*मुन्नवर_राणा साहब की यह ग़ज़ल ने सच का मानो आईना दिखा दिया...*
*अब फ़क़त शोर मचाने से नहीं कुछ होगा।।*
*सिर्फ होठों को हिलाने से नहीं कुछ होगा।।*
*ज़िन्दगी के लिए बेमौत ही मरते क्यों हो।।*
*अहले इमां हो तो शैतान से डरते क्यों हो।।*
*तुम भी महफूज़ कहाँ अपने ठिकाने पे हो।।*
*बादे अखलाक तुम्ही लोग निशाने पे हो।।*
*सारे ग़म सारे गिले शिकवे,भुला के उठो।*
*दुश्मनी जो भी है आपस मे, भुला के उठो।।*
*अब अगर एक न हो पाए तो मिट जाओगे।।*
*ख़ुश्क पत्त्तों की तरह तुम भी बिखर जाओगे।।*
*खुद को पहचानो की तुम लोग वफ़ा वाले हो।।*
*मुस्तफ़ा वाले हो,मोमिन हो, खुदा वाले हो।।*
*कुफ्र दम तोड़ दे टूटी हुई शमशीर के साथ।।*
*तुम निकल आओ अगर नाराए तकबीर के साथ।।*
*अपने इस्लाम की तारीख उलट कर देखो।*
*अपना गुज़रा हुआ हर दौर पलट कर देखो।।*
*तुम पहाड़ों का जिगर चाक किया करते थे।।*
*तुम तो दरयाओं का रूख मोड़ दिया करते थे।।*
*तुमने खैबर को उखाड़ा था तुम्हे याद नहीं।।*
*तुमने बातिल को पछाड़ा था तुम्हे याद नहीं।।।*
*फिरते रहते थे शबो रोज़ बियाबानो में।।*
*ज़िन्दगी काट दिया करते थे मैदानों में..*
*रह के महलों में हर आयते हक़ भूल गए।।*
*ऐशो इशरत में पयंबर का सबक़ भूल गए।।*
*अमने आलम के अमीं ज़ुल्म की बदली छाई।।*
*ख़्वाब से जागो ये दादरी से अवाज़ आई।।*
*ठन्डे कमरे हंसी महलों से निकल कर आओ।।*
*फिर से तपते हु सहराओं में चल कर आओ।।*
*लेके इस्लाम के लश्कर की हर एक खुबी उठो।।*
*अपने सीने में लिए जज़्बाए रूमी उठो।।*
*राहे हक़ में बढ़ो,सामान सफ़र का बांधो।।*
*ताज़ ठोकर पे रखो,सर पे अमामा बांधो।।*
*तुम जो चाहो तो जमाने को हिला सकते हो।।।*
*फ़तह की एक नयी तारीख बना सकते हो।।।*
*खुद को पहचानों तो सब अब भी संवर सकता है।।*
*दुश्मने दीन का शीराज़ा बिखर सकता है।।*
*हक़ परस्तों के फ़साने में कहीं मात नहीं।।*
*तुमसे टकराए "मुनव़र" काफिर की ये औक़ात नहीं।।*
*✏______Munawwar Rana*