कुनन और पोशपोरा। ये नाम कश्मीर के उन दो गांवों के हैं जहां गाँव की लगभग हर औरत का बलात्कार हो चुका है
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ये नाम कश्मीर के उन दो गांवों के थे जहां भारतीय सेना की 68 बिग्रेड की 4 राजपूताना रेजीमेंट के जवानों ने 23 फरवरी 1991 की रात को इस गांव में 150 महिलाओं के साथ बलात्कार किया था
राजपुताना राइफलस की यूनिट ने कश्मीर के दूरस्थ कुपवाड़ा जिले में स्थित जुड़वां गांवों कुनान और पॉशपोरा में एक खोज और पूछताछ कार्य शुरू किया यह कॉर्डन और सर्च ऑपरेशन था मतलब गांवों को खाली कराकर आतंकियों की खोज करना !
कार्यवाही करते हुए सेना के जवानो ने दोनों गावों के पुरुषों को दो घरों में बंद कर दिया और वहां की औरतो के साथ बलात्कार कीया वारदात के कुछ दिन बाद तक किसी को गाँव से बाहर आने जाने नही दिया गया। इस लिये सामूहिक बलात्कार की इस घटना की पुलिस में शिकायत दो हफ़्ते बाद 8 मार्च को ही लिखवायी जा सकी।
इस दौरान उस रात सैनिकों ने कम से कम 150 महिलाओं का सामूहिक बलात्कार किया था
सब से छोटी बलात्कार पीड़िता की उम्र सिर्फ 14 साल थी और सब से बज़ुर्ग औरत की 70 साल।
पुलिस में 23 औरतों ने अपने साथ रेप कीये जाने की शिकायत दर्ज करवायी थी। 2007 में 40 औरतें जम्मू-कश्मीर ह्युमन राइटस कमीशन के पास इन्साफ के लिये पहुँची थी।
इस घटना के सिर्फ 4 दिन बाद गर्भवती महिलाओं में से एक ने एक बच्चे को एक खंडित बांह के साथ जन्म दिया था। उसने दावा किया कि उसे बलात्कार के दौरान लात मारी गई थी। एक बाल रोग विशेषज्ञ ने जम्मू -कश्मीर पीपुल्स बेसिक राइट्स कमिटी के भाग के रूप में गांव का दौरा किया और उसकी कहानी की पुष्टि की। प्रेस काउंसिल की टीम ने दावा किया कि प्रसव के दौरान भ्रूण को घायल किया गया था।
इस घटना के लगभग एक महीने बाद, 15 मार्च और 21 मार्च के बीच 32 महिलाओं का मेडिकल करवाया गया जिसमें पुष्टि हुई कि महिलाओं की छाती और पेट पर घाव थे, और तीन अविवाहित महिलाओं की कलाई टूट गई थी।
17 मार्च को, जम्मू और कश्मीर के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मुफ्ती बहा-उद-दीन फारूकी ने कुनान पॉशपोरा को एक तथ्य-खोज मिशन का नेतृत्व किया। अपनी जांच के दौरान उन्होंने पचास महिलाओं का साक्षात्कार किया, जिन्होंने दावा किया कि सैनिकों ने बलात्कार किया है, और यह निर्धारित करने की कोशिश की कि घटना में पुलिस की जांच क्यों नहीं हुई है।
फारूकी ने कहा था कि अपने 43 वर्षों में बेंच पर "उन्होंने कभी ऐसा कोई मामला नहीं देखा था, जिसमें सामान्य जांच प्रक्रियाओं को अनदेखा किया गया था
ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुनन गांव के प्रधान और अन्य लोगों का कहना था कि उन्होंने 27 फरवरी 1991 को इन बलात्कारों के बारे में सेना को खबर दी थी. लेकिन अधिकारियों ने आरोप को नकार दिया और इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की गई. गांव पहुंचे एक स्थानीय न्यायाधीश ने कमिश्नर से जांच की दरख्वास्त की. लेकिन उन्हें भी यही बताया गया कि दिल्ली में बैठे अधिकारियों ने राज्य के अधिकारियों से कोई पूछताछ किए बिना ही आरोपों को नकार दिया है. इसके बाद एक पुलिस जांच का आदेश दिया गया जो इसलिए शुरू नहीं हो सकी कि जिस पुलिस ऑफिसर को यह जांच करनी थी वह पहले छुट्टी पर था और बाद में उसे ट्रांसफर कर दिया गया.
