वहां लोग पढते है और अगर आप मस्जिद मे कुरआन मजीद पढ रहे है और आपकी पीठ काबे की तरफ़ है तो आपकी खैर नही आपको खुब सुनाया जायेगा की आप काबे की तरफ़ पीठ करके कुरआन मजीद पढ रहे है आपको इतना भी नही पता। कुरआन और हदीस मे कही नही लिखा है की काबे की तरफ़ पीठ करके पढना हराम है।
आप अरब जायें तो उस्ताद काबे की तरफ़ चेहरा करके बैठता है और सारे तुल्बा (छात्र) काबे की तरफ़ पीठ करके बैठते है। कहीं भी नही लिखा है की काबे की तरफ़ पीठ करके कुरआन मजीद नही पढना चाहिये ये सब हमारी गलतफ़हमियां है जिन्हे हमें दुर करना चाहिये और कुरआन मजीद को ऐसी किताब बनाना चाहिये जो हर रोज़ हमें हिदायत दे, हर रोज़ उसे पढना चाहिये, उसे समझना चाहिये और उस पर अमल करना चाहिये। हम उसे इतनी इज़्ज़त देते है की उसका मकसद ही खत्म हो जाता है।
एक चुटकुला पेश करना चाहता हूं की हिन्दुस्तान के बहुत मशहुर "कारी" (कुरआन के अल्फ़ाज़ो को सही तरीके से बोलकर पढने वाला) सऊदी अरब गये थे और मगरीब का वक्त हो चुका था, अज़ान हो चुकी थी, वहां के लोगो ने कहा की हिन्दुस्तान के इतने अच्छॆ कारी आये हुए है तो आप ही इमामत कीजिये, आप नमाज़ पढायें तो उन्होने नमाज़ पढायी, बहुत अच्छी "किराअत" की।
नमाज़ के बाद एक अरब कारी साहब को देख के मुस्कुराया तो कारी साहब ने उससे पुछा क्या आपको मेरी किराअत पसन्द नही आयी? तो वो अरब बोला माशाल्लाह आपने बहुत अच्छी किराअत की लेकिन मैं सोच रहा था की मगरीब की नमाज़ मे आपने युसुफ़ अलैहस्सलाम को कुऎ मे डाला लेकिन नमाज़ पुरी होने से पहले बाहर क्यौं नही निकाला? जो लोग कुरआन मजीद तर्जुमें से पढ चुकें है वो जान चुकें होंगे की क्या चुट्कुला है? सुरह युसुफ़ मे ज़िक्र है की युसुफ़ अलैहस्सलाम के भाई युसुफ़ अलैहस्सलाम को कुऎ मे डालते है फ़िर कुऎ से बाहर निकालते हैं ये सारा जिक्र कुरआन मजीद मे सुरह युसुफ़ मे है। तो कारी साहब ने सुरह युसुफ़ की तिलावत की, युसुफ़ अलैहस्सलाम को कुऎ मे डाला और युसुफ़ अलैहस्सलाम को कुऎ से निकालने से पहले की नमाज़ खत्म हो गय़ी इसका मतलब ये है की कारी साहब ने तिलावत तो अच्छी की लेकिन उन्होने क्या पढा ये उन्होने समझा नही। ये सिर्फ़ एक चुट्कुला है
तो हमें कुरआन मजीद की इज़्ज़त करनी चाहिये लेकिन सबसे बढी इज़्ज़त है दिल मे, तो कुरआन को समझ कर पढे और उस पर अमल करें। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह मोहम्मद सु: ४७ : आ. २४ में "आप क्या कुरआन को नही समझते? क्या आपका दिल इतना सख्त है? क्या आप के दिल पर ताले लग गये?"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह बकरह सु. २ : आ. १५९ में "अल्लाह तआला जब अपनी आयते नाज़िल करते है और आम करते है और आप उन्हे लोगो से छुपाते है तो आप पर अल्लाह तआला की लानत है"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह फ़ुरकान सु. २५ : आ. ३० में कि मोहम्मद सल्लाहो अलैह वसल्लम अल्लाह से कहते है "या अल्लाह ये मेरी उम्मा (उम्मत) है जिसने कुरआन के साथ खिलवाड किया"। अल्लाह के रसुल शहादत देते है की ये मेरी उम्मा है जिसने कुरआन के साथ खिलवाड किया। तो हमारा फ़र्ज़ है की हम कुरआन मजीद को पढें और समझे।
कुरआन मजीद को पढने के दो तरीके होते है एक तज़्कुरे - कुरआन और एक तज़्बुरे - कुरआन। तज़्कुरे - कुरआन का मतलब है कुरआन मजीद को ऊपरी तौर पर पढना और तज़्बुरे - कुरआन का मतलब है कुरआन मजीद के माईनों को गहराई से तज़्बुर करना (गहराई से समझना)। हमारा फ़र्ज़ है कुरआन मजीद को समझ कर पढे और हर मुस्लमान के घर मे कुरआन मजीद का तर्जुमा होना चाहिये अगर आप अरबी ज़बान नही जानते हैं। सबसे बहतरीन किताब जो आप किसी को तोहफ़ा दे सकें वो है कुरआन मजीद। आप किसी के निकाह मे जायें, किसी के यहां दावत मे जायें, अपने बच्चे को तोह्फ़ा देना हो, तो सबसे बहतरीन किताब तोह्फ़े मे दीजिये कुरआन मजीद। और हमें चाहिये की घर मे रोज़ कम से कम बीस - पच्चीस मिनट घरवालॊं को लेकर कुरआन मजीद तर्जुमे से पढे, आपकी और आपके घरवालॊं की ज़िन्दगी इन्शाल्लाह बदल जायेगी।
और लेख के आखिर मे मै कहना चाहता हूं की अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह लुकमान सु. ३१ : आ. २७ में "की अगर आप सारे पेड को कलम मे तब्दील करेंगे और सारे समुंद्र, सात समुंद्र को स्याही मे बदलेंगे तो भी आप अल्लाह तआला की तारीफ़ नही लिख सकोगें"। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह अल हशर सु. ५९ : आ. २४ में "अगर ये कुरआन पहाड पर नाज़िल किया जाता तो पहाड रेज़ा-रेज़ा हो जाता, टुक्डे-टुक्डे हो कर गिर जाता"। इसके माईने है की अगर पहाड को ज़रा भी एहसास होता और अल्लाह तआला इस कुरआन को पहाड पर नाज़िल करता तो वो पहाड रेज़ा - रेज़ा हो जाता लेकिन हम मुसलमानों पर इसका कोई असर नही होता। इसलिये मैं कहता हूं की कुरआन को पढिये, समझिये और उस पर अमल कीजिये।
अन्त मे एक हदीस पेश करना चाहता हूं सही बुखारी किताब. ६ : हदीस. ५४५ "हज़रत उस्मान रज़िअल्लाहो अन्हो फ़रमाते है की अल्लाह के रसुल स अ व ने कहा - *"सबसे बहतरीन वो लोग है जो कुरआन को समझते है और दुसरों को समझाते है"।*

अल्लाह आप सबको कुरआन को पढकर और सुनकर, उसको समझने की और उस पर अमल करने की तौफ़िक अता फ़र्मायें।
आमीन

7/11 मुंबई विस्फोट: यदि सभी 12 निर्दोष थे, तो दोषी कौन ❓

सैयद नदीम द्वारा . 11 जुलाई, 2006 को, सिर्फ़ 11 भयावह मिनटों में, मुंबई तहस-नहस हो गई। शाम 6:24 से 6:36 बजे के बीच लोकल ट्रेनों ...