"बेच कर तलवारे खरीद लिए मुसल्ले हमने।
बेटियां लुटती रही और हम सजदे करते रहे।"
जब भी आलिम बयान देते है। मुसलमानो पर हो रहे ज़ुल्म के बारे में पूछो तो एक ही जवाब देते है। ये सब हमारे आमाल की सजा है।नमाज़ पढ़ो और रोज़े रखो। पर कभी ये नहीं बताते के इस ज़ुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए इस्लाम ने क्या उपाय बताया है।
जब हम नमाज़ के बाद रोज़ी में बरकत की दुआ करते है तो क्या आसमान से नोटों की बारिश शुरू हो जाती है ? नहीं हमे दुआ के बाद दुकान, ऑफिस, नौकरी या कारखाने जाकर रोज़ी में बरकत के लिए मेहनत करनी पड़ती है।तब जाकर हमे रोज़ी मिलती है। इसी तरह ज़ुल्म के खात्मे के लिए
दोनों काम ज़रूरी है नमाज़, रोज़ा और ज़ालिम का मुकाबला अल्लाह के रसूल (स अ व) ने फरमाया "उंट को बांधो और अल्लाह पर तवक्कल करो।"
उंट को खुला छोड़कर अल्लाह पर तवक्कल करने को नहीं कहा नमाज़ ज़रूर पढ़ेंगे लेकिन ज़ालिम के खिलाफ कोशिश भी जरूरी है। अगर मूसल्ले पर ही सारे मसले हल हो जाते तो अल्लाह के रसूल और सहाबा कभी मैदाने जंग में ना उतरते। अल्लाह ने कुरान में फरमाया है "जो कौम खुद की हालत ना बदलना चाहे अल्लाह भी उस कौम की हालत नहीं बदलता"
हज़रत अली का एक कौल है
"जो कौम ज़ुल्म के खिलाफ आवाज नहीं उठाती वो कौम सिर्फ लाशे उठाती है" हम मुसलमानो को ये आयात और कौल का मतलब अब अच्छे से समझ ने की जरूरत है।