सरकारी जांच की आलोचना होने के बाद काउंसिल की कमेटी घटना के तीन महीने से ज़्यादा समय बाद गांव पहुंची.घटना के तीन हफ्ते बाद 32 महिलाओं पर किए मेडिकल टेस्ट में अविवाहित महिलाओं की हाइमन नष्ट होने की पुष्टि हुई थी, लेकिन कमेटी ने इसे सबूत मानने से इनकार कर दिया.
23-24 फरवरी 1991 की रात कुनन और पोशपोरा गांव में क्या हुआ, इस पर तमाम बातें हुईं. जांच कमेटियां बैठाई गईं. केस हुआ, उसे बेबुनियाद मानकर बंद कर दिया गया. दिल्ली के निर्भया के बलात्कार के विरोध में हुए प्रदर्शनों के बाद 2013 में, कश्मीरी महिलाओं की मांग पर इसे एक बार फिर से खोला गया.
2013 में जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर मांग की गई कि इस मामले की दोबारा जांच की जाए और पीड़ितों को मुआवज़ा भी दिया जाये. इसके बाद हाई कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर सरकार को पीड़ितों को मुआवज़ा देने का आदेश दिया.
चार दिसंबर 2017 को राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ अपील की. सरकारी वकील ने तर्क दिया कि पीड़िताओं को सीआरपीसी की धारा 545ए के तहत मुआवज़ा इसलिए नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस धारा को इस मामले से बहुत बाद में जोड़ा गया था.
इसके अलावा राज्य सरकार का यह भी तर्क है कि अारोप सेना के खिलाफ हैं तो राज्य सरकार को मुआवज़े का निर्देश देना सही नहीं है.
‘मैं कुनन-पोशपोरा की बलात्कार पीड़िता हूं. सांस लेती हूं, पर ज़िंदा नहीं हूं’
आइए पढ़ते हैं एक ऐसी महिला का बयान जो कथित तौर पर उस हादसे का शिकार हुई थी जिसे कुनन पोशपोरा सामूहिक बलात्कार के नाम से जाना जाता है. इस बयान को ‘डू यू रिमेंबर कुनन पोशपोरा’ नाम की एक किताब में दर्ज़ किया गया है. इस किताब को पांच कश्मीरी लड़कियों, एसार बतूल, इफरा बट, समरीना मुश्ताक, मुंज़ा राशिद और नताशा रातहर ने लिखने का फैसला किया जब वे जम्मू-कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसाइटीज़ के लिए जम्मू कश्मीर में यौन हिंंसा और इम्प्युनिटी पर काम कर रही थीं.
कुनन पोशपोरा हादसे के बारे में जानने के बाद इन लड़कियों ने दोनों गांवों की महिलाओं से मिलकर उनकी पीड़ा और संघर्ष को किताब की शक्ल में लिखा. इस किताब को लाड़ली पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है.
डू यू रिमेंबर कुनन पोशपोरा’ में इस लड़की का नाम बदलकर दुर्री रख दिया गया है. किताब में दुर्री बताती है कि वह कुनन गांव में अपने दादा, पिता, मां, बहन फातिमा और भाई हुसैन के साथ रहती थी.
किताब के मुताबिक 23-24 फरवरी 1991 की रात को सुरक्षा बलों के जवान कई और घरों के के साथ-साथ दुर्री के घर पर भी गये थे. उस वक्त करीब 19 साल की रही दुर्री के घर पर उसके परिवार वालों के अलावा पोशपोरा गांव की रहने वाली उसकी सहेली अमीना भी थी. अपने दरवाजे पर उस रात होने वाली तेज दस्तक से आगे का किस्सा दुर्री कुछ इस तरह से सुनाती है:
‘मैंने और मेरी बहन ने कांगड़ी को और कसकर पकड़ लिया. हम दोनों उस दस्तक से डरे हुए थे. लग रहा था जैसे कोई हमारे घर का दरवाज़ा तोड़ डालना चाहता है. मेरे दादाजी ने जल्दी से उठकर दरवाज़ा खोला. मैंने कुछ लफ़्ज़ सुने, ‘कितने आदमी हो घर में?’ ‘कोई नहीं साहिब बस मैं हूं.’ मैंने खड़े होने की कोशिश की. मुझे अमीना ने रोक लिया. मैंने और ध्यान से सुनने की कोशिश की. अमीना और फातिमा भी वही कर रहे थे. इस सब के बीच मुझे एक औरत की आवाज़ सुनाई दी. मेरी मां किसी से मिन्नतें कर रही थी. तभीटोथ (दुर्री के दादाजी) चीखे, ‘हा खुदायो’.
