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Monday, 27 August 2018

मुन्नवर_राणा साहब की यह ग़ज़ल

*मुन्नवर_राणा साहब की यह ग़ज़ल ने सच का मानो आईना दिखा दिया...*

*अब फ़क़त शोर मचाने से नहीं कुछ होगा।।*
*सिर्फ होठों को हिलाने से नहीं कुछ होगा।।*

*ज़िन्दगी के लिए बेमौत ही मरते क्यों हो।।*
*अहले इमां हो तो शैतान से डरते क्यों हो।।*

*तुम भी महफूज़ कहाँ अपने ठिकाने पे हो।।*
*बादे अखलाक तुम्ही लोग निशाने पे हो।।*

*सारे ग़म सारे गिले शिकवे,भुला के उठो।*
*दुश्मनी जो भी है आपस मे, भुला के उठो।।*

*अब अगर एक न हो पाए तो मिट जाओगे।।*
*ख़ुश्क पत्त्तों की तरह तुम भी बिखर जाओगे।।*

*खुद को पहचानो की तुम लोग वफ़ा वाले हो।।*
*मुस्तफ़ा वाले हो,मोमिन हो, खुदा वाले हो।।*

*कुफ्र दम तोड़ दे टूटी हुई शमशीर के साथ।।*
*तुम निकल आओ अगर नाराए तकबीर के साथ।।*

*अपने इस्लाम की तारीख उलट कर देखो।*
*अपना गुज़रा हुआ हर दौर पलट कर देखो।।*

*तुम पहाड़ों का जिगर चाक किया करते थे।।*
*तुम तो दरयाओं का रूख मोड़ दिया करते थे।।*

*तुमने खैबर को उखाड़ा था तुम्हे याद नहीं।।*
*तुमने बातिल को पछाड़ा था तुम्हे याद नहीं।।।*

*फिरते रहते थे शबो रोज़ बियाबानो में।।*
*ज़िन्दगी काट दिया करते थे मैदानों में..*

*रह के महलों में हर आयते हक़ भूल गए।।*
*ऐशो इशरत में पयंबर का सबक़ भूल गए।।*

*अमने आलम के अमीं ज़ुल्म की बदली छाई।।*
*ख़्वाब से जागो ये दादरी से अवाज़ आई।।*

*ठन्डे कमरे हंसी महलों से निकल कर आओ।।*
*फिर से तपते हु सहराओं में चल कर आओ।।*

*लेके इस्लाम के लश्कर की हर एक खुबी उठो।।*
*अपने सीने में लिए जज़्बाए  रूमी उठो।।*

*राहे हक़ में बढ़ो,सामान सफ़र का बांधो।।*
*ताज़ ठोकर पे रखो,सर पे अमामा बांधो।।*

*तुम जो चाहो तो जमाने को हिला सकते हो।।।*
*फ़तह की एक नयी तारीख बना सकते हो।।।*

*खुद को पहचानों तो सब अब भी संवर सकता है।।*
*दुश्मने दीन का शीराज़ा बिखर सकता है।।*

*हक़ परस्तों के फ़साने में कहीं मात नहीं।।*
*तुमसे टकराए "मुनव़र" काफिर की ये औक़ात नहीं।।*

*✏______Munawwar Rana*

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