पलक झपकते ही सेना का एक जवान हमारे सामने था. उससे बहुत बुरी बदबू आ रही थी. मैंने देखा उसके हाथ में शराब की बोतल थी. मेरा गला सूख गया, मैं चीख भी नहीं सकी, ना ही खड़ी हो सकी. ऐसा लग रहा था जैसे ज़मीन ने मुझे जकड़ लिया हो. फातिमा और अमीना ने मुझे दोनों तरफ से पकड़ रखा था. कुछ देर में वहां और जवान चले आए, वो एक से छह हो गए. मैं चिल्लाना चाहती थी. मुझे अब दादाजी की आवाज़ भी नहीं सुनाई दे रही थी. मुझे नहीं पता था कि वो मेरी मां को कहां ले गए.
उनमें से एक ने मेरे बाल पकड़ लिए. मैंने उसके पांव पकड़ लिए. गिड़गिड़ाई, ‘खुदा के लिए हमें छोड़ दो. हमने कुछ नहीं किया.’ मैंने अपना सर उनके जूतों में झुका दिया. मेरी मां भी वहीं आ गई थी. मैं अपनी पूरी ताकत से चिल्लाई, ‘मौजी मे बचाय ती’ (मां मुझे बचा लो.) वो कैसे बचाती? मैं वो बताना भी नहीं चाहती जो मैंने उसके साथ होते हुए देखा. मेरा फिरन टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया, और उसके साथ मेरी सारी ज़िंदगी भी.
जब मैं होश में आई तो मेरा सिर एकदम खाली था और बदन सुन्न. मेरा चेहरा गीला था. मैंने महसूस किया कि मैं रो रही थी. सिर्फ मेरा बदन ही नहीं मेरी आत्मा भी नंगा महसूस कर रही थी. मां भी उसी कमरे में थी. वो बेहोश थी या बेहोश होने का नाटक कर रही थी. उसका चेहरा मेरी तरफ नहीं था. मैंने किसी को रोते हुए सुना. ये मेरा भाई था, उसने मुझे किसी चीज़ से ढक दिया. मुझे अब याद भी नहीं है कि वो क्या था. मैंने आज तक उससे पूछा भी नहीं है. हमने उस रात के बारे में कभी बात नहीं की. पर मुझे याद है कि मैं अपने शरीर के निचले हिस्से को महसूस नहीं कर पा रही थी.
अब वही एक रात मेरी ज़िंदगी बन गई है. कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं क्या करती हूं, कहां जाती हूं, क्या सोचती हूं. वो रात मेरा पीछा नहीं छोड़ती. चाहे मैं नमाज़ पढ़ूं, खाना बनाऊं या खुद को साफ करूं, वो रात हमेशा मेरे साथ होती है. मैं हमेशा उन्हें कोसती रहती हूं, और ज़िंदगी भर कोसती रहूंगी. लोग मुझे सांत्वना देते हैं. कहते हैं कि तुम्हें इसे भूल कर आगे बढ़ जाना चाहिए. पर कहना आसान है, करना नहीं. ये ऐसा है जैसे आप अपनी आंखें खो दो और मान लो कि आंखें कभी थी ही नहीं.
मैंने पुलिस को बयान नहीं दिया. मेरे परिवार को डर था कि कोई मुझसे शादी नहीं करेगा. मैंने कभी शादी नहीं की. ऐसा नहीं है कि मैं शादी नहीं करना चाहती थी. पर मेरी सेहत ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया. मैं शादी के लायक नहीं हूं और मैं किसी की ज़िंदगी तबाह नहीं करना चाहती. और इसके अलावा जब मैंने देखा कि मेरे गांव की लड़कियों से उनके ससुराल वाले कैसे पेश आ रहे हैं तो मैंने शादी न करने का फैसला लिया. हमने अमीना से हुए रेप के बारे में किसी को नहीं बताया. उस रात के बाद जब हम मिले तो हम खूब रोए. हम आज भी दोस्त हैं, पर हमारे बीच एक अनकहा करार है कि उस रात के बारे में किसी से बात नहीं करनी. मैं कुनन और पोशपोरा की बलात्कार पीड़िता हूं. मैं सांस लेती हूं पर ज़िंदा नहीं हूं.’
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23 फ़रवरी, 1991. भारत प्रशासित कश्मीर में कुपवाड़ा ज़िले के छोटे से गांव कुनन-पोशपोरा में दिन भर की गहमागहमी के बाद ज़रीना और ज़ूनी (काल्पनिक नाम) रात को सोने की तैयारी कर रही थीं.
तभी अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई.
उस रात जब ज़रीना और ज़ूनी ने दरवाज़े पर फ़ौज को देखा तो समझ गईं कि ये 'क्रैक डाउन' है.
क्रैक डाउन के वक़्त, जैसा कि आम तौर पर होता है, मर्दों को अलग कर दिया गया और सैनिक घरों में घुस आए. मगर इसके बाद जो हुआ, उसे याद करके आज भी ज़ूनी की आंखें भर आती हैं.
'आज भी याद हैं उनके चेहरे'
ज़ूनी बताती हैं, "हम सोने की तैयारी कर रहे थे कि फ़ौज आ गई. उन्होंने मर्दों को बाहर निकाल दिया. कुछ ने हमारे सामने शराब पी. मेरी दो साल की बच्ची मेरी गोद में थी. हाथापाई में वो खिड़की से बाहर गिर गई. वह ज़िंदगी भर के लिए विकलांग हो गई."
वह कहती हैं, "तीन सैनिकों ने मुझे पकड़ लिया. मेरा फ़िरन (कश्मीरी लोग जो लंबा सा लिबास पहनते हैं), मेरी कमीज़ फाड़ दी. इसके बाद मुझे नहीं मालूम कि क्या-क्या हुआ. वो पांच लोग थे. उनकी शक्लें मुझे आज भी याद हैं."
ज़रीना भी इसी घर में मौजूद थीं. उनकी शादी को सिर्फ़ 11 दिन हुए थे.
ज़रीना कहती हैं, "मैं उसी दिन मायके से वापस आई थी. फ़ौजियों ने मेरी सास से पूछा कि ये नए कपड़े किसके हैं. मेरी सास ने कहा कि ये नई दुल्हन के हैं. इसके बाद जो हुआ, मैं उसे बयान नहीं कर सकती. हमारे साथ सिर्फ़ ज्यादती नहीं हुई, ऐसा ज़ुल्म हुआ है जिसकी कोई हद नहीं. आज भी फ़ौजियों को देखकर हम डर से तड़प जाते हैं."
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सूफिया कहती हैं, उस भयानक रात को मैं नहीं भूल सकती'उस रात 150 औरतों का बलात्कार एक साथ हुआ था. सारे मर्दों को बंद कर दिया गया था दो घरों में. और फिर फौजियों का जत्था टूट पड़ा था औरतों, बच्चियों और बुजुर्ग महिलाओं पर.'
वे आगे कहती हैं, ‘उस रात जब फौजी बदहवास से औरतों पर टूट पड़े थे. उनमें सबसे कम उम्र की बच्ची 14 साल की थी और सबसे ज्यादा उम्र की बुजुर्ग 70 साल की थी.’
कभी रहकर देखियेगा कश्मीर, नार्थ-ईस्ट या किसी भी आतंकवाद और नक्सल प्रभावित क्षेत्र में, आपको जो नँगी-रोती औरतों की तश्वीर दिखायी जाती है, उसके पीछे की सच्चाई आपको बताये गये तथ्यों से कोसो दूर होती है